मंगलवार, 23 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. योग
  3. आलेख
  4. Yoga, internation Yoga Day, Russia, Ram Yadav

जब दो रूसियों ने पश्चिमी जगत को योग सिखाया

जब दो रूसियों ने पश्चिमी जगत को योग सिखाया - Yoga,  internation Yoga Day, Russia, Ram Yadav
यूरोप और अमेरिका को भारतीय योग साधना सिखाने में दो रूसी सबसे आगे थे। एक ने जर्मनी को और दूसरे ने अमेरिका को योग सिखाया। एक पुरुष था, कभी भारत गया ही नहीं था। दूसरी एक महिला थीं, भारत में रहकर योग सीखा था। 
भागवत गीता का संस्कृत से जर्मन भाषा में पहला अनुवाद 1823 में जर्मनी के बॉन विश्वविद्यालय में भारत विद्या के प्रोफेसर आउगुस्त विलहेल्म श्लेगल ने किया था। गीता के छठे अध्याय में श्रीकृष्ण ने योग साधना पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए समस्त भावों में आत्मस्थ रहते हुए आत्म के परमात्म से एकत्व को योग बताया है यानी योग तन और मन को साधते हुए आत्मा को परमात्मा की ऊंचाई तक ले जाने का मार्ग है। गीता, शकुंतला और उपनिषदों के अनुवादों ने गौएटे, शिलर और शेलिंग जैसे उस समय के बहुत-से जर्मन विद्वानों को चमत्कृत किया। बाद के वर्षों में शोपेनहाउएर, नीत्शे और हेर्मन हेसे जैसे चिंतकों व साहित्यकारों पर भी इस तथाकथित 'भारतीय रोमांटिकता' का रंग देखने में आया किंतु यह सब उस समय के जर्मन समाज के कुछ विशिष्ट वर्गों के बीच केवल वैचारिक वाद-विवाद का ही विषय बना रहा। जनसाधारण भारतीय योग -ध्यान-दर्शन से बेखबर ही रहा। 
 
भारत पर उस समय अंग्रेजों का राज था। वे चाहते तो योग और ध्यान के तौर-तरीके भारतीयों से सीखकर यूरोप में प्रचारित कर सकते थे, पर अंग्रेजों ने योग जैसी शरीर की ऐंठ-मरोड़ के प्रति उपेक्षापूर्ण रुख अपनाने में ही अपना हित देखा। वे सोचते थे कि हम भारतीयों से ऊंचे हैं। उन पर राज करने आए हैं न कि उन्हें अपना गुरु बनाने। यह भी डर था कि भारतीयों से योग साधना सीखने से भारतीयों का स्वाभिमान बढ़ेगा। राष्ट्रवाद और भी प्रबल होगा। स्वाधीनता की मांग और भी मुखर बनेगी। अंग्रेजों के इस रुख के कारण भारतीय योग विद्या का व्यावहारिक पक्ष भारत तक ही सीमित रहा। 
 
स्थिति ने मोड़ तब लिया, जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए। वहां 11 सितंबर 1893 के दिन शिकागो की 'विश्व धर्म संसद' में भारत और हिन्दू धर्म के बारे में उन्होंने जो ओजस्वी भाषण दिया, उससे उनके नाम की धूम मच गई। धूम की चर्चा यूरोप भी पहुंची। धर्म संसद में तो उन्होंने 'योग' शब्द का प्रयोग नहीं किया किंतु उसके बाद अमेरिका के जिन अन्य शहरों का उन्होंने भ्रमण किया, वहां राजयोग भी सिखाया। योग शास्त्रों में वर्णित यम-नियम आदि के अभ्यास से चित्त को निर्मल कर ज्योतिर्मय आत्मा का साक्षात्कार करना राजयोग कहलाता है। यूरोप में भी स्वामी विवेकानंद की चर्चा तो हुई, पर सारी चर्चा जबानी व किताबी बनकर ही रह जाती थी। लोग जान नहीं पा रहे थे कि विभिन्न योगासन और ध्यान-धारण करते कैसे हैं?
 
बुडापेस्ट में पहली बार राजयोग का प्रदर्शन : हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट यूरोप का संभवत: ऐसा पहला शहर था, जहां भारत से आए कुछ योगियों ने 1896 में पहली बार राजयोग का प्रदर्शन किया। हंगरी को एक देश बने उस वर्ष 1,000 साल पूरे हुए थे। इस उपलक्ष्य में बुडापेस्ट में एक 'राष्ट्रीय सहस्राब्दी प्रदर्शनी' लगी थी। उन योगियों में एक थे भीमसेन प्रताप। उन्होंने दर्शकों को दिखाया कि राजयोग में इंद्रियों के वशीकरण द्वारा इस तरह ध्यानमग्न कैसे हुआ जाता है कि दीन-दुनिया की सुध-बुध ही न रहे। इससे दर्शकों में अविश्वासपूर्ण कौतूहल तो जागा, पर क्योंकि वे योगी भारत लौट गए इसलिए योग सिखाने वाला कोई नहीं रहा।
 
इसे एक विडंबना ही कहना होगा कि जर्मनी में भारत विद्या के अध्ययन व संस्कृत भाषा के पठन-पाठन की लंबी परंपरा होते हुए भी योग साधना सिखाने का पहला स्कूल बर्लिन में किसी जर्मन ने नहीं, एक रूसी ने खोला- नाम था बोरिस सखारोव और वर्ष था 1921। जन्म हुआ था 1899 में आज के यूक्रेन में, जो उस समय रूसी जारशाही का और बाद में सोवियत संघ एक हिस्सा हुआ करता था।  बोरिस सखारोव की स्कूली पढ़ाई-लिखाई रूस में ही हुई थी।
 
इंजीनियरिंग की पढ़ाई के साथ योग में दिलचस्पी  : ओदेसा में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के समय भारत में ऐसी दिलचस्पी जागी कि साथ-साथ भारतीय दर्शनशास्त्र और संस्कृत की पढ़ाई भी शुरू कर दी, योग ाभ्यास भी करने लगे। लेनिन के नेतृत्व में 1917 की रूसी 'महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति' के बाद बोरिस सखारोव को देश छोड़कर भागना पड़ा। लेनिन के कम्युनिस्टों ने उनके संपन्न माता-पिता की संपत्ति छीन ली थी और दोनों की हत्या कर दी थी। 
 
बोरिस सखारोव ने 1919 में बर्लिन को अपना नया बसेरा बनाया। वे अनुवादक और दुभाषिये का काम करने लगे। बर्लिन के तकनीकी विश्वविद्यालय में गणित व भौतिक शास्त्र की पढ़ाई भी शुरू कर दी। इसी सबके बीच 1921 में बर्लिन में योगाभ्यास सिखाने का अपना एक स्कूल भी खोल दिया। उसे वे 'भारतीय शारीरिक व्यायामशाला' कहा करते थे। 'योग ' शब्द तब तक बहुत अनसुना था। जर्मनी ही नहीं, संभवत: पूरे यूरोप में अपने ढंग का वह पहला स्कूल था। संभवत: 1926 में बोरिस सखारोव की हॉलैंड में भारतीय कवि और दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति से भेंट हुई। यह भी कहा जाता है कि सखारोव ब्रसेल्स या एम्सटर्डम में स्वामी शिवानंद से भी मिले थे और उनके शिष्य बन गए थे। स्वामी शिवानंद से ही उन्हीं 1947 में 'योग राज' की उपाधि भी मिली।
 
हिटलर की शक्की सनक :  बर्लिन में सखारोव का योग स्कूल उस दौरान भी चलता रहा, जब 1933 से 1945 तक जर्मनी में हिटलर की तानाशाही रही। हिटलर का समझना था कि जर्मनों की ही तरह अधिकतर भारतीय भी आर्यवंशी हैं। आरंभ में तो उसने कोई अड़ंगा नहीं डाला किंतु उसका शक्की माथा ठनकते देर भी नहीं लगी कि योग जिस आध्यात्मिक चिंतन-मनन की ओर ले जाता है, वह उसकी तानाशाही के लिए चुनौती बन सकता है। बोरिस सखारोव का योग स्कूल बंद तो नहीं किया गया, पर उसके विस्तार या नए स्कूल खोलने की अनुमति भी नहीं दी गई। यही कारण है कि जर्मनी ही नहीं, पूरे यूरोप में योग साधना का सही मार्ग केवल तब प्रशस्त हो सका, जब 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत के बाद- कम से कम पश्चिमी यूरोप में- लोकतंत्र और कानून के राज का एक नया युग शुरू हुआ। पूर्वी यूरोप इस विकास से तब तक कटा रहा, जब तक कि ढाई दशक पहले बर्लिन दीवार गिरने के बाद वहां के देशों में कम्युनिस्ट तानाशाहियों का भी पतन नहीं हो गया।
 
बोरिस सखारोव को युद्ध के अंतिम दिनों में बर्लिन से भी भागना पड़ा, क्योंकि बर्लिन पर उसी सोवियत लाल सेना का कब्जा हो गया था जिसके डर से 27 साल पहले उन्हें रूस से भागना पड़ा था। उन्होंने दक्षिणी जर्मनी के बायरोएथ शहर में शरण ली, जहां अमेरिकी सेना का कब्जा था। वहां उन्होंने एक नया योग स्कूल खोला, पुस्तकें लिखीं, हठयोग को वैज्ञानिक आधार देने का काम किया और स्थानीय सरकारी प्रौढ़ शिक्षा कॉलेज में भी योग सिखाने लगे। 6 अक्टूबर 1959 को एक सड़क दुर्घटना में उनकी अकाल मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद उनके मित्रों और शिष्यों ने जर्मनी में योग सिखाने का काम आगे बढ़ाया।
अगले पन्ने पर, जर्मनी बना योगी....
 
 

जर्मनी बना योग प्रेमी  : 1960 वाले दशक से तत्कालीन पश्चिम जर्मनी में योग साधना की जड़ें धीरे-धीरे जमने और फैलने लगीं। निजी प्रयासों से योग सीखने-सिखाने के नए-नए स्कूल, केंद्र या संस्थान बनने लगे। 1967 में 'जर्मन व्यावसायिक योग शिक्षक संघ' (बीडीवाई) की स्थापना हुई। 1969 से यह संघ किसी श्रमिक संगठन के समान, योग शिक्षकों के हितों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता है, उनके व्यावसायिक शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था भी करता है। 'बीडीवाई' जैसी ही एक और संस्था है 'डीवाईजी' (जर्मन योग समाज), जिसका मुख्य काम जर्मनी में योग संबंधी सभा-सम्मेलनों का आयोजन करना है।
 
इन दोनों संस्थाओं के प्रयासों से जर्मनी में योग शिक्षा के स्तर और योग शिक्षकों की व्यावसायिक गुणवत्ता में काफी समानता आई है। लोग किसी वेलनेस या फिटनेस स्टूडियो या किसी छोटे-मोटे हॉल में चल रहे निजी स्कूल में ही नहीं, जन-महाविद्यालय कहलाने वाले सांध्य शिक्षा के सरकारी प्रौढ़ शिक्षा केंद्रों, कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट ईसाई संप्रदायों के शिक्षा संस्थानों, योग शिविरों या फिर विश्वविद्यालयों तथा रेडक्रॉस जैसी संस्थाओं द्वारा संचालित कोर्सों में भी योग करना और ध्यान लगाना सीख व सिखा सकते हैं। यहां तक कि बड़ी-बड़ी संस्थाओं, कंपनियों व कारखानों ने भी अपने कर्मचारियों की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए योग शिक्षकों की सेवाएं लेना शुरू कर दिया है। कंपनियों, संस्थाओं इत्यादि को इस पर जो खर्च आता है, उसके एक हिस्से पर उन्हें कर में रियायत मिलती है। डॉक्टर भी अपने मरीजों को योग सीखने की सलाह देने लगे हैं। कई स्वास्थ्य बीमा कंपनियां इस पर आया खर्च लौटाती हैं। 
 
जर्मन स्कूलों-किंडरगार्टनों में भी योग : शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए योग और ध्यान की उपयोगिता सैकड़ों वैज्ञानिक प्रयोगों व अध्ययनों में सिद्ध हो जाने के बाद अब जर्मनी के सामान्य स्कूलों और किंडरगार्टनों के बच्चों को भी स्वैच्छिक आधार पर हठयोग सिखाना शुरू हो गया है। इसके लिए किसी खेल या संगीत की शौकिया मंडलियों की तरह ही बच्चों की योग मंडलियां बनाकर उन्हें छोटी आयु में ही योग आसनों से परिचित कराया जाता है। सौभाग्य से जर्मनी के धर्मनिरपेक्षतावादी वामपंथियों को पता नहीं है कि भारत के वामपंथी ऐसी बातों को नरेन्द्र मोदी, भाजपा और आरएसएस की 'भगवाकरण योजना' कहते हैं। 
 
वैसे योग साधना का प्रचार-प्रसार यदि 'भगवाकरण' है तो भारत के बाहर इसके लिए स्वामी विवेकानंद और उनके जैसे गुरुओं-स्वामियों को भी और उनसे भी अधिक यूरोप के उन भारतविदों को दोष देना चाहिए जिन्होंने 'भागवत गीता' या पतंजलि की 'योग-सूत्र' जैसी पुस्तकों का यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद कर यूरोपवासियों को पहली बार 'योग' शब्द के अस्तित्व की जानकारी दी थी। 
 
यूरोप पूंजीवादी है और पूंजीवाद में धर्म नहीं, धन की तूती बोलती है। धनोपार्जन के आगे धर्मोपदेश नहीं चलते। योग का प्रचार-प्रसार इस बीच धनोपार्जन का एक बहुत बड़ा साधन बन गया है। स्वामी विष्णु-देवानंद (जीवनकाल 1927 से 1993) के एक 51 वर्षीय जर्मन शिष्य हैं योगाचार्य सुखदेव ब्रेत्स। सुखदेव बनने से पहले उनका नाम था फोल्कर ब्रेत्स। उन्होंने मैनेजमेंट की पढ़ाई की थी। पारंपरिक हठयोग सिखाने के लिए 1992 में सुखदेव ने फ्रैंकफर्ट में 'योग विद्या' नाम से एक स्कूल खोला। 1995 में उसे एक अलाभदेय जनहितकारी पंजीकृत संस्था में बदल दिया। 
 
यूरोप की सबसे बड़ी योग प्रचारक संस्था आज अकेले इस संस्था के पास योग सिखाने के 102 केंद्र हैं। 4 सुरम्य स्थानों पर 'सेमिनार सेंटर' कहलाने वाले ऐसे योगाश्रम भी हैं, जहां किसी अच्छे होटल जैसी सारी सुविधाएं हैं। लोग वहां कुछ दिन रहकर आराम-विश्राम कर सकते हैं, आयुर्वेदिक शाकाहारी भोजन का आनंद भी ले सकते हैं। इस संस्था ने अब तक 13,000 योग शिक्षक तैयार किए हैं। धीरे-धीरे वह यूरोप की सबसे बड़ी जनहितकारी बहुमुखी अलाभदेय योग संस्था बन गई है। यौंग हो किम कोरियाई हैं। फ्रैंकफर्ट में कोरियाई द्वंद्वकला तैए-क्वॉन-दो सिखाया करते थे। 2007 से योग सिखाने लगे हैं। जर्मनी में ही नहीं, ऑस्ट्रिया और स्विट्जरलैंड में भी उनके 'इनसाइड योगा' की शाखाएं हैं। हर साल सौ से डेढ़ सौ योग शिक्षक भी तैयार करते हैं। हर शिक्षक से 3,200 यूरो लेते हैं।
 
आंकड़ों का कहना है कि सवा 8 करोड़ की जनसंख्या वाले जर्मनी में 24 लाख महिलाओं सहित 26 लाख लोगों यानी 3.3 प्रतिशत जनता को योगाभ्यास का शौक है। 12 प्रतिशत और लोग योग किया करते थे, पर इस समय नहीं कर रहे हैं। देश में इस समय करीब 20 हजार योग शिक्षक हैं यानी योग एक बहुत बड़ा आर्थिक कारक बन गया है। अकेले योग कक्षाओं की फीस ही 2 से 3 अरब यूरो के बराबर आंकी जा रही है। योगाभ्यास के समय लगने वाले पहनावों-प्रसाधनों की कीमतों और आश्रमों या विश्रांति स्थलों के किरायों को भी जोड़कर देखने पर अनुमान है कि जर्मनी का योग बाजार करीब 5 अरब यूरो वार्षिक के बराबर है। 
 
ब्रिटेन रह गया पीछे  भारत का औपनिवेशिक मालिक होते हुए भी ब्रिटेन योग साधना के प्रचार-प्रसार में जर्मनी से पीछे रह गया। गीता का पहला अंग्रेजी अनुवाद उसके जर्मन अनुवाद से हालांकि 38 वर्ष पहले ही प्रकाशित हो गया था, तब भी भारतीय संस्कृति के वैश्विक महत्व की ओर ब्रिटिश चिंतकों और विद्वानों का ध्यान श्लेगल, शिलर और गौएटे जैसे जर्मन मनीषियों की भारत के प्रति 'रूमानियत' से पेरित होकर उसके बाद ही गया। ब्रिटेन के जनसाधारण के धरातल पर भारतीय योग साधना का पहुंचना 1930-40 वाले दशक से पहले गति नहीं पकड़ पाया।
 
रूस में जन्मी जिस महिला ने भारत में रहकर योग सीखा और बाद में उससे उत्तरी और दक्षिणी दोनों अमेरिकी महाद्वीपों को आलोकित किया, उनका मूल नाम था एवगेनिया पेतरसन, पर उसे त्यागकर वे इंद्रा देवी बन गईं। 
 
इंद्रधनुषी इंद्रा देवी : 'योग माता' इंद्रा देवी के नाम की तरह ही उनकी जीवनकथा भी इंद्रधनुषी है। जन्म हुआ था 12 मई 1899 को जारशाही रूस के लातविया की राजधानी रीगा में। मां एक कुलीन घराने की रूसी थीं, पिता एक स्वीडिश बैंकर। जब वे 15 साल की थीं, तो मॉस्को में नाट्यकला की पढ़ाई कर रही थीं, तभी रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक पुस्तक और एक अमेरिकी योगी रामचरक (मूल नाम विलियम वॉकर एटकिन्सन) की लिखी पुस्तक 'योग दर्शन और प्राच्यदेशीय तंत्र-मंत्र के 14 पाठ' पढ़कर भारत के प्रति आसक्त हो गईं। रूस में 1917 की समाजवादी क्रांति के साथ जारशाही के अंत और कम्युनिस्ट सत्ता के आगमन की उथल-पुथल के बीच उनकी मां उन्हें लेकर लातविया और पोलैंड में भटकते हुए 1921 में बर्लिन पहुंचीं। एवगेनिया ने नाट्य और नृत्यकला सीखी ही थी अत: बर्लिन की एक नाट्य मंडली में काम भी मिल गया।
 
1926 में एवगेनिया ने सुना कि महात्मा गांधी की निकट सहयोगी एनी बेसेंट की 'थियोसॉफिकल सोसायटी' की ओर से हॉलैंड के ओमेन में एक सम्मेलन होने वाला है। वे भी वहां पहुंचीं। एक शाम वहां उन्होंने योगी, कवि और दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति को मंत्रोच्चार करते सुना। वे ऐसी मंत्रमुग्ध हुईं कि मौका मिलते ही भारत जाने की ठान ली। लेकिन जातीं कैसे? यात्रा के लिए पैसा तो था नहीं। 1927 में जब एक धनी जर्मन बैंकर हेर्मन बोल्म ने एवगेनिया के सामने विवाह-प्रस्ताव रखा तो उन्होंने कहा, हां, लेकिन इस शर्त पर कि पहले तुम मेरी भारत यात्रा का खर्च उठाओगे। बोल्म की दी हुई सगाई की अंगूठी पहनकर एवगेनिया भारत गईं। तीन महीने बाद भारत से लौटते ही अंगूठी लौटा दी। कहा, 'क्षमा करना, मेरी जगह तो भारत में है।' अपने सारे गहने-जेवर बेचे और एक बार फिर चल पड़ीं भारत की ओर।
 
जब एवगेनिया बनीं इंद्रा देवी  : भारत पहुंचते ही इस बार अपना एक नया नाम रख लिया- इंद्रा देवी। बंबई के फिल्म जगत में नर्तकी और अभिनेत्री का काम करने लगीं। वहीं बंबई के चेकोस्लोवाक वाणिज्य दूतावास के एक अधिकारी यान स्त्राकाती से परिचय हुआ। 1930 में दोनों ने शादी भी कर ली। अपने पति के माध्यम से ही इंद्रा देवी मैसूर के महाराजा से परिचित हुईं। योग गुरु तिरुमलाई कृष्णमाचार्य उनके राजमहल में ही योग शिक्षा दिया करते थे। इंद्रा देवी ने जब उनसे कहा कि वे भी उनसे योग साधना सीखना चाहती हैं, तो कृष्णमाचार्य ने यह कहकर मना कर दिया कि वे एक पश्चिमी देश की हैं और महिला हैं। अंतत: महाराजा को हस्तक्षेप करना और कृष्णमाचार्य को मनाना पड़ा। इंद्रा देवी ने भी अपने योग गुरु के सभी कठोर नियमों और अनुशासनों का उसी कठोरता और श्रद्धा के साथ पालन किया जिस तरह उनके गुरु बंधुओं और भावी नामी योग गुरुओं पट्टभि जोइस और बीकेएस अयंगर ने किया। 
 
पति के शंघाई में स्थानांतरण के कारण इंद्रा देवी को 1938 में भारत छोड़ना पड़ा। द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने तक वे शंघाई में ही रहीं। वहां चीन के राष्ट्रवादी नेता च्यांग काइ-शेक की पत्नी के घर में उन्होंने चीन में योग शिक्षा का स्कूल चलाया। चीन में यह पहला योग स्कूल था। युद्ध के अंत के बाद वे एक बार फिर भारत लौटीं किंतु इस बार वे अधिक समय तक भारत में नहीं रह सकीं। 
 
1946 में उनके पति का चेकोस्लोवाकिया में देहांत हो गया। पति के अंतिम संस्कारों के बाद वे अमेरिका चली गईं और हॉलीवुड में फिल्मी सितारों को योग सिखाने लगीं। सभा-सम्मेलनों में योग पर भाषण और रेडियो-टेलीविजन पर कार्यक्रम देने लगीं। 1966 में पुट्टपर्थी के सत्य सांई बाबा की भक्त बन गईं। उनसे मिलने के लिए भारत आने-जाने लगीं और अपनी योग शैली को 'सांई योग' कहने लगीं। 1982 में अर्जेंटीना की एक यात्रा के बाद वहीं बस गईं, वहीं राजधानी ब्यूनस आइरस में 102 वर्ष की अवस्था में 25 अप्रैल 2002 को इंद्रा देवी ने अंतिम सांस ली।
 
विश्व योग दिवस पर हमें इन दोनों रूसियों को भी याद करना और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहिए। उन्हें बड़ी हिंसामय परिस्थितियों में अपनी मातृभूमि छोड़कर भागना पड़ा, पर उन्होंने अपना योग प्रेम कभी नहीं छोड़ा। पश्चिमी जगत में जब योग चेतना का ठीक से सूर्योदय भी नहीं हुआ था, तब उसे योग की दीपशिखा से आलोकित करने में उनका व्यावहारिक योगदान स्वामी विवेकानंद या परमहंस योगानंद के सैद्धांतिक योगदान से कतई कम नहीं कहा जा सकता।