गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By अनहद

खुली तिजोरियों में हाथ मारते लोग

खुली तिजोरियों में हाथ मारते लोग -
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लड़कियाँ किसी भी जगह महफूज नहीं हैं। लड़कियाँ दरअसल गलत लिख दिया गया है। सात साल की बच्ची से लेकर साठ साल की बूढ़ी तक के साथ छेड़-छाड़ और मौके महल के हिसाब से हरकत हो सकती है। आए दिन हम अखबार में पढ़ते हैं कि मासूम बच्चियों से लेकर बड़ी-बूढ़ियों के साथ जबर्दस्ती होती है।

फिल्म "जब वी मेट" में एक संवाद है कि अकेली लड़की खुली तिजोरी की तरह होती है। लड़की ही नहीं औरत जात अगर अकेली है, तो उस पर खतरा ऐसे मँडराता रहता है जैसे बाजों भरे आकाश में उड़ते कबूतर पर होता है।

कई शोध हुए हैं जो बताते हैं कि बच्चियों के साथ सबसे पहले गलत हरकतें वे रिश्तेदार करते हैं, जिनके पास माँ-बाप अपनी बच्ची को महफूज समझते हैं। बेचारी बच्चियाँ कुछ बोल भी नहीं पातीं। बोलें भी तो उनकी बात बदनामी के डर से दबा दी जाती है।

सात दिसंबर से स्टार प्लस पर एक धारावाहिक शुरू हो रहा है "मन की आवाज प्रतिज्ञा"। सोमवार से शुक्रवार इसे रात साढ़े दस बजे से देखा जा सकेगा। इस धारावाहिक के जो प्रोमोज फिलहाल दिखाए जा रहे हैं, उनसे जाहिर होता है कि ये महिलाओं के साथ होने वाली छेड़-छाड़ को उजागर करेगा। किस ढंग से करेगा, किस हद तक करेगा, ये देखने की बात है।

भीड़ में कोहनी मारना तो आम बात है। दफ्तरों में भद्दी और दोहरे मतलब की बातों से महिलाओं को परेशान करना भी बहुत होता है। इनके खिलाफ महिलाएँ अगर एक्शन लें, तो तुरंत कार्रवाई भी होती है।

कॉर्पोरेट सेक्टर में दो-तीन बातें बिलकुल माफ नहीं की जातीं। पहली है जातिवादी बातें और ऊँच-नीच, सांप्रदायिक तानाकशी और अंतिम महिलाओं से किसी भी तरह की बदतमीजी खासकर सेक्सुअल हरेसमेंट। मगर इन सबसे बढ़कर है छोटी उम्र में रिश्तेदारों द्वारा की गई गलत हरकतें। एक बच्ची जिंदगी भर के लिए उससे प्रभावित होती है।

मर्द जात के प्रति उसकी धारणा हमेशा के लिए बदल जाती है। पति-पत्नी के रिश्ते में जो बहुत सारा कलह है उसका एक कारण तो यही है कि मर्द के मन में औरत मात्र के प्रति जो राय है वह गलत है और औरत के मन में मर्द की जो छवि है, वह विकृत है। तो अगर यह धारावाहिक घावों की अंदर तक सफाई करेगा तो ठीक रहेगा।

फिर अंत में सवाल यह पैदा होता है कि आखिर ऐसा होता क्यों है और इसे कैसे बंद किया जा सकता है? केवल दंड से तो यह नहीं हो सकता। माता-पिता अपनी बच्चियों पर बारहों महीने, चौबीसों घंटे नजर नहीं रख सकते। एक स्वस्थ समाज में ही लड़कियाँ (और मासूम लड़के भी) सुरक्षित रह सकती हैं। ऐसा समाज थोड़ा खुलापन माँगता है और भारतीय समाज एक बंद घाव की तरह है जिसे रोशनी से डर लगता है।