शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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Written By अनहद

और ज्यादा भ्रष्ट नहीं बताया जा सकता नेता को

और ज्यादा भ्रष्ट नहीं बताया जा सकता नेता को -
एक चीज होती है अतिशयोक्ति अलंकार...। साहित्य में तो यह होता ही है। तमाम लखनवी शायरी और संस्कृत का श्रृंगार काव्य इसकी मिसाल है। यह अलंकार टीवी धारावाहिकों और फिल्मों में भी पाया जाता है। व्यंग्यकार शरद जोशी की रचनाओं पर जो टीवी धारावाहिक "लापतागंज" सब टीवी पर सोमवार से शुरू हुआ है, उसका पहला अंक अतिशयोक्ति अलंकार की मिसाल है।

इस धारावाहिक में एक मंत्री है, जो मूर्ख है। कुछ गाँव वाले हैं, जो परेशान हैं। नेता को यह नहीं पता कि मटकी किसे कहते हैं। नेता को यह नहीं पता कि कुआँ किसे कहते हैं। यह अतिशयोक्ति है। मगर इसके पीछे जनता को जो संदेश जाता है, वो यही कि नेता अमूमन ऐसे होते हैं। वो समस्या को किस तरह (नहीं) समझते हैं और फिर किस तरह के हल पेश करते हैं, जिससे पैसा तो भरपूर खर्च होता है, मगर जनता को फायदा कुछ नहीं होता।

पहली बार है जब संजीदा तौर पर लिखे गए व्यंग्य लेखों को आधार बनाकर कोई धारावाहिक बना है। खुद शरद जोशी ने कई धारावाहिक लिखे मगर उनकी प्राथमिकता व्यंग्य नहीं, हास्य था। कुछ और धारावाहिक भी थे मगर उनकी स्क्रिप्ट बतौर टीवी धारावाहिक ही लिखी गई। बहरहाल आधे घंटे का पहला एपिसोड जानदार था। पर्दे पर जो कुछ दिखाया जा रहा था, वो सतह पर चल रहा था, मगर अर्धअचेतन मन सही संदेश ग्रहण कर रहा था और शरद जोशी के तीखे व्यंग्य को पकड़ रहा था।

इसमें प्रस्तुत किए गाँव का सेट सुंदर था। इस अंक में बच्चों को सूखी नदी के पेट में क्रिकेट खेलते दिखाया गया, मगर हकीकत यह है कि सूखी नदी के तल पर घास नहीं उगती। वहाँ रेत होती है, पत्थर होते हैं। वैसे तो यह एक छोटी सी तकनीकी भूल है, मगर नहीं होती तो ठीक रहता। दूसरे यह कि शरद जोशी को बतौर कहानीकार ही प्रचारित किया जा रहा है। शरद जोशी कहानीकार नहीं व्यंग्यकार थे। उनके जो व्यंग्यलेख कहानी की शक्ल में आए हैं, उनमें भी व्यंग्य ही प्रमुख है। कहानी तो व्यंग्य का जरिया भर है। मन्नाू भंडारी, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर की तरह कभी शरद जोशी का "कहानी संग्रह" निकला हो, याद नहीं पड़ता।

हर व्यंग्यकार अपने समय की सोच का आईना होता है। वक्त के साथ इस आईने पर धूल भी पड़ती है। मिसाल के तौर पर नेता को मूर्ख और भ्रष्ट बताने की बात...। खुद हरिशंकर परसाई इसे भाँप चुके थे कि नेता अपने ही समाज से निकलता है। उस पर यूँ व्यंग्य नहीं किया जा सकता जैसे वो मंगल ग्रह से आया प्राणी हो। इसलिए उन्होंने स्वार्थी आम आदमी को भी कोसा है। आज हमारे समाज का युवा देश-समाज के लिए एक पल खर्च करना नहीं चाहता। उसका पूरा फोकस अपने करियर, अपनी नौकरी, अपने परिवार पर है। ऐसे में अच्छे नेता कहाँ से आएँगे? नेताओं को भ्रष्ट और नाकारा बताने वाले व्यंग्य ने अपना काम कर दिया है। नेताओं को अब और ज्यादा भ्रष्ट और नाकारा नहीं बताया जा सकता। अब व्यंग्य को उस आम आदमी की तरफ मुड़ना चाहिए जो राजनीति से दूर रहकर चाहता है कि राजनीति और तंत्र अपने आप साफ हो जाए। क्या आप उस कवि सम्मेलनी कविता से नहीं ऊबते जिसमें नेता को कोसा जाता है? इसी तरह क्या इस तरह के व्यंग्य अब ऊब पैदा नहीं करते? नहीं करते तो करना चाहिए।

एक बात और... लिखे हुए को जब भी फिल्माया जाता है, पढ़ने वालों को फीका लगता है। इसलिए शरद जोशी की बेटी नेहा शरद के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। पहले अंक में तो उन्होंने चुनौती का सामना बखूबी किया है। अगले अंकों के लिए शुभकामनाएँ...।