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Written By WD

धर्म परिवर्तन : क्या किसी ने जानी महिलाओं की इच्छा?

धर्म परिवर्तन : क्या किसी ने जानी महिलाओं की इच्छा? - धर्म परिवर्तन : क्या किसी ने जानी महिलाओं की इच्छा?
धर्म परिवर्तन : पुरुषों की सुविधा और महिलाओं की दुर्दशा 
सोनाली बोस 
 
धर्म परिवर्तन का आयोजन देश और दुनिया में कोई नया कायर्क्रम नहीं है। जब से धरती पर धर्म का आगमन हुआ है तभी से इंसान अपने-अपने धार्मिक मूल्यों और उनके संदेशों के साथ साथ उस धर्म की वजह से मिलने वाली सुविधाओं का लोभ,लालच,प्रलोभन इत्यादि दे कर या फिर डरा-धमका कर धर्म परिवर्तन का कार्यक्रम जारी रखे हुए है।


 

हज़ारों साल से चले आ रहे इस धर्म-मज़हब परिवर्तन नामक कार्यक्रम में एक नया अध्याय तब जुड़ा होगा जब पहली बार किसी ने दूसरे धर्म की महिला के साथ प्रेम विवाह करके चुपचाप उस महिला का धर्म परिवर्तन कराया होगा। एक प्रेम विवाह में एक दो प्रतिशत अपवाद मिल सकते हैं जब किसी पुरुष ने किसी महिला के धर्म या मज़हब को अपनाया होगा अन्यथा हर बार महिलाओं को ही धर्म परिवर्तन करना पड़ा होगा, यह परम्परा अब भी जारी है। 
 
इस दुनिया के साथ साथ इस देश में भी धर्म या मज़हब परिवर्तन पर भी सिर्फ पुरुषों का ही अधिकार रहा है। घर का पुरुष ही तय करता है कि किसे कौन सा धर्म अपनाना है या कौन से धर्म का त्याग करना है। पुरुष की यह अपनी निजी राय होती है जो बाद में फैसला बना कर घर की महिला पर थोप दिया जाता है। समूची दुनिया के धर्म परिवर्तनों के आंकड़ों पर अगर गौर करेंगे तो पता चलेगा कि कभी भी,किसी भी पुरुष ने धर्म परिवर्तन पर अपने घर की महिलाओं की कोई राय जानने की ज़रा सी भी ज़हमत नहीं उठाई होगी, और पुरुष ने महिला को अपने पुराने धर्म को त्यागने और नया धर्म अपनाने पर भी कोई राय नहीं ली होगी। 
 
पुरुषवादी सभ्यता ने महिलाओं पर सिर्फ फैसले थोपे हैं और उन थोपे गये फैसलों को मनवाने के लिये पुरुष किसी भी हद तक गया है। आज तक अगर सभी तरह के धर्म परिवर्तन के इतिहास पर नज़र डालें तो ऐसा कभी कोई मामला सामने नहीं आया है जब घर की महिलाओं ने फैसला लिया हो और घर के पुरुषों के साथ साथ पूरे गांव या कस्बे ने उस पर अमल करके अपना धर्म परिवर्तन किया हो। आज तक ऐसा कोई मामला भी सामने नहीं आया है जहां सामूहिक रूप से पूरे गांव या कस्बों की औरतों ने पुरुषों के विरोध के बावजूद अपना धर्म परिवर्तन किया हो। 
 
अगर इतिहास की गर्द को खंगाले तो ऐसे बहुत सारे मामले सामने आ जाऐंगे जब पुरुषों ने धर्म परिवर्तन किया हो मगर उनकी पत्नी ने धर्म परिवर्तन नहीं किया हो तो ऐसे में पुरूष ने अपने नए धर्म के मुताबिक़ दूसरी शादी कर ली और आराम से अपना जीवन यापन करने लगा होगा,बिना इस बात का ख्याल किए कि इससे पहले जो महिला उसकी पत्नी थी उसका क्या हाल होगा और उसकी ज़िम्मेदारी कौन उठा रहा होगा?
 
धर्म परिवतन के नाम पर जितना शोषण महिलाओं का हुआ है उतना तो शायद खुद धर्म का भी नहीं हुआ होगा। धर्म परिवर्तन के नाम पर महिलाओं को भेड़-बकरी की तरह पुरुष एक धर्म से दुसरे धर्म में सिर्फ हांक कर ले जाता है बिना इस बात का ख्याल किए कि महिला के साथ साथ उस महिला के घर परिवार पर क्या गुज़रेगी। महिलाओं का धर्म परिवर्तन के नाम पर अब तक जो भी शोषण हुआ है वह सिर्फ दकियानुसी रीति-रिवाजों के नाम पर ही हुआ है। ''पति परमेश्वर'', ''स्वामी'' आदि प्रवचन पुरुषवादी सभ्यता ने लगभग हर धर्म में पहले से ही गढ़ लिए थे ताकी महिलाओं के मुख पर परमेश्वर नामक ताला लगाया जा सके और पुरुष अपनी सुविधा के मुताबिक अपना धार्मिक सिस्टम चला सके। 
 
अगर सभी धर्मो के इतिहास पर एक बार फिर नज़र डाले तो पता चलता है कि सभी धर्मो को इस धरा पर लाने वाले, फैलाने ,प्रचार करने वाले सभी पुरुष के रूप में ही अवतरित हुए हैं। कितनी अचरज की बात है ना कि आज तक कोई भी अवतरित ''अवतार'' महिला के रूप में इस धरती पर नहीं आया है। (मैं इस बात पर कोई सवालिया निशान नहीं लगा रहीं हूं ,न ही किसी की धार्मिक आस्था को कोई ठेस पहुंचा रही हूं। मैं बस एक महिला होने के नाते कुछ सवाल ईश्वर के समक्ष रख रही हूं।) पुरुषों ने सती प्रथा,देवदासी प्रथा से लेकर न जाने और कितनी प्रथा इस पति परमेश्वर के नाम पर महिलाओं पर मढ़ दी और इसका संचालन एक पूरी परम्परा बना कर कुंठित व्यवस्था ने महिलाओं का शोषण सदियों तक किया। 
 
आज तक इतिहास में ऐसा कोई तथ्य नहीं मिलता जब किसी पुरुष ने किसी महिला के समक्ष ऐसा कोई साक्ष्य पेश किया हो जिससे उसकी ईमानदारी और वफादारी का सबूत मिलता हो। हर बार हर कसौटी पर महिलाओं को ही खरा उतरने का ठेका इस कुंठित व्यवस्था ने महिलाओं के लिए ही आरक्षित कर दिया ?


 
कुंठित पुरुषवादी व्यवस्था ने एक ऐसे विधि-विधान का निर्माण किया जिसमें महिलाओं को सिर्फ इस्तेमाल के साथ-साथ  भोग विलास की वस्तू के अलावा पुरुष की हां में हां मिलाने वाला कोई मशीनी मानव बना दिया। एक ऐसा मशीनी मानव जिसको तब तक ही जीने, खाने-पीने,सोने,हंसने ,रोने,जागने का अधिकार प्राप्त था जब तक उनका पति रूपी मालिक या कुंठित व्यवस्था का संचालक चाहता हो। इस कुंठित व्यवस्था ने महिलाओं को एक ऐसे शोषण सिस्टम में डाला है जहां से किसी भी महिला का अपनी सोच,ख्वाहिश,अपनी ज़िंदगी पर कोई अधिकार नहीं रह जाता है। 
 
आज 21 वी सदी में दुनिया की इस आधी आबादी के लिए बहुत कुछ नहीं बदला है। नहीं बदला है कुछ भी इस आधी आबादी के लिऐ। गांव-देहात, दूर-दराज़ में अपना जीवन-यापन करने वाली महिलाओं के लिए। हां, बदलाव आया ज़रूर है सिर्फ उन महिलाओं में जो पढ़-लिखकर खुदमुख्तार हो गई हैं। अपने पैरो पर खड़ी होकर इस सदियो से चली आ रही परम्परा को जो अब खुले आम चुनौती दे रही हैं। आज तक जितने भी मामले महिलाओं के सामने आए है उनमें सबसे बड़ा योगदान खुद पीड़ित महिलाओं का ही है कुछ मामले अपवाद भी हो सकते हैं।
 
 सभी बुद्धिजीवी और महिला संगठन महिलाओं के लगभग हर मामले में अपनी राय गाहे-बगाहे रख ही देता है पर आज तक किसी भी आयोग ,महिला संगठन ,खबरिया चैनल या फिर अखबारी दुनिया ने महिलाओं के इस भेड़-चाल, धर्म परिवर्तन पर कोई सवालिया निशान क्यों नहीं उठाया? और साथ ही किसी न्यायपालिका ने आजतक क्यों इस पर संज्ञान नहीं लिया? क्यों कभी किसी ने किसी धर्म परिवर्तन कैम्प में जा कर महिलाओं की राय नहीं ली? क्यों कभी धर्म परिवर्तन करने वाले पुरुषों के गले में धर्म परिवर्तन न करने वाली पत्नी और बच्चों का “गुज़ारा भत्ता’’ नामक पट्टा ही बांधा? क्या इस धर्म परिवर्तन के खेल में महिलाएं अभी भी सिर्फ मूक दर्शक का ही रोल अदा करती रहेंगी और समाज के साथ साथ धर्म के ठेकेदार इस कुंठित परम्परा की आड़ में अपने-अपने स्वर्ग का मार्ग खोजते रहेंगे?