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उप्र में पहली जीत के लिए बेकरार भाजपा

उप्र में पहली जीत के लिए बेकरार भाजपा - Uttar Pradesh assembly elections, BJP
लखनऊ। उत्तरप्रदेश कानपुर की सबसे दूरस्थ क्षेत्रों में शुमार बिल्हौर विधानसभा ऐसी सीट है, जहां पर राष्ट्रीय पार्टियों से लेकर प्रादेशिक पार्टियों ने जीत दर्ज की है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी अभी भी यहां पर जीत से दूर है। यही नहीं, पिछले चुनाव में भी पार्टी प्रत्याशी को तीसरे स्थान पर ही संतोष करना पड़ा। 
हालांकि इस बार परिस्थितियां कुछ अलग हैं, पर अब देखना होगा कि बेकरार भाजपा पहली जीत दर्ज कर पाएगी। बिल्हौर विधानसभा सीट 1957 में अस्तित्व में आई और तब लेकर आज तक कई बार परिसीमन होने के बाद भी सुरक्षित सीट के रूप में बरकरार है। पहली बार कांग्रेस की बृजरानी देवी विधायक बनी थीं। 
 
हालांकि परिस्थिति अनुकूल न होने के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और कांग्रेस के ही उनके बाद मुरलीधर कुरील ने जीत दर्ज की। अगर बात करें कि भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के पहले यानी 1980 से पूर्व तो यहां पर कांग्रेस दो बार, दो बार संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, दो बार भारतीय क्रांति दल व एक बार जनता दल सेक्युलर ने जीत दर्ज की। 
 
सन् 80 के बाद भाजपा यहां पर सक्रिय हुई, पर जीत के आसपास कभी भी नहीं फटक सकी। 80 के बाद कांग्रेस 1985 में ही जीत दर्ज कर पाई बाकी दो बार जनता दल के खाते में सीट गई। 1993 के बाद से तो यहां पर सपा व बसपा क्रमश: जीत दर्ज करती आ रही है और निवर्तमान विधायक भी सपा की अरुणा कोरी हैं। 1992 का राम मंदिर आंदोलन भाजपा के लिए काफी हद तक लड़ाई में ला दिया, पर जीत नहीं दिला सका।
 
पिछले चुनाव में तो पार्टी ने तीन बार के विधायक राकेश सोनकर को मैदान पर उतारा, पर वे भी इतिहास नहीं बना सके। हालांकि केंद्र में सरकार होने के बाद यहां पर सदस्यों की संख्या में पार्टी ने जरूर बढ़ोतरी की है, पर अब देखना होगा कि 17वीं विधानसभा में कमल खिल पाता है या बसपा-सपा की यहां पर नूराकुश्ती चलती रहेगी। 
 
ओबीसी व दलित मुहर बनेंगे जीत के पैरोकार :
बिल्हौर विधानसभा में 3 लाख 74 हजार 412 मतदाता हैं जिनमें सबसे ज्यादा अन्य पिछड़ा वर्ग है। इसके बाद क्रमश: दलित, सामान्य व मुस्लिम मतदाताओं की संख्या है। जानकारी के मुताबिक ओबीसी में 40 हजार कुर्मी, 30 हजार यादव, 17 हजार पाल, 16 हजार कुशवाहा, सामान्य में 50 हजार ब्राह्मण, 18 हजार क्षत्रिय, मुस्लिम 33 हजार व दलित 86 हजार मतदाता हैं। 
 
क्षेत्रीय पार्टियों को मिली जीत :
इस सीट का इतिहास रहा है कि कांग्रेस को चार बार जीत मिली वह भी कुल 14 वर्षों तक। बाकी जितने भी यहां से विधायक चुने गए, वे क्षेत्रीय पार्टियों के ही रहे। जानकारों का कहना है कि ओबीसी व दलित बाहुल्य होने के चलते यहां पर क्षेत्रीय मुद्दे ही छाए रहते हैं जिसके चलते क्षेत्रीय पार्टियां आसानी से इस वर्ग पर पैठ बना लेती हैं, हालांकि जनता दल को भी जीत मिली, पर उसका भी आधार ओबीसी ही रहा है। 
 
विकास की अब भी दरकार :
क्षेत्रीय पार्टियों के ज्यादातर यहां पर विधायक रहे और उनकी प्रदेश में सरकार भी रही, पर किसी ने विकास की ओर ध्यान नहीं दिया। जीत का आधार यहां पर सदैव जातिगत ही रहा जिसके चलते आज भी यहां का सूदूर ग्रामीणवर्ती क्षेत्र विकास के लिए दरकार है। हां, निवर्तमान सरकार ने इस क्षेत्र से यमुना एक्सप्रेस बनवा दिया है जिससे लखनऊ पहुंचना जरूर आसान हो गया है। 
 
सांगा भाजपा में शामिल :
उत्तरप्रदेश के कानपुर जिले में कांग्रेस पार्टी को विधानसभा चुनाव में दूसरी जीत की आस ने सोमवार को दम तोड़ दिया। कांग्रेसी नेता व ग्रामीण जिलाध्यक्ष अभिजीत सिंह सांगा ने सोमवार को पंजे को छोड़कर कमल का दामन थाम लिया। सांगा के भाजपा में जाने से कांग्रेस को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है, तो वहीं भाजपा मजबूत होगी। 
 
प्रदेश में अखिलेश यादव के साथ कांग्रेस के गठबंधन की अटकलें तेज होते ही पार्टी नेताओं की बेचैनी के साथ उनके टूटने के आसार तेज कर दिए हैं। इसकी शुरुआत कानपुर की बिठूर विधानसभा सीट पर 2012 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े व रनरअप रहे नेता अभिजीत सिंह सांगा के भाजपा में शामिल होते ही कर दी है। 
 
लंबे समय से कांग्रेस पार्टी के लिए जमीनी राजनीति करने वाले नेता सांगा वर्तमान में ग्रामीण जिलाध्यक्ष के कार्यकर्ताओं के लिए प्रभावशाली बने हुए थे, लेकिन उनके अचानक पार्टी छोड़कर बीजेपी में जाने से बीते कई दिनों से चल रही दल बदलने की चर्चा पर विराम लग गया। इसके साथ ही कानपुर में कांग्रेस पार्टी के विधानसभा चुनाव में दूसरी जीत का सपना भी टूट गया।
 
बताते चलें कि कानपुर की 10 विधानसभा सीटों में एकमात्र कांग्रेस पार्टी के विधायक अजय कपूर का नाम आता है। उनके बाद युवा चेहरे के रूप में अभिजीत सिंह सांगा का नाम पार्टी में लिया जा रहा था। हॉल के कुछ वर्षों में सांगा द्वारा कांग्रेस पार्टी के प्रचार-प्रसार व जनसंपर्क को देखते हुए माना जा रहा था कि 2017 के विधानसभा परिणाम आने पर पार्टी कानपुर में दूसरी जीत फतह करने में कामयाब रहेगी। उनके पार्टी छोड़ने से कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में मायूसी की लहर दौड़ गई है। 
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