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Written By BBC Hindi

एक समलैंगिक की दास्तान-3

सोचा न था कि पहचान बन जाएगी समलैंगिकता

एक समलैंगिक की दास्तान-3 -
-सुनील गुप्त
BBCBBC
बचपन से किशोरावस्था तक के सफर की सबसे बड़ी बात यह रही कि कोई भी समलैंगिकता के बारे में बात नहीं करता था। समलैंगिकता शब्द तक मैंने नहीं सुना था। यह एक खेल की तरह लगता था।

मुझे लगा कि कई लोग ऐसा कर रहे हैं, बड़े लोग भी ऐसा कर रहे हैं तो शायद यह ठीक है। बस इसकी चर्चा किसी से नहीं करनी है। यह भी कभी नहीं सोचा था कि आगे चलकर यह मेरी पहचान का हिस्सा बन जाएगा।

ऐसा इसलिए भी था क्योंकि उस जमाने में माता-पिता यह तय करते थे कि बच्चों को क्या करना है। तीन ही बातें समझ में आती थीं। पहला कि डॉक्टर बन जाइए, दूसरा कि इंजीनियर बन जाइए और या फिर तीसरा कि व्यापार के क्षेत्र में आ जाइए।

यहाँ तक कि शादी जैसे अहम फैसले भी परिवार के लोग करते थे। हमें लगता था कि यह तो साथ में चलता रहेगा खेल की तरह। आज के दौर में तो माँ-बाप बच्चों पर खासा ध्यान देने लगे हैं। आप देखिए कि बच्चे अब बाहर कम दिखाई देते हैं। हमारे बचपन में ऐसा नहीं था।

माँ-पिता से ज्यादा सामना नहीं होता था। दरअसल, यह इस पर भी निर्भर होता था कि आप लड़के हैं या लड़की। सारा ध्यान तो लड़कियों पर रहता है, लड़कों की ओर से तो निश्चिंत ही रहते हैं अभिभावक।

मेरी बहन कहीं जाए तो यह सोचा जाता था कि भाई साथ है इसलिए कोई फिक्र की बात नहीं पर लड़का बाकी वक्त में क्या कर रहा है, इस पर शायद किसी का ध्यान ही नहीं गया।

शब्द- समलैंगिक : पहली बार समलैंगिक शब्द से मेरा परिचय मेरी बहन की वजह से हुआ। मेरी बहन मुझसे बड़ी हैं और वो उन दिनों कॉलेज में थीं, मैं सीनियर स्कूल में। घर से लड़कियों का अकेले किसी से मिलने जाना तो मान्य नहीं था इसलिए जब वो अपने दोस्तों से मिलने जातीं तो मैं भी मजबूरी में साथ जाता।

एक बार उनके कुछ मित्रों की आपस में बातचीत हो रही थी कि कौन किसका जोड़ीदार है, किसका किसके साथ चक्कर चल रहा है। और तब यह बात पता लगी कि कुछ ऐसे भी हैं जो पुरुष हैं और उनका संबंध पुरुषों से है।

तब पहली बार समलैंगिक शब्द सुनने को मिला। आज उन समलैंगिकों में से कुछ दिल्ली के चर्चित नाम हैं। इस सर्किल के जो लोग समलैंगिक थे, बाकी के दोस्त उनके बारे में हँसते थे, कुछ मजाक जैसा करते थे पर नकारात्मक रूप से कभी टिप्पणी नहीं की जाती थी।

इस दौरान मेरी उम्र 16 बरस की हो चुकी थी और मेरा समलैंगिक होना अभी तक परिवार, स्कूल या जानने वालों के सामने नहीं आया था और फिर ऐसा हो पाता, इससे पहले मैं भारत से बाहर चला गया।

पश्चिम की राह : हुआ यूँ कि एक दिन मुझे अचानक चलने के लिए कहा गया और हम एक हवाई जहाज में जा बैठे। हम भारत से कनाडा जा रहे थे। कनाडा पहुँचकर मुझे बाकी की पढ़ाई वहीं करनी थी। वहाँ पहुँचा तो उस जगह और वहाँ के लोगों के बारे में मैं पूरी तरह से अंजान था।

दिल्ली में तो समलैंगिकता को लेकर मेरे अनुभवों का एक ताना-बाना तैयार हो गया था। मुझे मालूम था कि कहाँ जाना है, कौन साथ होंगे वगैरह... लेकिन कनाडा जाकर सब कुछ बंद हो गया।

इसकी दो वजहें थीं। एक तो यह कि हमारा दिल्ली में रहते हुए किसी विदेशी आदमी से, खासकर गोरी चमड़ी वाले से कोई वास्ता नहीं रहा और न ही हमने उनके बारे में कभी सोचा इसलिए उनके प्रति कोई आकर्षण या इच्छा भी मन में नहीं थी।

दूसरा यह कि हम अपने वर्ग के भारतीय लोगों के साथ ऐसा करते आए थे पर वहाँ तो भारतीय न के बराबर थे। फिर हम जहाँ रह रहे थे वो शहर के बीचोबीच का इलाका था इसलिए सामाजिक रूप से भी हमारी सक्रियता और गतिविधियाँ न के बराबर ही थीं।

नई दुनिया : मेरे साथ सेन फ्रांसिस्को में कई नई और अजीब बातें हो रही थीं जिनसे मैं पहले से परिचित नहीं था। हम जिस स्कूल में गए थे उसमें लड़के-लड़की दोनों साथ-साथ पढ़ते थे। सब लोग सेक्स के बारे में खुलकर बात करते थे, जो कि मेरे लिए एकदम नया था।

इसी तरह स्वीमिंग या खेल के लिए भी हम अपने दोस्तों के साथ जाते थे। इस दौरान समूह में सारे कपड़े उतारकर लोग एकसाथ नहाते थे और खूब सेक्स की बातें करते थे। हालाँकि मेरा अनुमान है कि उसमें कहानियाँ ज्यादा होती थीं और हकीकत कम।

उस समाज में 16 बरस की उम्र से लड़के-लड़की की डेटिंग का सिलसिला भी शुरू हो जाता है इसलिए यह दबाव महसूस होता था कि अपने लिए भी कोई लड़की ढूँढ़नी होगी ताकि डेट पर जा सकें।

यह वो दौर था जब न्यूयॉर्क में समलैंगिकता की बहस अधिकारों की लड़ाई में शामिल हो गई थी और इसकी चर्चा बाकी की जगहों पर पहुँचने लगी थी।

मैंने इस दौरान एक नए सिरे से समलैंगिकता को समझना शुरू किया। काफी कुछ पढ़ने के लिए उपलब्ध था। कई शोध और काफी काम हो रहा था।

यहीं पहुँचकर मैंने सेक्स, समलैंगिकता, फैमिनिज्म आदि के बारे में पढ़ा, इन्हें जाना। यहीं पढ़ते हुए पता चला कि समलैंगिक कौन होते हैं, यह क्या प्रवृत्ति होती है और यहीं समझ में आया कि मेरी प्रवृत्ति के आधार पर मैं एक समलैंगिक हूँ।

हाँ, पर यहाँ केवल पढ़ा जा रहा था या फिर बात हो रही थी, सेक्स करने का मौका नहीं था, कुछ प्रयोग नहीं हो रहा था। यह सिलसिला साल भर चला और फिर मैंने अपना एक साथी ढूँढ ही लिया... (आगे, अगले अंक में)

(सुनील आनंद से पाणिनी आनंद की बातचीत पर आधारित)

किशोरावस्था की जिज्ञासाएँ और समलैंगिकता