मंडी बनाया विश्व को
- हरिहर झा, ऑस्ट्रेलिया
लुढ़कता पत्थर शिखर से, क्यों हमें लुढ़का न देगाकेन पर ऊंचा चढ़ा कर, चैन उसकी तोड़ दी लोभ का दर्शन बना, मझधार नैया छोड़ दी ऋण-यंत्र से मंदी बढ़ी, पोखर में डॉलर बह लिया अर्थ की सरिता में, भोंडे नाच से मोहित किया। बहकता उन्माद सिर पर क्यों हमें बहका न देगा लुढ़कता पत्थर शिखर से, क्यों हमें लुढ़का न देगा। सैज सिक्कों की बनी, सब बेवफाएं सो रही मंडी बनाया विश्व को, 'नीलाम' गुडविल हो रही गर्मजोशी बिकी, सौदाई का जादू चल गयाशेयरों में आग धधकी, लहू कितना जल गया। तड़पता सूरज दहक कर कहो क्यों झुलसा न देगालुढ़कता पत्थर शिखर से, क्यों हमें लुढ़का न देगा। उपभोग की जय-जय हुई, बाजार घर में आ घुसे व्यक्ति बना सामान और रिश्तों में चकले जा घुसे मोहक कला विज्ञापनों की, हर कोई इसमें फंस लिया अभिसार में मीठा जहर, विषकन्या बन कर डंस लिया। फैकी गुठली रस-निचुड़ी, कोई क्यों ठुकरा न देगालुढ़कता पत्थर शिखर से, क्यों हमें लुढ़का न देगा।