टेबल के एक ओर पत्रकार हैं। जिनका उद्देश्य है सच को जनता के सामने लाना। टीवी, वेबसाइट्स, अखबारों के जरिये वे अपना काम कर रहे हैं। टेबल की दूसरी ओर करोड़ों लोग हैं। कुछ डॉक्टर हैं, कुछ राजनेता हैं, कुछ खिलाड़ी हैं तो कुछ अभिनेता। कुछ गृहिणियां हैं और कुछ व्यापारी। इनकी तादाद पत्रकारों से कई गुना ज्यादा है। इस भीड़ में कई ऐसे लोग हैं जो झूठ फैलाने का काम कर रहे हैं और इंटरनेट के जरिये उन्हें वो प्लेटफॉर्म मिल गया है जिसकी उन्हें तलाश थी।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और फर्जी वेबसाइट्स के जरिये वे अपने काम को अंजाम दे रहे हैं। इनकी बनाई गई फेक न्यूज/फोटो और वीडियो को फायदा ये मिलता है कि ये फौरन वायरल हो जाती हैं। अंजान आदमी इनके लिए मुफ्त में काम कर देते हैं। यह अंजान आदमी फोटो शॉप, फेक न्यूज, मार्फिंग जैसे शब्दों से भी अंजान है। उसे यह सच लगता है और वह इसे उपयोगी जानकारी मान कर आगे बढ़ा देता है। यह किसी की बदनामी भी हो सकती है, गलत जानकारी भी हो सकती है, भड़काऊ पोस्ट भी हो सकती है जिसके आधार पर हिंसा भी भड़क सकती है।
राजनीतिक पार्टियां अपने विरोधियों के लिए इस तरह के कैम्पेन चलाती है। पत्रकारों की तुलना में 'फेक पत्रकारों' की संख्या बहुत ज्यादा है। वे दिन रात, अलग-अलग देशों में अलग-अलग भाषाओं में इस तरह का 'गैर जरूरी' उत्पादन कर रहे हैं। मात्र यू-ट्यूब पर ही एक मिनट में 500 घंटे के वीडियो अपलोड हो जाते हैं। फेसबुक पर रोजाना 35 करोड़ फोटो अपलोड हो जाते हैं। यदि इनमें से 5 प्रतिशत भी 'फेक कंटेंट' है तो यह आकार कितना बड़ा है।
इंटरनेट अब शहरी नहीं रहा है। गूगल की Annual Search India Report (2020) की रिपोर्ट बताती भारत में की जाने वाली 3 गूगल सर्च में से 2 मेट्रो शहर से बाहर की है। भारत की 50 प्रतिशत जनसंख्या के पास इंटरनेट की सुविधा है। स्पष्ट है कि इंटरनेट की पैठ भारत के भीतरी इलाकों तक पहुंच चुकी है। मोबाइल के जरिये इंटरनेट उन लोगों के हाथों तक पहुंच चुका है जो कम-पढ़े लिखे हैं, अशिक्षित हैं और इंटरनेट की चमकीली दुनिया से जिनकी आंखें चौंधिया गई हैं।
ये लोग फेक और रियल का भेद नहीं कर पाते हैं। या इतने मासूम हैं कि इन्हें पता ही नहीं है कि दुनिया में एक वर्ग ऐसे लोगों का भी है जो गलत बातों और जानकारियों को स्थापित करने में लगा हुआ है। लोगों के दिमाग में जहर भर रहा है। इतिहास की घटनाओं को विकृति तरीके से पेश कर रहा है। गलत जानकारी से परेशानियां पैदा कर रहा है। इन खबरों और जानकारियों को फोटो और वीडियो के जरिये और भी सशक्त बना रहा है क्योंकि फोटो-वीडियो को देख तुरंत विश्वास हो जाता है।
इसका नुकसान एक व्यक्ति को ही नहीं बल्कि समाज और देश को है। 'हमले' व्यक्तिगत तौर पर हो रहे हैं, लेकिन असर सामूहिक हो रहा है। एक खास सोच में लोगों को ढाला जा रहा है। जाल में फंसाया जा रहा है। चीजों को ऐसे पेश किया जा रहा है जो वास्तव में ऐसी है ही नहीं। परिणाम सामने आ रहे हैं, लेकिन कितने घातक होंगे कहा नहीं जा सकता।
पत्रकार अपना दायित्व तो निभा ही रहे हैं, लेकिन साथ में इन 'गैर पत्रकारों' द्वारा उत्पादित किए जा रहे फेक न्यूज/वीडियो/फोटो का फैक्ट चेक का फिल्टर लगा कर लोगों को जागरूक करने का काम भी कर रहे हैं। चुनौती इसलिए बड़ी है कि दोनों सेनाओं की संख्या का अंतर बहुत ज्यादा है और इस खाई को पाटना आसान नहीं है। जरूरी है कि हर संस्थान अपने पत्रकारों को प्रशिक्षण दे कि वे अपने स्वविवेक के अलावा जरूरी तकनीकी ज्ञान हासिल करे। टूल्स का इस्तेमाल करना सीखे।
पत्रकारों की नई पौध तैयार करने वाली प्रशिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम में ही फेक न्यूज से लड़ना सिखाया जाना चाहिए। न्यूज फेक है या रियल, फोटो रियल है या फेक, वीडियो सच्चा है या झूठा या गलत संदर्भ में इस्तेमाल किया गया है, ये जांच करना आना चाहिए। उनकी ऑब्जर्वेशन स्किल्स को निखार कर जरूरी टूल्स का इस्तेमाल कैसे किया जाना चाहिए ये बताया जाना चाहिए। ताकि वे अपने काम पर पहले दिन से ही यह जिम्मेदारी कुशलता से निभाए। जैसा कि पुस्तक The Elements of Journalism (by Bill Kovach and Tom Rosenstiel) में लिखा गया है कि पत्रकारिता केवल अच्छा लिखना नहीं है बल्कि जैसे ही कोई जानकारी या सूचना मिले उसका 'फैक्ट टेस्ट' कर आगे बढ़ाना है। यह बात हर पत्रकार को याद रखना चाहिए।