शनिवार, 20 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. »
  3. व्रत-त्योहार
  4. »
  5. अन्य त्योहार
Written By ND

जीवन को अभिव्यक्त करता संजा पर्व

जीवन को अभिव्यक्त करता संजा पर्व -
- रश्मि रमानी

ND
गणेश विसर्जन के दूसरे दिन यानी पूनम को मालवा, निमाड़ और राजस्थान की किशोरियों की सखी-सहेली संजा मायके पधारती हैं। संजा यानी स्मृतियों और आगत के अद्भुत संगम का पर्व। एक ओर पुरखों की यादें तो दूसरी ओर किशोरियों के मन में विवाह की कामना। योग्य वर की चाहत रखने वाली कुँवारी किशोरियाँ सृजन और विसर्जन के इस पर्व को श्राद्ध पक्ष के सोलह दिनों तक बड़े चाव से मानती हैं।

संजा की सोलह पारंपरिक आकृतियाँ गोबर, फूल, पत्ती और पन्नियों से बनती हैं। संजा के दिनों में ताजे हरे गोबर को ढूँढने में बड़ी कठिनाई होती है, पर जैसे ही गोबर मिल जाता है प्रसन्नचित लड़कियों की खोजी निगाहें ढूँढती हैं, चाँदनी के दूधिया-सफेद, कनेर के पीले, गुलाबी और देसी लाल गुलाब के फूलों को।

संजा के नाम पर कभी माँगकर, तो कभी चुराकर लाए गए फूलों और गोबर के 'रॉ मटेरियल' के मिलने पर शुरू होता है असली काम। घर की बाहरी दीवार के किसी कोने में पानी छिड़ककर छोटे से हिस्से को गोबर से लीपा जाता है और इस पर पूनम को पाटलो, बीज को बीजारू, छठ की छाबड़ी, सतमी को सांतियो से लेकर अमावस्या तक के सोलह दिनों में पारंपरिक आकृतियाँ बनाई जाती हैं। अंतिम दिन बनता है किलाकोट।

ND
गोबर से उकेरी और फूलों से सजी इन आकृतियों को देखकर लड़कियाँ किसी कलाकार की तरह प्रसन्न होती हैं और सुमधुर कंठों से फूट पड़ते हैं संजा-गीत। घेरदार घाघरा और गुलाबदार साड़ी पहनने वाली, गहनों से सजी, खीर-पूड़ी खाने की शौकीन, नाजुक सलोनी संजा कल्पना में तैरती है। संजा को पूजती किशोरियाँ 'पेली आरती राई रमझोर' का जैसे ही अलाप लेती हैं तो पहले से ही चौकस बैठी लड़कियाँ घर से भाग छूटती हैं और शुरू हो जाता है समवेत गान, 'छोटी-सी गाड़ी गुड़कती जाए, गुड़कती जाए, जी में बैठ्या संजा बाई, घाघरो धमकाता जाए, चूड़लो छमकाता जाए, बई जी की नथड़ी झोला खाए, बताई दो वीरा पीयर जाए।'
संजा के छोटे-छोटे सुख-दुःख गीत बनकर उसके जीवन को अभिव्यक्त करते हैं। पारंपरिक भारतीय स्त्री की तरह हाथी-घोड़ों और जेवर-कपड़ों की समृद्धि और ढेर सारा प्यार करने वाले पति के होने पर भी संजा की दुतेली (दुष्ट) सासु संजा को चैन से कहाँ रहने देती है। शायद इसीलिए लड़कियाँ पूरे जोश से गाती हैं- संजा के सासरे जावांगा खाटो-रोटी खावांगा, संजा की सासू दुतेली, असी दूँगा दारी के चमटा की, काम करऊँगा धमका की।

संजा के तेरहवें दिन या पंद्रहवें दिन बनता है किलाकोट। भारत के किसी भी गाँव को अभिव्यक्त करते किलाकोट का निर्माण तो महाअभियान जैसा होता है, जिसमें पास-पड़ोस की महिलाएँ भी हाथ बँटाती हैं। गेरू या चूने से किलोकोट की 'आउट लाइन' दक्ष हाथों से खींची जाती हैं और गोबर लिपि दीवार पर दाएँ-बाएँ सबसे ऊपर कोने में बनते हैं चाँद-सूरज, कमल का फूल, स्वस्तिक, ढोली, भिश्ती, जाड़ी जसोदा, पतली पेमाजी के बुंदकियों वाले घाघरे, चने की पीली दाल और गेहूँ के दानों से सजते।

दाने निकले भुट्टे के टुकड़े से बनता है ढोली का ढोल और झाड़ू की सींक होती है ढोली की संटी। इसी दिन चाहिए, ढेर सारा गोबर, थाली भर फूल और कंजूस के धन की तरह सेंतकर रखी गई सुनहरी रूपहली पन्नियाँ जिन्हें चिरौरी करके या खरीदकर पान-सिगरेट बेचने वालों से लाया जाता है। फूल-पत्तों से सजे इस किलाकोट से ग्रामीण जीवन कुछ इस तरह साकार होता है कि जी जुड़ा जाता है।

संजा के सासरे जाने का दिन जल्दी ही आ जाता है, पर ससुराल से हाथी, घोड़े और पालकी आने पर भी संजा ससुराल नहीं जाना चाहती। कीमती जेवर, चमचमाते कपड़े भी उसे नहीं मोहते, उल्टे संजा की सखियाँ इन कपड़ों में मीन-मेख निकालती गाती हैं- संजा बाई का लाड़ाजी लुगड़ो लाया जाड़ाजी, ऐसो कई लाया जाली को, लाता गोट किनारी को, संजा बाई तो गोल-गोल लुगड़ो लाया झोल मोल!' रूठने-मनाने का दौर पूरा होता और संजा चाली सासरिए... का गीत गाती लड़कियाँ दीवार से किलाकोट खुरच देती हैं।

पहले दिन से किसी परात या तगारी में एकत्र की गई अब तक की सारी संजा की खुरचन सिर पर रखकर लड़कियाँ झुंड बनाकर किसी नदी-तालाब में इस सामग्री को प्रवाहित कर आती हैं। संजा तू जल्दी आजे की मनुहार के साथ संजा विदा होती है। फिर इसी दिन कन्याएँ जिमाई जाती हैं और खीर-पूड़ी बनती है।

हालाँकि ये दृश्य अब छिटपुट ग्रामीण अंचलों तक ही सिमटकर रह गए हैं। गोबर को देखकर नाक-भौं सिकोड़ने वाली और लोक संस्कृति से अपरिचित टीवी सीरियल देखने में व्यस्त, एक-दूसरे से बाजी मारने को तैयार आज की लड़कियाँ भला कैसे गुनगुना सकती हैं- 'संजा एक सहेली मिलती तो जा कई मिलूँ दरी (सखी) छेटी, पड़ जाए...।' इस चित्र पर्व और गीत पर्व को मैं बरसों से मन में सँजोए हूँ।

संजा का मौसम आते ही शाम के समय आकाश उड़ते तोतों को देखकर मन में कोई किशोरी गा उठती है, 'तोता-तोता रे थारी चोंच चमेली जाजे-जाजे रे बई संजा का दरबार, बई ने ला जा रे हाथी में बैठाय, बई तो उतरिया रे बीरा दो मेंदी का झाड़, बई ने रंगिया रे बीरा लाल गुलाबी हाथ, बई की साथन-गोठाण रे बीरा जावेगा बाट।'