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Last Updated : शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015 (13:04 IST)

ब्रसेल्स कैसे बना यूरोप में इस्लामी आतंकवाद का गढ़

ब्रसेल्स कैसे बना यूरोप में इस्लामी आतंकवाद का गढ़ - How Beussels became european capitol of  Terrorism
13 नवंबर को पेरिस में आईएस के आतंकवादी हमलों के एक ही सप्ताह बाद बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में भी वैसे ही हमलों की गंभीर चेतावनी के बीच जनजीवन लगातार चार दिनों तक ठप रहा। सारे किंडरगार्टन और शिक्षा संस्थान, मेट्रो रेलसेवा और व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद रहे। पेरिस वाले हमलों के कम से कम तीन आतंकवादी ब्रसेल्स से ही आए थे। अतः फ्रांस में ही नहीं, पूरे यूरोप में कहा जा रहा है कि ब्रसेल्स, बेल्जियम और यूरोपीय संघ की राजधानी तो था ही,  अब यूरोप में इस्लामी आतंकवाद की भी राजधानी बन गया है। जिस किसी ने ब्रसेल्स को देखा-जाना है, उसे इस पर कोई आश्चर्य नहीं हो सकता। 
 
12 लाख की जनसंख्या वाला यह शहर एक करोड़ 10 लाख जनसंख्या वाले बेल्जियम में इस्लामी आतंकवाद का केंद्र कैसे बन गया, इसके कई कारण हैं। सबसे बड़ा और सबकी नज़र में आने वाला कारण तो यही है कि लगभग पूरा शहर पिछले 50-60 वर्षों में अलग-अलग देशों से आ कर बस गए विदेशी आप्रावासियों के मुहल्लों में बंटा हुआ है। शहर के बोटैनिकल गार्डन के पास तुर्कों का मुहल्ला है, तो आंदरलेश्त, मोलनबेक या सौं-जिले जैसे उपनगरों में मुसलमानों की तूती बोलती है। वैसे तो वे उत्तरी अफ्रीका के अरबी देशों से आए हैं, पर पाकिस्तानी, ईरानी व अफ़गान भी काफ़ी संख्या में मिल जायेंगे।
 
परदेस में भी स्वदेश की तरह रहने की मानसिकता : यदि कोई ब्रसेल्स के नगरकेंद्र से शुरू कर 'बुलेवार लेमोनीयेर'  नाम की सड़क पर चलते हुए शहर के सबसे बड़े रेलवे स्टेशन 'गार दु मिदी' (ब्रसेल्स साउथ) की तरफ निकल पड़े, तो वह सारे समय इसी उलझन में पड़ा रहेगा कि वह ब्रसेल्स में है या मोरक्को के रबात जैसे किसी ठेठ मुस्लिम शहर में। 'पोलिटिकल करेक्टनेस' के चश्मेधारियों को यह विरोधाभास सांस्कृतिक समृद्धि का सतरंगी सब्ज़बाग दिखेगा। पर, जो लोग राजनीतिक सहीपन की परवाह नहीं करते, उनकी सहज बुद्धि यही कहेगी कि यह तो परदेस में भी अपने देश की तरह रहने की संकीर्ण मानसिकता है। जिस सभ्यता-संस्कृति के बीच आप स्वेच्छा से आकर रह और कमा-खा रहे हैं, उसे ठुकराने और उसके साथ एकरस होने से परहेज़ करने की धृष्टता है। 
यूरोप में जहं कहीं भी अरब व इस्लामी जगत से आए लोग बड़ी संख्या में बस गए हैं, वहां उनकी पहली पीढ़ी ही नहीं,  बच्चों व नाती-पोतों वाली अगली पीढ़ियां भी स्थानीय समाज से परे रहना ही पसंद करती हैं। उन्हें कहीं न कहीं यह भय भी लगा रहता है कि स्थानीय समाज में घुलने-मिलने से उनकी अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान का रंग उतरने और उन पर स्थानीय समाज का रंग चढ़ने लगेगा। उन्मुक्त जीवन-शैली और लोकतांत्रिक शासन-पद्धति वाला स्थानीय ईसाई समाज उनकी दृष्टि में क्योंकि भोग-विलास और स्वच्छंद स्त्री-पुरुष संबंधों वाला एक ''पतित समाज'' है, इसलिए उचित यही है कि वे उसे दूर से ही सलाम करें। 
   
अलग रहन-सहन, अलग मानसिकता और धार्मिक संस्कारों की अक्षुण्णता पर कुछ अधिक ही ज़ोर देने का मिला-जुला परिणाम यह होता है कि बेल्जियम ही नहीं, अन्य यूरोपीय देशों के मूल निवासी भी मुसलमानों के साथ संपर्क रखने या मेल-जोल बढ़ाने से कतराने लगते हैं। दोनों ओर एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और पूर्वाग्रह पनपने लगते हैं। विचारधारात्मक ध्रुवीकरण होने लगता है। 
आखिर क्यों बेल्जियम बना आतंक का गढ़, अगले पन्ने पर...  
 

बेल्जियम का अपना अनोखापन : बेल्जियम के साथ एक अनोखापन यह भी है कि 1830 में संवैधानिक राजतंत्र वाला एक स्वतंत्र देश बनने के समय से ही वह उत्तर में डच और दक्षिण में फ्रेंच भाषियों के आपसी वैमनस्य वाले दो पाटों के बीच पिसता रहा है। चुनावों में किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता। कोई मिली-जुली सरकार बनने में कई-कई महीने तो क्या,  साल-दो साल तक लग जाते हैं। देश कई बार टूटने के कगार पर पहुंच चुका है। अब तक नहीं टूटा, यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।

इस कारण देश का शासनतंत्र भी उतना चुस्त-दुरुस्त नहीं है, जितना उसे होना चाहिये। बाहर से आए मुस्लिम निवासियों की संख्या बढ़ते जाने से, अब हर सरकार को, जनता के दो के बदले तीन सबसे बेमेल समुदायों के स्वार्थों से समझौता करना पड़ता है। शांति, सहिष्णुता और सद्भावना बनाए रखने के नाम पर इस या उस समुदाय की धौंस-धमकी झेलने और तुष्टीकरण के लिए भी तैयार रहना पड़ता है।
 
बेल्जियम में मुसलमानों का आना 1960 वाले दशक में शुरू हुआ था। उससे पहले वहां इक्के-दुक्के  मुसलमान ही रहते थे। 1960 वाला दशक यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का आर्थिक उत्थान और नवनिर्माण का दशक था। श्रमिकों की भारी कमी थी। इसलिए जर्मनी, फ्रांस, इटली और नीदरलैंड जैसे देशों ने यूरोप के आस-पास के मुस्लिम देशों के साथ समझौते कर वहां से श्रमिक बुलाना शुरू किया। बेल्जियम ने पहले मोरक्को और तुर्की से और बाद में अल्जीरिया व ट्यूनीसिया से भी 1974 तक प्रवासी श्रमिक बुलाए।

समय के साथ उन्हें अपने परिवार भी बेल्जियम बुलाने की छूट दी गई। फ्रांस के उपनिवेश रह चुके मोरक्को, अल्जीरिया व ट्यूनीसिया के लोगों को बुलाने के पीछे यह सोच भी काम कर रही थी कि वहां के अधिकतर लोग अपनी मातृभाषा अरबी के अलावा फ्रेंच भी बोलते हैं। फ्रेंच द्विभाषी बेल्जियम की भी प्रमुख भाषा है, अतः वे और उनके परिवार बेल्जियम के समाज में सरलता से घुल-मिल जाएंगे। पर, यह एक भ्रम ही रहा। 

इस्लाम को विधिवत मान्यता : ऐसा भी नहीं है कि मुस्लिम देशों से आए श्रमिकों, शरणार्थियों और प्रवासियों को बेल्जियम के समाज के साथ एकात्म करने का कोई प्रयास ही नहीं किया गया। 1974 में इस्लाम को विधिवत एक ऐसे धर्म के रूप में मान्यता दी गई, जिसे सरकारी अनुदान पाने का अधिकार है। मान्यता प्राप्त इस्लामी संगठनों को हर वर्ष लगभग एक करोड़ डॉलर के बराबर अनुदान मिलते हैं। क्षेत्रफल में भारत के मेघालय राज्य से कुछ ही बड़े बेलेजियम में लगभग 350 मस्जिदें हैं, जिनमें से 80 अकेले ब्रसेल्स में हैं।

उनके इमाम अधिकतर तुर्की या अरब देशों की सरकारों द्वारा प्रायोजित होते हैं। वे अपने प्रवचनों में क्या उपदेश देते हैं, कुरान की आयतों की क्या व्याख्या करते हैं, इसे देश का अधिकारी वर्ग नहीं जानता। संदेह यही है कि मुस्लिम युवा घर के बाहर धार्मिक कट्टरता का पहला पाठ मस्जिदों में ही पढ़ते हैं। 
 
सरकारी स्कूलों के मुस्लिम छात्र यदि चाहें तो इस्लाम की धर्मशिक्षा भी प्राप्त कर सकते हैं। मुस्लिम बिरादरी शिक्षकों की व्यवस्था करती है और सरकार सारा ख़र्च उठाती है। प्रथमिक स्कूलों के 43 प्रतिशत बच्चे इस्लाम की धर्मशिक्षा चुनते हैं। बेल्जियम कैथलिक संप्रदाय की प्रधानता वाला ईसाई देश है, तब भी केवल 23 प्रतिशत बच्चे कैथलिक धर्मशिक्षा का चयन करते हैं।

शिक्षा सर्वसुलभ होते हिए भी मुस्लिम परिवारों के बच्चे अधिक पढ़ाई-लिखाई नहीं करते, इसलिए अच्छे काम-धंधे भी नहीं पाते। युवाओं के बीच अनुशासनहीनता, अपराधों और बेरोज़गारी का औसत बहुत ऊंचा है। अपनी कमियों को स्वीकार करने के बदले अपनी दशा को सामाजिक भेदभभाव का रंग देने की प्रवृत्ति उतनी ही प्रखर है। 

देश की इस समय एक करोड़ 10 लाख की अनुमानित जनसंख्या में मुसलमानों की सही संख्या कितनी है, कोई नहीं जानता। सरकार काफ़ी समय से कोई जनगणना नहीं करवा रही है। जब करवाती भी थी, तब धर्म संबंधी कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता था। वैसे तो क़ानून है कि देश के हर निवासी को अपने निवास स्थान के नागरिक पंजीयन कार्यालय में जा कर अपना व परिवार के सभी लोगों का नाम-पता दर्ज कराना होगा। लेकिन, इस पर सख्ती से अमल नहीं होने के कारण पूरे देश की या मुसलमानों की सही जनसंख्या अनुमान का विषय है।
 
15 से 20 वर्षों में ब्रसेल्स मुस्लिमबहुल शहर : अनुमान है कि इस समय देश का हर दसवां निवासी मुसलमान है। यानी मात्र पांच दशकों में उनका अनुपात शून्य से 10 प्रतिशत हो गया है। राजधानी ब्रसेल्स में तो उनका अनुपात 25 से 35 प्रतिशत के बीच माना जाता है।

बेल्जियम के प्रतिष्ठित लोएवन विश्वविद्या के एक अध्ययन के अनुसार, जो उसने देश के फ्रेंच दैनिक 'लीब्रे बेल्जीक़' के लिए किया था, अगले 15 से 20 वर्षों में राजधानी ब्रसेल्स में मुसलमानों का बहुमत हो जाएगा। इस तरह ब्रसेल्स यूरोपीय संघ के वर्तमान 28 देशों के बीच ऐसा पहला राजधानी-नगर बन जाएगा, जहां देश के मूलनिवासी अल्पसंख्यक रह जायेंगे। इस आशंका से बहुत से मूल निवासी ब्रसेल्स छोड कर जाने और उसके पास-पड़ोस के छोटे शहरों में बसने लगे हैं।
 
ब्रसेल्स 19 उपनगरों और छह पुलिस संभागों में बंटा हुआ है। हर उपनगर का अपना अलग मेयर है और हर पुलिस संभाग का अलग कमिश्नर। हर मेयर किसी न किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ा होता है, इसलिए हर पुलिस संभाग के अधिकारियों को इन मेयरों से एक ही समस्या के राजनीति-रंजित अलग-अलग संस्करण सुनने को मिलते हैं। इस सबसे किसी समस्या के बारे में सही जानकारी पाने, समझने और कोई क़दम उठाने में देर के साथ-साथ भूल-चूक की गुंजाइश भी हमेशा बनी रहती है।
यह शहर है अतिवादियों का अजेय गढ़, अगले पन्ने पर...  

ब्रसेल्स के उपनगरो में सबसे बदनाम उपनगर है मोलनबेक। लगभग छह किलोमीटर क्षेत्रफल और क़रीब एक लाख जनसंख्या वाला यह घना बसा उपनगर, जिसके आधे निवासी प्रवासी मुसलमान हैं, ब्रसेल्स और बेल्जियम में ही नहीं, पूरे यूरोप में इस बीच इस्लामी कट्टरपंथियों, अतिवादियों और आतंकवादियों का अजेय गढ़ बन गाया है। यहां तक कि पुलिस भी वहां पैर रखने की हिम्मत नहीं कर पाती।

13 नवंबर 2015 को पेरिस में हुए आतंकवादी हमलों के कम से कम तीन आतंकी इसी उपनगर के रहने वाले थे या वहां छिपे हुए थे। एक तो है पेरिस वाले हमलों का सूत्रधार अब्देलहामिद अबाउद, जो पेरिस में मारा गया। दूसरा है सलाह अब्देसलाम, जो अभी भी पकड़ में नहीं आया है और तीसरे की पहचान अभी तक नहीं हो पाई है। कितने और सुप्त आतंकवादी वहां छिपे हैं, कोई नहीं जानता। खूंखा़र आतंकवादी पैदा करने में मोलनबेक का अपना अलग इतिहास है। 
  
 
अमेरिका में 2001 वाले हवाई हमलें के ठीक दो दिन पहले, 9 सितंबर को, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की बर्बर सरकार के सबसे प्रबल विरोधी अहमदशाह मसूद की हत्या हो गई थी। हत्यारा ब्रसेल्स के मोलनबेक का ही निवासी था। अब्देस्सतार दहमान नाम का वह ट्यूनीसियाई हत्यारा  14 वर्षों तक वहां रहा था। सीरिया से वापस लौटे मेहदी नेमौउश नाम के एक आतंकवादी ने, मई 2014 में, ब्रसेल्स के यहूदी संग्रहालय में घुस कर चार लोगों की हत्या कर दी। नेमौउश फ्रांसीसी नागरिक था, लेकिन मोलनबेक में ही रहता था। 2015 के जनवरी महीने में पेरिस में कार्टून पत्रिका 'शार्ली एब्दो' वाले हत्याकांड के बाद  बेल्जियम के वेर्वियेर में सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में दो संदिग्ध आतंकवादी मारे गए। वे भी मोलनबेक के ही रहने वाले थे। 13 नवंबर के पेरिस हत्याकांड का सूत्रधार अब्देलहामिद अबाउद तो मोलनबेक में ही पैदा हुआ और वहीं पला-बढ़ा था।
 
आत्मघाती जिहादी युवाओं के हीरो : बताया जाता है कि बेल्जियम के जो लगभग 500 जिहादी सीरियाई-इराकी भूमि को नरक बनाने में व्यस्त इस्लामी ख़लीफत 'आइएस' के लिए काम कर रहे हैं, उनमें से 30 मोलनबेक से ही वहां गए हैं। जिहादी बन कर इस्लाम के नाम पर मर-मिटने वालों को मोलनबेक के युवा अपना ''हीरो'' मानते हैं। मोलनबेक में ही नहीं, पूरे अरब-इस्लामी जगत में आजकल यही हवा बह रही है। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ भी तो पिछले अक्टूबर में एक टीवी इंटरव्यू में बड़े गर्व से कह चुके हैं कि ओसामा बिन लादेन, अयमान अल-ज़ावाहिरी, हाफ़िज़ सईद जैसे आतंकवादी '' हमारे हीरो'' हैं।
  
बेल्जियम के इस्लामवादियों के बीच मोरक्कन मूल का 33 वर्षीय फ़ऊद बेल्कासेम भी ऐसा ही एक हीरो है। बेल्जियम में शरियत लागू करवाने के लिए उसने ''शरिया 4बेल्जियम'' नाम से एक आन्दोलनकारी गिरोह बनाया है और आईएस के लिए जिहादी भर्ती करता है। उसके 70 से अधिक जिहादी आईएस की ज़मीन पर लड़ रहे बताए जाते हैं। यह गिरोह शराब की दूकाने बंद करवाने, केवल हलाल मांस बेचने, काटने से पहले जानवरों को बेहोश नहीं करने और शरियत के पालन के लिए गश्त लगाने के अधिकार की मांग करता है।

बेल्कासेम ने अमेरिकी टेलीविज़न चैनल 'सीबीएन न्यूज़' की एक रिपोर्ट में कहा, ''हमारा विश्वास है कि सारी दुनिया पर शरियत का ही राज होगा। इस्लाम और शरियत के बीच कोई अंतर नहीं है। लोकतंत्र शरियत और इस्लाम का उलट है।अल्लाह ही सारे क़ानूनों का निर्माता है। वही हम से कहता है कि किस बात की अनुमति है और क्या वर्जित है... बेल्जियन समाज तो एक घटिया, पतित समाज है... हमारे पास समय है, एक दिन हमारा ही यहां राज होगा।'' 
 
उदारतापूर्ण कानूनों का अनुचित लाभ : बेल्जियम के उदारतापूर्ण कानूनों का लाभ उठाते हुए वहां 'इस्लाम पार्टी' नाम से एक ऐसी नई राजनीतिक पार्टी भी बन गई है, जिसका धोषित लक्ष्य है देश में शरियत लागू करवाना। इस पार्टी के निर्वाचित नेताओं के अधिकार सीमित करने के लिए देश की संसद में फ़रवरी 2013 में एक विधेयक पेश किया गया। उस पर बहस के समय देश के फ्रेंच भाषियों की सबसे बड़ी पार्टी एमआर (रिफॉर्मिस्ट पार्टी) के नेता अलां देस्तेक्स ने आरोप लगाया कि ''मुस्लिम नेता देश में अपना अलग समानांतर समाज बनाने में लगे हैं। वे महिलाओं से हाथ तक मिलाने से मना कर देते हैं... शरियत की आड़ लेकर 12 साल की लड़कियों से शादी करने और उन्हें बुर्का पहनाने की वकालत करते हैं।''
  
वास्तव में कोई रचनात्मक काम करने की अपनी अयोग्यता को झुठलाते हुए धार्मिक उन्माद पाल कर कर हीरो बनने, परपीड़ा सुख पाने के लिए खून बहाने और लगे हाथ कुछ नाम कमा लेने का चस्का ही वह मूल अभिप्रेत है, जो बेल्जियम जैसे देशों के मुस्लिम युवाओं को अधकचरी आयु में आतंकवादी बनाता है, न कि बेरोज़गारी, अवसरों की कमी या नस्ली भेदभाव जैसी शास्त्रीय व्याख्याएं। ये घिसी-पिटी व्याख्याएं सामाजशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों की दिमाग़ी उपज हैं। एशिया-अफ्रीका के सभी देशों में उससे कहीं अधिक बेरोज़गारी, अवसरों का अभाव और किसी न किसी प्रकार का सामाजिक भेदभाव है जितना यूरोप में हैं। पर, कहीं भी वैसा आतंकवाद नहीं पनप रहा है, जैसा स्वयं अरब-इस्लामी जगत में पनप रहा है और वहां से निर्यात हो रहा है।
 
सच्चाई तो यह है कि बेल्जियम सहित यूरोप के सभी देशों में जो अपमान, तिरस्कार, बेरोज़गारी और ग़रीबी रोमा और सिंती कहलाने वाले भारतवंशी बंजारों को सदियों से सहनी पड़ रही है, वैसी किसी और समुदाय ने कभी नहीं भुगती है. पर वे कभी हथियार नहीं उठाते. किसी की जान नहीं लेते. उनकी भी संख्या सवा करोड़ है. चाहते तो वे भी यूरोप को हिला सकते थे.
 
अधकचरी आयु वाले दिशाहीन युवा यूरोप के इस्लामी आतंकवादी भी अधकचरी आयु वाले दिशाहीन युवा ही हैं। वे अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, लीबिया, सोमालिया या फिर इस्लामी ख़लीफ़त 'आईएस' के राज में जाकर आतंकवादी बनने के गुर सीखते हैं, न कि यूरोप की भूमि पर रह कर। यूरोप की भूमि पर इतना ही होता है कि वे अपने माता-पिता से विरासत में मिली धार्मिक परंपराएं निभाने के चक्कर में मुल्ला-मौलवियों, गलत किस्म के यार-दोस्तों या इंटरनेट पर मिलने वाली भड़काऊ वेबसाइटों के संपर्क में आते हैं। अधकचरी आयु और विवेकबुद्धि से पैदल होने से जो कुछ पढ़ते-सुनते हैं, उसी लकीर के फ़कीर बन जाते हैं। मान लेते हैं कि अपने आत्मघात के साथ 10-20 और लोगों को भी मौत के घाट उतार देने से उन्हें जन्नत में जगह मिलना पक्का है। धरतीवासी भी उन्हें शहीद मान कर अनंतकाल तक जय-जयकार करेंगे। उनकी शहादत इस्लाम को विश्वविजयी बानाएगी।
 
बेल्जियम में भी कई ऐसे प्रबुद्ध मुसलमान हैं, जो यही कहते हैं। कुछने तो इस्लामवादी हिंसाचार से दुखी हो कर इस्लाम को ही त्याग दिया है। साथ ही उनको यह भी शिकायत है कि बेल्जियम की सरकारें और राजनीतिज्ञ इस्लाम के प्रति बेहद सहिष्णुता दिखा कर मुसलमानों को और अधिक असहिष्णु बना रहे हैं। अपनी संस्था 'मूवमेंट ऑफ़ बेल्जियन फ़ॉर्मर मुस्लिम्स' की वेबसाइट के माध्यम से उनका कहना है, ''सीजीकेआर (अवसर समानता और नस्लवाद उन्मूलन केंद्र) एक ऐसा सरकारी निकाय है, जो इस्लाम के प्रति उचित ही आलोचनात्मक विचार रखने वालों के अपराधीकरण और उत्पीड़न के द्वारा बेल्जियम के इस्लामीकरण में हाथ बंटा रहा है। धार्मिक धृणा- प्रचार और भेदभाव संबंधी क़ानूनों का इसी उद्देश्य से दुरुपयोग किया जाता है। एक (राजनीतिक) विचारधारा के अर्थ में इस्लाम की आलोचना को हमेशा बिना कारण बताए मुसलमानों के प्रति घृणा फैलाना घोषित कर दिया जाता है।'' 
 
स्थिति यह है -- सही या ग़लत--  कि सारे यूरोप में जनसाधारण यही मानने लगा है कि यूरोप का तेज़ी से इस्लामीकरण हो रहा है और सरकारें कुछ कर नहीं रही हैं। यूरोप में आ रहे मुस्लिम शरणार्थियों का आजकल जो अंतहीन तांता लगा हुआ है, लोगों की नजर में, यूरोप के इस्लामीकरण की योजना का वह भी एक हिस्सा है।