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Written By WD

खूबसूरत रंगों की तरह है नारी का संसार

खूबसूरत रंगों की तरह है नारी का संसार - खूबसूरत रंगों की तरह है नारी का संसार
प्र‍ीति सोनी 
सदियों से औरत ताज है इस धरती का...बरसों से वो पहचानी जाती है अपने श्रंगार के लिए, अपने भाव के लिए, अपनी देह के लिए, अपनी ममता के लिए और उसके उद्वेग के लिए और साथ ही... कभी माथे पर बिंदी के लिए तो कभी मांग में सिंदूर के लिए, कभी खनकती चूड़ि‍यों में छुपी होती है उसके आने की आहट, तो कभी उसके आंचल में सिमटा होता है घर-संसार।

कभी रसोई घर में बर्तनों की आवाज उसकी मौजूदगी का अहसास कराती है, तो कभी वो मसालों की महक, जिन्हें पीसते समय वह डाल देती है कुछ प्यार, पोषण और अपनत्व का संपूर्ण एहसास और प्यार भी।


 
लेकिन अब औरत की पहचान बस यहीं तक सिमटी नहीं है, वह देहरी के उस पार भी है और सरहद के उस पार भी। अब केवल घर ही नहीं संभालती, बल्कि संभालती है संस्था को भी....बच्चों को ही नहीं संभालती, संभालती है स्कूलों और कॉलेजों को भी.....घर ही नहीं संवारती, संवारती है अपना और आने वाली पीढ़ी का कल भी....और ख्याल सिर्फ अपनों का ही नहीं रखती, रक्षक है देश की भी.....
 
कोई क्षेत्र उससे अछूता नहीं और कोई काम उससे छूटा नहीं। संस्कारों को बोने के लिए वह शि‍क्षक भी है, ख्याल रखने को चिकित्सक भी, नीति का आलिंगन करती राजनेत्री भी, ख्वाबों की उड़ान भरती पायलट भी और सच का धरातल खोजती शोधकर्ता भी। और यदि वह ये सब नहीं भी होती, तब भी वह सब कुछ है, आज से नहीं सदियों से वह सब कुछ है इस सृष्ट‍ि की। क्योंकि वह किसी पद पर न भी हो, तो सृजनकर्ता के पद पर सदैव आसीन रहेगी, जब तक यह सृष्ट‍ि है। 
 
लेकिन ब्रह्मांड से लेकर धरती तक खुद को प्रमाणि‍त करने के बावजूद, लगता है अब तक वह अपनी धरती पर कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक देह के सिवा। वही देह जो 18 वसंत की देहरी पार करने से पहले ही किसी की आंखों में खुद को विक्षत देख सिमट जाती है...वही देह जो अपनी स्वच्छंदता में गंदी नजरों को अंदर तक घुसपैठ करता पाती है ...वही देह जो बाजार में मैले मन की छुअन को खून के घूंट की तरह पीकर सहमते हुए आगे बढ़ जाती है और फिर किसी की अमानत से किसी की संपत्त‍ि बन अपना कर्तव्य निभाती है। वही देह जो सृजन कर नन्हें शि‍शु को पोषि‍त करती है, और वही देह समर्पण की मूरत बन अपना जीवन जीती जाती है।
 
सभी को दिखाई देती है सिर्फ एक देह जिसपर कभी फब्तियां तो कभी सहानुभूति की बरसती है...बगैर यह सोचे, बगैर यह जाने कि मन जैसा भी कुछ होता है जो केवल सुनता या देखता ही नहीं महसूस भी करता है।इस देह के अंदर कुछ भाव भी बसते हैं, जो सजीव है...सांस लेते हैं। कभी खुशी के क्षणों में आनंदित होते हैं तो चोट लगने पर दर्द से कराहते भी हैं और सजल आंखों से भावपूर्ण मोती भी बहाते हैं। और जब इसपर बरसता है प्रेम, तो तरंगित होता है मन का हर कोना...टकराता है भावनाओं की दीवारों से और बिखरता है संसार में, खूबसूरत गीले रंगों की तरह...।
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