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Written By WD

महिला दिवस कविता- तीसरी मानसिकता

महिला दिवस कविता- तीसरी मानसिकता - Women's Day Poem
गीतिका नेमा
कुछ लोग जो
समाज में
कुंठाओं और कुरीतियों
को मिटाकर
लाना चाहते हैं,
सामाजिक समरसता
और समानता।

कर रहे हैं कार्य
बिना थके,
हर पल पहल
करने को अग्रसर।
करना चाहते हैं
महिलाओं का उत्थान भी 
पर ये क्या...?
स्वयं की कुंठाओं 
और कुरीतियों को छुपाकर,
अपनी बहन-बेटियों को 
पर्दे में रख
समाज की लड़कियों को
घुमाना चाहते हैं पब,
डिस्को और न जाने कहां-कहां...
कराना चाहते हैं नाच-गाना 
ठेकेदार बन समाज के
टूटे से सामाजिक मंच पर।
बनना चाहते हैं  
समाज सुधारक,
लेना चाहते हैं 
विचारक होने का श्रेय,
पर न तो वे राजा राममोहन राय 
के वंशज हैं और न ही
उनके परिवार में
ऐसा कुछ चला आया है।
बस वे बताना चाहते हैं
स्वयं को महान
जिससे छुपा सकें
अपना दो-मुहां चेहरा
और दोहरे-तिगुने चरित्र।
बताना चाहूंगी
मैं पक्षधर नहीं पित्तसत्तात्मक
समाज की
और न ही ऐसी घृणित
मानसिकता की।
मुझे घर-परिवार में
मिले हैं स्वतंत्रता,
समानता के अधिकार भी।
लेकिन बात है
उन लड़कियों की
जो बहकावे में है
उनके जिन्हें नहीं है
अपनी ही परवरिश पर भरोसा
तभी तो बांधे रहना चाहते हैं
घर पर ही
अपनी बहन-बेटियों को,
पर हां, वे तटस्थ है तो
समाज की दूसरी लड़कियों के प्रति।
उन्होनें पढ़ाया तो है 
अपनी लड़कियों...बहन-बेटियों को
डॉक्टरी, इंजीनियरी व वकीली तक
करवाई है एमबीए, एमएससी व
एमए जैसी मास्टर डिग्रीयां
लेकिन उन्हें
उनके पैरों पर खड़ा होने नहीं 
बल्कि इसलिए की कल
ससुराल में न उठें उनकी तरफ उंगलियां।
वे बेटी से नहीं करा सकते नौकरी 
न दूर भेजना चाहते हैं अपनी 
नुकीली नजरों से
बस उन्हें घर बैठाकर 
समाज की लड़कियों के लिए 
करते है उत्थान की बातें..
जिनमें उलझकर
समाज ने बना दिया
इन्हें समाज सुधारक
और न जाने क्या-क्या,
बजने लगी अब
इनकी ही तूती,
बोलने भी लगे सभी
इन्हीं की भाषा
अब कोई नहीं उठाता
प्रश्न इस तीसरी
मानसिकता पर भी..?
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