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Written By WD

किरण बेदी : बिंदास और बेबाक

- स्मृति जोशी

Kiran Bedi | किरण बेदी : बिंदास और बेबाक
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वह आकर्षक हैं। उनकी आंखों में एक चमक है। उनकी बातों में एक दहक है। सच, साहस और सादगी की सशक्त प्रतिमूर्ति वह है किरण बेदी‍। वे जब पुलिस प्रशासन को आड़े हाथों लेती हैं तब उनकी गर्जना देखने योग्य होती है और जब वे मुखातिब होती है जनता से तो उनकी समझाइश दिल की गहराई तक उतरती चली जाती हैं। उनका एक-एक शब्द दमकता मोती लगता है क्योंकि उन शब्दों में सचाई की आभा है। वे जब बोलती है तो उनकी धाराप्रवाह शैली मंत्रमुग्ध कर देती हैं। वे कहीं अटकती नहीं, वे कहीं भटकती नहीं और खटकने का तो सवाल ही नहीं उठता।

एक सच पुलिस वालों का, एक सच जनता का और एक सच व्यवस्था का वे इतनी खूबी से क्लैप-बाय-क्लैप आपके सामने रखती हैं कि परत-दर-परत 'सच' आंखों के सामने निर्वस्त्र हो जाता है। हम हतप्रभ रह जाते हैं कि इतनी बेबाकी से यह कड़वा यथार्थ हम तक पहुं चाने का साहस अब तक किसी ने क्यों नहीं दिखाया? और जवाब भी हमें खुद मिल जाता है कि इस सच को आत्मविश्वास से लबरेज किरण बेदी के माध्यम से ही हम तक आना था। नारी की अदम्य शक्ति की प्रतीक किरण बेदी ही यह काम कर सकती थीं।

* वे पुलिस सेवा में क्यों आई जैसा प्रश्न उनके समक्ष बड़ा कमजोर सा लगा। क्योंकि जिनका समूचा व्यक्तित्व ही बोलता है कि वे सिर्फ और सिर्फ इसी सेवा के लिए जन्मीं हैं उनसे भला कैसे पूछ सकते हैं? लेकिन वे सहजता से कहती है 'क्योंकि यही वह सेवा है जो तुरंत न्याय देती है। यहां प्यार और पितृवत धमकी के साथ सुधार और सेवा की जाती है। मैंने इसी नजरिए से पुलिस सेवा को अपनाया।

* फिर अचानक स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का निर्णय क्यों?
मैंने पुलिस के बदलते रूप और बदलती भूमिका देखी। यहां रहते हुए ही यह जाना कि पुलिस में सुधार क्यों नहीं हो रहा? कौन यह सुधार होने नहीं दे रहा? अगर सब कुछ जानते हुए भी मैं चुप रहती तो इसका मतलब है मैं इस ओहदे की गुलाम हूं। मैं इस व्यवस्था की गुलाम हूं। मैंने अपनी चुप्पी को तोड़ना पसंद किया। और बाहर आ गई।

* आम आदमी के सामने चुनौती है कि वह सुधार किससे मांगे?
बिलकुल सच है, किससे मांगे और कैसे मांगे? आज हमारे राज्यों में अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार पुलिस बहुत कम हैं लेकिन कितने लोगों में यह जागरूकता है? हममें से कितने लोग जानते हैं कि थाने की पुलिस का बजट राज्य से तय होता है? थाने के कर्मचारियों की विवशता से कितना परिचय है हमारा? हमारे थाने के जवान कभी भी, कहीं भी, किसी भी जगह तैनात कर दिए जाते हैं, उनकी असली जिम्मेदारियां क्या हैं, क्या आम जनता को पता है?

यही वजह है कि पुलिस प्रशासन बेफिक्र है। जब कोई सवाल करने वाला ही नहीं है तो जवाबदेही तो गायब होगी ही। आम जनता राज्य की पुलिस बढ़ाने के लिए मांग नहीं करती। जब मांग नहीं है तो आपूर्ति कोई क्यों करेगा? मांग इसलिए नहीं है कि जानकारी का अभाव है। जनता के मौन में अज्ञानता छुपी है। जनता को अपनी जानकारी बढ़ाकर शहर की पुलिस व्यवस्था को समझना चाहिए। शहर के मीडिया की जिम्मेदारी है कि उस सारी पुलिस व्यवस्था को प्रकाशित करें। जिस तरह हम पानी, सड़क और बिजली के लिए एक होकर 'सड़क' पर आ जाते हैं वैसे सुरक्षा के मुद्दे पर एक आवाज क्यों नहीं बनते?

* आपने बीट प्रणाली की एक नई जानकारी हम तक पहुंचाई क्या इतनी दुर्व्यस्थाओं के बीच और न्यूनतम स्टाफ के चलते वह सरलता से संभव है?
पहले तो बीट प्रणाली क्या है यह जान लें। बीट सिस्टम का मतलब होता है दो या तीन मोहल्लों के बीच एक बीट अधिकारी की नियुक्ति हो। वह यह जिम्मेदारी निभाएगा कि उन मोहल्लों में कहीं कोई अनैतिक कार्य ना हों, जुआ-सट्टा,शराब, वेश्यावृत्ति आदि पर सख्ती से रोकथाम हो। इसके लिए स्थानीय लोगों की मदद से समूह बनाए जाएं। अधिकारी स्वयं रात भर जागे। देखिए फिर अपराध कैसे नहीं रूकते?

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मैं खुद सप्ताह में पांच रातें जाग कर अपने कॉंस्टेबल का हौंसला बढ़ाती थी कि तुम अकेले नहीं हो मैं भी हूं तुम्हारे साथ। मेरे ख्याल से अगर आला अधिकारियों में जबर्दस्त नेतृत्व क्षमता हों तो सुधार आने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। बीट सिस्टम और कमीश्नर सिस्टम लागू होने पर ही अपराध रूक सकेंगे।

* इस संबंध में मीडिया से आपकी क्या विशेष अपेक्षाएं हैं?
मुझे बताएं कि क्या मीडिया ने अब तक कोई रिसर्च किया है कि शहर की सुरक्षा की दृष्टि से पर्याप्त पुलिस है या नहीं? इंदौर शहर का पुलिस प्लान क्या है, क्या कोई जानता है? देखिए, सुरक्षा का कोई रंग नहीं होता, सुरक्षा राजनीतिक नहीं है। सुरक्षा हम सबके लिए महत्वपूर्ण है। शहर के सुरक्षा प्लान की, पुलिस तैयारी की हर नागरिक को जानकारी होना चाहिए। अखबारों में इसे निरतंर प्रकाशित किया जाना चाहिए।

* इंदौर के श्रोता आपको कैसे लगे?
शानदार, मुझे लगा कि जितने लोगों ने मुझे सुना वे सिर्फ मुझे सुनने नहीं आए हैं बल्कि वे मेरे शब्दों से, अनुभव से कुछ बदलाव लाना चाहते हैं, सुधार लाना चाहते हैं। वे जिम्मेदारी निभाने के लिए तत्पर दिखाई दिए। उनमें मैंने शहर को सुधारने की छटपटाहट देखी।

वे कॉंट्रिब्यूशन' करना चाहते हैं इससे बढ़कर कोई बात नहीं हो सकती। जब शहर में इतनी चेतना आ जाए तो उसे आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। अभी तक मैंने कहीं नहीं सुना कि शहर की जनता की जागरुकता के कारण पुलिस प्रशासन में सुधार आया है। अगर यहां ऐसा होता है तो इंदौर देश का पहला ऐसा शहर होगा। जब तक प्रश्न नहीं बनेंगे पुलिस की मोनोपोली नहीं टूटेगी।

इस शहर से ही नहीं बल्कि हर शहर से मुझे यही कहना है कि बिखरे हुए लोगों को कोई नहीं पहचानता। आप सब सुरक्षा के लिए एक मुट्ठी बनें। समाज अपनी अज्ञानता दूर करें और मौन को तोड़े अगर परिवर्तन की मंशा है।