प्यार : कल आज और कल
वेलेंटाइन डे पर मनोवैज्ञानिक विवेचन
प्यार दुनिया का सबसे खूबसूरत अहसास है। जब यह अहसास सुखद है, सुंदर है, सलोना है तो क्यों इसके नाम पर सदियों से खून बहता रहा है? कभी जात-पांत के नाम पर कभी मान-सम्मान और तथाकथित प्रतिष्ठा के नाम पर। कभी अमीरी-गरीबी के अंतर के नाम पर। पर यहां मुद्दा ही दूसरा है। प्यार को छलने वाला समाज तो अत्याचार करने को तैयार बैठा ही है। कभी किसी सेना(?) के रूप में। कभी किसी धर्म-संस्कृति (?)के ठेकेदार के रूप में। लेकिन इससे पहले कि वे अपना कुत्सित रूप समाज के सामने प्रदर्शित करें स्वयं प्रेमियों ने अपने लिए समस्या खड़ी कर ली है। वे एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां उन्हें स्वयं नहीं पता कि जो उन्हें हुआ है वह प्यार है भी या नहीं? प्यार की शुद्धता और सहजता से अनजान आज के प्रेमी इस सवाल से जूझ रहे हैं कि कोई तो आए और उन्हें यह बताए कि 'हां, यही प्यार है।'
आज प्यार की सरलता कायम नहीं रही। उसकी गहराई में अंतर आया है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों टूटकर बिखरता वह किरचों-किरचों में? तो क्या जो टूटता है वह प्यार होता ही नहीं है? मनोविज्ञान कहता है प्यार तो मन में एक बार बसी छवि की ऐसी अनुभूति है जो शाश्वत होती है। समय के चिह्न भी फिर जिस पर दिखाई नहीं देते हैं।