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12 टीवी धारावाहिक जो आज भी किए जाते हैं याद

12 टीवी धारावाहिक जो आज भी किए जाते हैं याद - Ye Jo Hai Zindagi, Karamchand, Bharat Ek Khoj, Buniyaad
अगर आप भी उन लोगों में से एक है जो आज सैकड़ों टीवी चैनल होने के बावजूद खालीपन महसूस करते हैं और मानते हैं कि टीवी की टीआरपी सिर्फ सास-बहू की उबाऊ कहानियों पर आधारित होती है तो हम आपके लिए बेहद खास और नई जानकारी लेकर आए हैं। जिसे पढ़ने के बाद आप जान पाएंगे कि सिनेमा की तरह टीवी का भी एक स्वर्णिम युग था। जिस दौरान दर्शकों को चैनल चुनने की कोई सुविधा न होने पर भी भरपूर, विविधता और खूबियों से भरा मनोरंजन उपलब्ध था। 
 
हम बात कर रहे हैं टीवी के शुरुआती दौर की जब भारत में दर्शकों को अस्सी के दशक में सिर्फ दूरदर्शन ही उपलब्ध था। इस पर प्रसारित कार्यक्रमों ने न सिर्फ दर्शकों को बांधे रखा और आगामी कई दशकों के लिए उनके मन में अपनी छाप छोड़ दी। अगर आपका जन्म अस्सी के दशक या उससे पहले हुआ हो तो तो आपके लिए यह जानकारी सबसे खास होने वाली है क्योंकि आप याद करेंगे टीवी के सामने बिताए ऐसे पलों को जो आप लगभग भूल चुके हैं। उस दौर में रामायण और महाभारत ने ऐतिहासिक सफलता हासिल की थी, लेकिन इन पौराणिक धारावाहिकों के अलावा भी कुछ ऐसे धारावाहिक थे जो आज भी उच्च गुणवत्ता के कारण याद किए जाते हैं। 
 
1) ये जो है जिंदगी 
साल 1984 में अपने टीवी पर प्रदर्शन के समय से ही 'ये जो है जिंदगी' ने प्रसिद्धि पा ली थी और दर्शकों को लुभाने में यह बेहद कामयाब साबित हुआ। यही वजह रही कि इसे दो सीजन में बनाया गया। हालांकि दूसरा सीजन पहले सीजन की सफलता और लोकप्रियता दोहरा नहीं पाया। यह एक सिचुएशन कॉमेडी पर आधारित शो था, जिसे शार्ट फॉम में सिटकॉम कहा जाता है। इसमें संवादों और परिस्थितियों के द्वारा हास्य पैदा किया गया था। इसे हास्य विधा में सिद्धहस्त शरद जोशी ने लिखा था और कुंदन शाह, एस एस ओबेरॉय तथा रमन कुमार इसके निर्देशक थे। हर अंक करीब 20 से 25 मिनिट लंबा था और इसका प्रसारण शुक्रवार को रात 9 बजे किया जाता था।
 
हर अंक की कहानी रंजीत वर्मा (शफी इमानदार) उनकी पत्नी रेणु वर्मा (स्वरूप सम्पत) की रोज़मर्रा शादीशुदा ज़िदंगी और उनके साथ रहने वाले रेणु के कुंवारे भाई राजा (राकेश बेदी) के इर्दगिर्द बुनी गई थी। उनके अलावा चाची की बेटी रश्मि, रंजीत का बॉस टीकु तलसानिया, उनके बंगाली पड़ोसी (विजय कश्यप और सुलभा आर्य) की खास उपस्थिति थी। धारावाहिक में एक और खास बात थी कि हर एपिसोड में सतीश शाह अलग पात्र में होते थे। हर नए अंक में इनके प्रोफेशन बदले हुए होते थे। साथ ही साथ  यह भारत के अलग अलग इलाकों से ताल्लुक रखते थे। इस धारावाहिक की वजह से सतीश शाह को कॉमेडी किंग कहा जाने लगा। बाद के अंको में अंजन श्रीवास्तव अलग-अलग भूमिकाओं में नजर आने लगे। 
 
ये जो है ज़िंदगी की कामयाबी और लोकप्रियता को भुनाने के इरादे से इसका एक सीक्वेल भी बनाया गया जिसमें रंजीत और रेणु विदेश में बस चुके हैं और राजा, रंजीत की आंटी (फरीदा जलाल) और एक नौकर (जावेद खान) के साथ रहता है। इस सीक्वेल की कहानी राजा के निवेदिता के साथ प्रेम में पड़ने और इस चक्कर में की जानी वाली गतिविधियों के आसपास केंद्रित थी। 

2) हम लोग 
1984 में ही ‍दिखाया गया 'हम लोग' भारतीय टेलीविजन का पहला सोप ओपेरा था। इसे 1980 के एक भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार की दैनिक ज़िदंगी में आने वाली समस्याओं और उनके सपनों की उड़ान पर केंद्रित किया गया था। इसमें आम घरों में हकीकत और सपनों के बीच होने वाली दूरी के साथ-साथ समस्याओं के साथ सपनों के संबंध को प्रमुखता से दिखाया गया। हर सपने का धरातल किसी समस्या से जुड़ा होता है इसके सटीक उदाहरण इस धारावाहिक में अक्सर दिखाई दे जाते थे।
 
इस धारावाहिक के निर्माण का विचार तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री वसंत साठे को 1982 में अपनी मैक्सीकन ट्रीप के दौरान आया जिसे धारावाहिक के लेखक मनोहर श्याम जोशी के साथ अमलीजामा पहनाया गया। मनोहर जोशी द्वारा तैयार की गई स्क्रिप्ट पर निर्देशन की जिम्मेदारी फिल्मकार कुमार वासुदेव ने निभाई। सीरियल में संगीत अनिल बिस्वास द्वारा दिया गया था। साल 2000 में सोनी टीवी ने दूरदर्शन से इस धारावाहिक के टेप खरीदे और 156 अंको की कहानी को 52 एपीसोड में दिखाया। एक बार फिर यह दूरदर्शन पर 'हम - एक छोटे गांव की बड़ी कहानी' के रूप में दिखाया गया।
 
कुल 156 अंको के इस धारावाहिक का हर एपीसोड 30 मिनिट लंबा था जिसमें अंतिम एपीसोड पूरे 1 घंटे का था। हर अंक के अंत में हिंदी फिल्म के जाने माने कलाकार अशोक कुमार चलने वाली कहानी और घटनाओं पर दोहों के इस्तेमाल के साथ बातचीत करते थे। 
 
'हम लोग' में बसेसर राम (विनोद नागपाल) जो एक शराबी पिता था, भगवती (जयश्री अरोरा) एक मां और घरेलू महिला, ललित प्रसाद उर्फ लल्लू (राजेश पुरी) घर का सबसे बड़ा बेटा जो रोजगार की तलाश में है, चंद्रप्रकाश उर्फ नन्हे (अभिनव चतुर्वेदी), घर का सबसे छोटा बेटा जो क्रिकेटर बनना चाहता है, गुणवती उर्फ बड़की ( सीमा भार्गव) सबसे बड़ी बेटी जो एक समाज सेविका है, रूपवती उर्फ मंझली (दिव्या सेठ) मंझली बेटी जो एक एक्ट्रेस बनना चाहती है, प्रीति उर्फ छुटकी (लवलीना मिश्रा) सबसे छोटी बेटी जो एक डॉक्टर बनना चाहती है, दादाजी (लाहिरी सिंह) सेना से सेवानिवृत्त हो चुके हैं, इमरती (सुषमा सेठ) दादी जो घर पर ही रहती हैं, उषारानी (रेनुका इसरानी) घर के बडे बेटे लल्लू की पत्नी और टोनी (मनोज पाहवा) जिसके साथ मंझली भाग जाती है, की मुख्य भूमिकाएं थीं। 

3) करमचंद 
भारतीय जासूसों की दर्शकों में लोकप्रियता की चरम सीमा पहली बार जासूस करमचंद के साथ देखी गई। साल 1985 में पहली बार भारतीय दर्शकों के बीच पेश किए गए करमचंद का टाइटल इसके मुख्य पात्र जासूस करमचंद के नाम पर आधारित था जो अपनी सहायक किट्टी के साथ मिलकर अपराध के रहस्यों से पर्दा उठाता है। जासूस करमचंद का निर्देशन पंकज पाराशर ने किया था। 
 
पंकज कपूर की उम्दा अभिनय शैली का ऐसा गहरा असर देखा गया कि लोग उन्हें उनके असली नाम के बजाय जासूस करमचंद के नाम से ही पहचानने लगे। करमचंद का धूप का चश्मा पहन गाजर खाते हुए हत्याओं के पीछे छुपे रहस्यों का पर्दाफाश करने की अनोखी कहानियों ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। करमचंद की गाजर खाने की स्टाइल, अपनी सहायक की गलत मौकों पर बोलने की आदत पर 'शट अप' कहने का अनोखा अंदाज और सही कातिल को खोज निकालने में माहिर होना दर्शकों के मन में बस गया। 
 
करमचंद की सहायक के रूप में किट्टी को दर्शकों का काफी अच्छा प्रतिसाद मिला। इसे पात्र को सुष्मिता मुखर्जी ने निभाया था। प्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी आनंद-मिलिंद ने इसका संगीत दिया था। पारंपरिक जासूस की छवि जिसमें एक गंभीर मुद्रा में, चीजों पर बारीकी से गौर करता हुआ और आम लोगों में कम रूचि रखने वाले जासूस से बिल्कुल अलग, करमचंद का जीवंत और सामान्य व्यवहार था, जिसके लिए बात समझना और आम लोगों के साथ घुलमिल जाना बेहद आसान काम था। वह पुलिस के काम को आसान बनाता है और पुलिस के साथ बेहद सहज है। यही वजह है कि करमचंद अक्सर ही इंस्पेक्टर खान के साथ शतरंज खेलते हुए देखा जा सकता है। 
 
करमचंद की सहायक किट्टी हास्य पैदा करती है। हमेशा गलत मौकों पर बोलने की आदत होने के साथ-साथ वह बेवकूफी भरे सवाल पूछती है जिसके कारण करमचंद को उसे चुप रहने के लिए कहना पड़ता है। सुष्मिता मुखर्जी की अदाकारी बेहद उम्दा थी और उन्हें दर्शकों द्वारा खूब पसंद किया गया। किट्टी के सवालों से परेशान करमचंद जब उसे सारा माजरा समझाता है तो किट्टी द्वारा कहे जाने वाले 'सर आप तो जीनियस हो' संवाद ने भी बहुत लोकप्रियता बटोरी। निर्देशक पंकज पाराशर ने 2007 में एक बार फिर करमचंद की भूमिका में पंकज कपूर को लेकर सोनी टेलीविजन के लिए करमचंद बनाकर पुरानी लोकप्रियता को दोहराना चाहा परंतु असफलता हाथ लगी। सोनी टीवी के करमचंद में किट्टी की भूमिका में सुचेता खन्ना नजर आईं।   

4) रजनी  
साल 1985 में दूरदर्शन पर प्रसारित 'रजनी' सीरियल ने अपनी अलग पृष्ठभूमि और मुद्दों को लेकर भारतीय दर्शकों में लोकप्रियता हासिल की। बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित रजनी में प्रिया तेंदुलकर की मुख्य भूमिका थी। सीरियल में उस दौर के ढीले रवैये वाले ऑफिसों और कर्मचारियों में जागरुकता लाने की कोशिश दर्शकों को खूब भाई। करन राजदान, जो इसमें मुख्य भूमिका में भी नजर आए, ने इसे लिखा था।  
 
रजनी एक गृ‍हिणी है जो सरकार में बड़े पैमाने में छाए ढीले रवैए के खिलाफ हर एपीसोड में आवाज उठाती है। इसमें अस्सी के दशक में सरकारी कार्यालयों में होने वाली गड़बड़ियों को प्रमुखता से उठाया गया है। पद्मिनी कोल्हापुरे द्वारा इसे करने से इंकार करने के बाद, प्रिया तेंदुलकर ने ऐसी गृ‍हिणी के किरदार को जीवंत करने का बीड़ा उठाया जो भ्रष्टचार और प्रतिकूल सिस्टम के खिलाफ अपने तरीके से लड़ती है। 
 
केबल टीवी के हमारी ज़िंदगी में आने और सत्यमेव जयते जैसे सीरियल के द्वारा समाज में छुपे मुद्दों को उठाए जाने के पहले, एक गृहिणी ने समाज में फैली बुराइयों के खिलाफ लड़कर टेलीविजन के दर्शकों पर अपने साहस की छाप छोड़ी। चाहे मुद्दा घरेलू हिंसा का हो या भ्रष्टाचार का रजनी हर स्थिति में आत्मबल और सूझबूझ का परिचय देते हुए उसे सुलझाने की समझ रखती है। हर एक एपिसोड में एक नए मुद्दे के साथ एक ही सीख दी जाती थी जिसमें बुराई को सिर्फ पहचानना काफी नहीं होता बल्कि उसे खत्म करने की कोशिश की आवश्यकता भी दर्शाई गई। 
 
सीरियल के निर्देशक बासु चटर्जी अपनी पत्नी और बेटी के रूप में दो आत्मविश्वास से भरी महिलाओं के ताउम्र करीब रहे और यही आत्मविश्वास रजनी में उड़ेल दिया गया। रजनी के पात्र में एक अनछुआ पहलू यह भी है कि आमतौर पर घरेलू महिलाओं के समाज में योगदान को न सिर्फ नजरअंदाज किया जाता है बल्कि नकारा भी जाता है। रजनी एक गैर-कामकाजी महिला होने पर भी ऐसे मुद्दों पर समझ और सोच रखती है जिनके खिलाफ पुरुष भी चुप्पी साध लेते हैं।   
 
हर रविवार आपके दरवाजों पर दस्तक देती एक नई समस्या से जूझने वाली रजनी की राह बेहद मुश्किलों से भरी थी। निर्देशक बासु चटर्जी समाज में चारों ओर आती तारीफ भरी आवाजों के बीच विरोधभरे स्वरों को याद करना नहीं भूले। इस सीरियल को लेकर पहला विरोध तब हुआ जब रजनी गैस सिलेंडर के मिलने पर होने वाली देरी और जल्दी पाने के लिए दी जाने वाली रिश्वत के मुद्दे पर मुखर होती है। 
 
पूरी तरह से कल्पना पर आधारित यह मुद्दा दैनिक जीवन की कड़वी हकीकत होने से सिलेंडर सप्लाय करने की प्रक्रिया से जुडे एक समूह को नागवार गुजरा। धारावाहिक को सीधे आरोप के तौर पर लिया गया और माफी की मांग की जाने लगी। यह मुद्दा अभी खत्म होने न पाया था जब रजनी के एपीसोड में एक टैक्सी चालक पहले रजनी को कम किराए में गंतव्य तक ले जाने के लिए मानकर मुकर जाता है। 
 
करीब 500 टैक्सी चालकों ने इस अंक का खुलकर विरोध दूरदर्शन के कार्यालय के सामने किया। इन सभी विरोधों के बावजूद रजनी की लोकप्रियता हर नए एपीसोड और समस्या के अपने तरीके से खोजे जाने वाले हल के साथ बढ़ती गई। 
 
रजनी की लोकप्रियता का आलम यह थी कि स्वयं तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री को रजनी सीरियल बंद किए जाने संबंधी अफवाहों पर बयान देना पड़ गया। 

5) नुक्कड़
नुक्कड़ ने साल 1986 और 1987 में टेलीविजन पर अपनी खास पहचान बनाई। कुंदन शाह और सईद मिर्ज़ा द्वारा निर्देशित इस धारावाहिक की कहानी प्रबोध जोशी द्वारा लिखित थी। दिलीप धवन, रमा विज, पवन मल्होत्रा, संगीता नाईक और अवतार गिल की इसके अहम भूमिकाएं थी। अपने प्रदर्शन के दिनों में इसकी लोकप्रियता चरम पर थी। इसके कुछ पात्र जैसे खोपड़ी, कादिर भाई और घंषु भिखारी घर-घर में पहचाने जाने लगे। नुक्कड़ ने 80 के दशक में प्रसारित किए जाने वाले तीन सबसे अधिक लोकप्रिय धारावाहिकों में अपनी जगह बना ली थी। 
 
धारावाहिक का पहला सीजन 40 एपीसोड का था। इसके हर अंक में कम कमाने वाले लोगों की दैनिक समस्याओं को मुख्य पात्रों की जिंदगी के द्वारा उभारा गया था। शहरों में बढ़ती हुई कठिन सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के कारण कम आय वाले लोगों के टूटते सपनों को एपीसोड दर एपीसोड शामिल किया गया। कुछ अंक आशाओं और सकारात्मक उम्मीदों पर खत्म होते थे। वहीं दूसरी ओर कुछ एपीसोड का अंत दुखद परंतु असलियत पर आधारित होता था। धारावाहिक हकीकत पर आधारित लगता था और यही खूबी दर्शकों को बांधे रखती थी। 
 
नुक्कड़ की सफलता को दोहराने की आशा में इसके नए जमाने में ढला हुआ सीक्वल 1993 में बनाया गया जिसे नया नुक्कड़ नाम दिया गया। इसमें पहले सीजन के कलाकरों ने नए नामों के साथ अलग भूमिकाएं निभाई परंतु नया नुक्कड़ पहले सीजन की तुलना में कमतर साबित हुआ और दर्शकों में अपनी पकड़ न बना सका। 
 
गुरु उर्फ रघुनाथ (दिलीप धवन) बिजली सुधारता है और नुक्कड़ समूह का सर्वसम्मति से चयनित मुखिया है। मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहने वाले गुरु में किसी का पक्ष न लेने का गुण हैं और यह अक्सर नुक्कड़ में रहने वाले लोगों के बीच के छोटे झगड़े सुलझाता है।  
 
कादर भाई उर्फ कुट्टी (अवतार गिल) - कादर भाई एक छोटा सा रेस्टेरोंट चलाते हैं जहां नुक्कड़ के सदस्य अक्सर मिलते हैं। कादर  भाई दयालु स्वभाव के हैं और नुक्कड़ के गरीब सदस्यों को मुफ्त में चाय और नाश्ता देते हैं। 
 
हरी (पवन मल्होत्रा) - हरी की साइकिल सुधारने की दुकान है और एक अमीर लड़की मधु से उसे प्यार है। गुप्ता सेठ, मधु के पिता, इससे चिढ़ते हैं और हमेशा दोनों पर नजर रखते हैं।  
 
खोपड़ी (समीर खख्खर) - खोपड़ी उर्फ गोपाल एक शराबी है जिसे नुक्कड़ के सभी सदस्य बेहद पसंद करते हैं। 
 
गणपत हवलदार (अजय वाडकर) - गणपत हवलदार नुक्कड़ में कोई भी समस्या आने पर तुरंत आ जाता है। 
 
ये सभी धारावाहिक के ऐसे पात्र थे जो बेहद लोकप्रिय हुए और दर्शकों में अपनी अनूठी छाप छोड़ने में सफल हुए।

6) बुनियाद
फिल्म शोले से अमिट छाप छोड़ने वाले रमेश सिप्पी और ज्योति ने धारावाहिक 'बुनियाद' का निर्देशन किया था। बुनियाद की कहानी मनोहर श्याम जोशी द्वारा लिखित थी जिसमें 1947 में हुए बंटवारे और उसके बाद के घटनाक्रम को केंद्र में रखा गया था। साल 1986 में पहली बार दूरदर्शन पर प्रदर्शित किए गए 'बुनियाद' को एक बार फिर डीडी मेट्रो पर 2000 की शुरूआत में दिखाया गया। यह सहारा समय और फिर दूरदर्शन पर प्रदर्शित किया गया। बुनियाद से भारतीय दर्शकों में अपनी गहरी पैठ छोड़ने वाले कंवलजीत, आलोक नाथ और कृतिका देसाई आज तक दर्शकों का मनोरंजन करने वाले खास नामों में शुमार हैं। 
 
अस्सी के दशक के मध्य में प्रसारित किए गए बुनियाद ने दर्शकों में जोश की एक नई लहर पैदा की। दो पंजाबी परिवारों के बंटवारों के बाद के सांप्रदायिक दंगों और भयानक उथल-पुथल के घटनाक्रम को उकेरा गया था। आलोक नाथ और कंवलजीत जैसे मंझे हुए कलाकारों द्वारा किरदारों और कहानी में जान डाल दी गई। 'बुनियाद' को दर्शकों का पहले कभी न देखा गया प्रतिसाद मिला और अपने प्रदर्शन के समय लोकप्रियता के चरम पर पहुंचकर दर्शकों के मन में बस गया।  
 
मास्टर हवेलीराम अपनी ज़िदंगी को काफी सावधानी पूर्वक जीते हैं। परंतु उनकी राजनीति में रूचि उस समय के बिगड़ते हालातों के प्रतिकूल और बेहद खतरनाक है। बंटवारा होता है और पूरा परिवार बिखर जाता है। मास्टर हवेलीराम का दंगों में कुछ पता नहीं चलता। पूरे परिवार को अपना पुश्तैनी घर छोडकर शरणार्थी बनकर भारत में एक शिविर में आकर बसना पड़ता है। ज़िदंगी आगे बढ़ती रहती है। धारावाहिक का वह हिस्सा जिसमें बहुत से एपीसोड के बाद मास्टर हवेली राम वापस लौटते हैं जो एक बड़ी और खुशियों से भरी घटना है। दर्शकों के आंसू असलियत में निकलते हैं, क्योंकि धारावाहिक पर्दे पर नहीं आसपास चलता हुआ लगता है। मास्टर हवेलीराम उनके जाने के बाद से आए बदलावों को देखते हैं। उनके जाने के बाद से तीन पीढ़ियां आगे बढ़ी चुकी हैं और वह खुद को गुमा हुआ सा महसूस करते हैं। हालांकि धारावाहिक को समय के हिसाब से बहुत आगे बढ़ा दिया गया था और इसमें बहुत से युवा कलाकारों को मुख्य किरदार के रूप में दिखाया जाने लगा था परंतु मास्टर हवेलीराम के रूप में आलोकनाथ अपनी पकड़ मजबूती से बनाए रखते हैं।  
 
बुनियाद में बंटवारे के दौरान आम जनों की दैनिक ज़िदंगी और भावनाओं में आने वाले बदलाव को मुख्य रूप से दिखाया गया। साथ ही साथ प्यार और जीने की इच्छा के बल को प्राथमिकता से दिखाया गया। बंटवारे के समय बिगड़ती परिस्थितियों को दिखाया गया था। कहानी के अनुसार मास्टर हवेलीराम के मन में देश प्रेम और अपने सिद्धांतों के अडिग रहना जीवन के लक्ष्य हैं। वह पढ़ाने को आदर्श समाज की रचना की तरह पहली कड़ी समझते हैं तथा इसी दिशा में हमेशा तत्पर रहते हैं। हवेलीराम अपनी एक छात्रा लाजो को बा‍कियों से अलग पाते हैं और उसकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं। उनकी दोस्ती शादी में तब्दील हो जाती है और बच्चों के साथ परिपूर्णता पाती है। हालात बेहद खुशनुमा चल रहे होते हैं जब अचानक ही पूरे परिवार को 1947 के दंगों के चलते हिंदुस्तान आना पड़ता है। 
 
इस धारावाहिक में एक और खास बात इसके महंगे सेट और भावनाओं में उथल-पुथल मचा देने वाली कहानी थी। अभिनव चतुर्वेदी, आलोकनाथ, अंजना मुमताज़, अनिता कंवर, दिलीप ताहिल, किरण जुनेजा, कृतिका देसाई और कंवलजीत सिंह की इसमें मुख्य भूमिकाएं थी।   

7) मालगुड़ी डेज़
मालगुड़ी डेज़ को आरके नारायन द्वारा रचित विभिन्न कहानियों के आधार पर बनाया गया था। साल 1986 में पहली बार दूरदर्शन पर प्रसारित किए के बाद इसका एक बार फिर दूरदर्शन पर, सोनी इंटरटेनमेंट टेलीविजन और तेलुगु भाषा में मां टेलीविजन पर प्रसारण किया गया। 
 
कन्नड़ अभिनेता और निर्देशक शंकर नाग द्वारा निर्देशित मालगुडी डेज़ में संगीतकार एल वैद्यनाथन का संगीत था। सीरिज़ की अन्य खासियत इसमें हाथ से बने स्केचों (चित्रकला) का उपयोग था जो आरके नारायन के भाई और प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण द्वारा तैयार किए गए थे। निर्माता टीएस नरसिम्हा और अभिनेता अनंत नाग थे, जिन्होंने सीरियल में मुख्य भूमिका निभाई थी। साल 2004 में फिल्मकार कविता लंकेश ने निर्देशक शंकर नाग के बिना एक बार फिर आरके नारायन की कहानियों पर मालगुड़ी डेज़ का निर्माण किया जिसे 2006 में दूरदर्शन पर प्रदर्शित किया गया था। 
 
मालगुड़ी डेज़ की ज्यादातर कहानियां करीब एक घंटे लंबी थी। इन कहानियों को एक घोड़ा और दो बकरियों, मालगुड़ी डेज़, स्वामी और दोस्त और मिठाई वाला नामक कहानी संकलन से लिया गया था। 
 
स्वामी और दोस्त की कहानियां एक दस साल के बच्चे स्वामीनाथन या स्वामी की रोज़ाना की जिंदगी पर आधारित थी। स्वामी एक ऐसे बच्चे का चरित्र चित्रण करता है जिसे स्कूल जाने चिढ़ है। वह स्कूल न जाने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाता है और अपने दोस्तों के साथ मालगुड़ी में घूमता रहता है। 
 
स्वामी के पिता एक सरकारी कार्यालय में मुलाज़िम हैं और उसकी माता एक गृहिणी है। घर पर स्वामी अपनी दादी, जो उसे प्यार से चैमी कहकर पुकारती हैं, के बेहद करीब है और उन्हें अपने दैनिक किस्से सुनाता है। स्वामी के दोस्त मणि और राजम के पिता पुलिस में नगर अधीक्षक के औहदे पर हैं। 
 
स्वामी का पात्र निभाने वाले कलाकार मजुंनाथ ने निर्देशक शंकर नाग के साथ लगातार काम किया है। मिठाई वाला में मिठाई की दुकान चलाने वाले जगन के व्यवसाय और उसके विदेश में पढ़ाई खत्म कर आए बेटे के बीच के संबंधों पर आधारित है। इस सीरिज़ में मिठाई वाले का किरदार कन्नड कलाकार अनंत नाग ने निभाया था तथा यह अनंत नाग के छोटे भाई शंकर नाग द्वारा निर्देशित की गई थी।  
 
इस शो में दिखाई गई कुछ प्रसिद्ध कहानियां इस प्रकार हैं : 
'एक हीरो' 
स्वामी के पिता अखबार में छपी एक बहादुर बच्चे की खबर पढ़कर सुनाते हैं और स्वामी की अपनी दादी के पास सोने की आदत पर नाराजगी ज़ाहिर करते हैं। आखिर में स्वामी को अपने पिता के कार्यालय में सोने का फरमान सुना दिया जाता है। स्वामी के दोस्त उसे ऑफिस के पास के भूत की कहानियां सुनाते हैं। स्वामी आखिरकार डरते-डरते ऑफिस में सोने जाता है और वहां घुसे एक चोर का पैर पकड़ कर मदद के लिए चिल्लाता है। इस प्रकार स्वामी के कारण मालगुड़ी की पुलिस बहुत दिनों से तलाश रही चोर को पकड़ने में कामयाब होती है। मालगुड़ी टाइम्स में स्वामी की बहादुरी का ज़िक्र होता है और सबसे खास बात यह होती है कि उसे फिर से दादी के पास रहने की अनुमति मिल जाती है। 
 
एक घोड़ा और दो बकरियां
मुनि अपनी दो बकरियों को एक घोड़े की पुरानी मुर्ति के पास रोज़ाना चराने ले जाता है। एक दिन उसकी पत्नी उसे कुछ खाने के लिए मंगाती है। मुनि के पास बिल्कुल भी पैसे नहीं होते हैं। उसी रात मुनि की पत्नी उसे उनके कुएं के पास पड़ी एक लाश के बारे में बताती है। सुबह एक अमेरिकी अपनी कार के साथ मुनि को दिखाई देता है जिसे मुनि पुलिस वाला समझता है और लाश के बारे में बात करने लगता है। अमेरिकी मुनि को घोड़े की मुर्ति का मालिक समझता है और 100 रुपए में खरीदने की बात करता है। दूसरी तरफ मुनि समझता है कि वह उसकी बकरियां खरीदना चाहता है जिसके लिए वह पहले इंकार करता है परंतु जब वह 100 रुपए देखता है तो हामी भर देता है और अपनी बकरियां वही छोड 100 रुपए लेकर घर आ जाता है। रात को जब वह अपनी पत्नी को इस विषय में बता रहा होता है तभी उन्हें पास से बकरियों की आवाजें सुनाई देती हैं और बाहर निकलने पर पता चलता हैं कि बकरियां लौट आईं हैं और मूर्ति गायब है। 
 
गुमा हुआ खत
थनप्पा गांव में खत बांटता है और सभी लोगों की ज़िदंगी से वाकिफ है क्योंकि वह उनके खत उन्हें पढ़कर सुनाता है। वह गांव में रहने वाले  रामानुजम के परिवार से घुलमिल जाता है और जब रामानुजम की बेटी कामाक्षी इस दौरान बड़ी हो जाती है तो उसके लिए सही वर खोजने में भी मदद करता है। कामाक्षी के वर को 2 साल की ट्रेनिंग पर जाना है और शादी अगर तुरंत न की गई तो अगले दो साल तक होना नामुमकिन है। शादी की तारीख के दो दिन पहले थनप्पा को राजानुजम के भाई के गंभीर बीमार होने संबंधी खत मिलता है। वह रामानुजम के घर जाता है परंतु शादी की तैयारियों को देखकर खत न देने का निश्चय लेता है। अगले दिन थनप्पा के पास रामानुजम के भाई की मृत्यु का टेलीग्राम आता है जिसे थनप्पा अपने पास रख लेता है। शादी के बाद थनप्पा दोनों खतों को रामानुजम को दे देता है और अपने किए के लिए माफी मांगता है। 
 
मालगुडी डेज़ में हर एपीसोड में एक नई कहानी दिखाई जाती थी। आम लोगों के जीवन में होने वाली साधारण घटनाओं पर आधारित इस सीरिज ने अपने प्रसारण के समय से अगले कई सालों तक लोगों में लोकप्रियता बनाए रखी। 

8) वागले की दुनिया 
वागले की दुनिया साल 1988 में दूरदर्शन पर प्रदर्शित किया गया कॉमेडी सिटकॉम था। कुंदन शाह, जिन्होंने 1983 में प्रदर्शित कॉमेडी 'जाने भी दो यारों' और 'नुक्कड़' से प्रसिद्धी पाई थी, द्वारा निर्देशित वागले की दुनिया प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण के एक मध्यम वर्गीय आम आदमी पर आधारित थी। अंजन श्रीवास्तव ने इसमें वागले की भूमिका निभाई थी जो एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत कम काबिल सेल्स क्लर्क है। भारती आचरेकर ने वागले की पत्नी का किरदार निभाया था। वागले की दुनिया की लोकप्रियता इस कदर थी कि अंजन श्रीवास्तव को घर-घर में पहचाना जाने लगा था। 
 
यह धारावाहिक एक सेल्स क्लर्क के हर दिन सामने आने वाली मुसीबतों को बयां करता था जिसकी मध्यम वर्गीय सोच उसके काम पर भी असर डालती है। शुरुआत में वागले की दुनिया के सिर्फ 7 एपीसोड ही दिखाए जाने वाले थे परंतु दर्शकों का बेहतरीन प्रतिसाद देखकर एपीसोड 13 तक बढ़ा दिए गए। बाद में वागले की नई दुनिया नाम से इस सीरिज़ की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश की गई। वागले की दुनिया में शाहरूख खान ने भी एक अतिथी भूमिका निभाई थी। जिसके बाद उन्होंने धारावाहिक 'फौजी' से अपने टेलीविजन करियर की शुरुआत की। 
 
धारावाहिक का एक अंक, जिसमें वागले घर के परदे खरीदने के लिए जाते है परंतु पर्दे में लगने वाले कपड़े का दस गुना खरीद लाते हैं और इस तरह घर में चमकदार एक ही कपड़े के पर्दे, सोफा कवर, पिलो कवर और चादर के रूप में इस्तेमाल करना पड़ता है, को बाकी एपीसोड के मुकाबले बहुत ज्यादा पसंद किया गया था। वागले की दुनिया से वागले की भूमिका निभाने वाले अंजन श्रीवास्तव की प्रसिद्दि चरम पर पहुंच चुकी थी। दो दशक बीत जाने के बाद और सैकडों अन्य भूमिकाएं निभाने के बाद भी उन्हें वागले के नाम से ही पहचाना जाता है। अंजन श्रीवास्तव स्वयं मानते हैं कि वागले की दुनिया में उनके द्वारा निभाए वागले के किरदार ने उन्हें हमेशा के लिए टाइपकास्ट बना दिया।   
 
प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण की रचनाओं पर आधारित 'आर के लक्ष्मण की दुनिया' की शुरुआत साल 2011 में की गई जिसे जेडी मजीठिया ने निर्देशित किया था और धर्मेश मेहता इसके निर्माता थे। 2012 में वागले नाम के उपयोग से 'डिटेक्टिव वागले' दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया था जिसमें अंजन श्रीवास्तव की मुख्य भूमिका थी और सुलभा आर्य ने उनकी पत्नी का किरदार निभाया था।  

9) फौजी 
वर्ष 1989 में दूरदर्शन पर प्रसारित किए गए फौजी को शाहरुख खान का पहला टीवी धारावाहिक माना जाता है। हालांकि हकीकत में इससे पहले वह 'वागले की दुनिया' में मेहमान भूमिका में नज़र आ चुके थे और 'दिल दरिया' नाम के धारावाहिक में एक खास भूमिका निभा चुके थे। अपने प्रदर्शन के साल में ही फौजी भारतीय दर्शकों की प्रशंसा बटोरने में कामयाब हो चुका था। साथ ही साथ शाहरूख के फिल्मी करियर की शुरुआत से पहले ही उन्हें भारतीय दर्शकों के मन में अभिमन्यु राय के रूप में बसाने का श्रेय भी फौजी को ही जाता है। 
 
इसके कुल 13 एपीसोड प्रसारित किए गए थे जो करीब 25 मिनिट लंबे थे। फौजी की कहानी एक ऐसे युवा लड़के पर केंद्रित थी जिसे अपनी जिम्मेदारियों का एहसास नहीं होता है और बाद में यही युवा सेना का एक जिम्मेदार अफसर बनता है। 'फौजी' के पहले 6 अंको में शाहरुख यानी अभिमन्यु राय की कमांडो बनने की ट्रेनिंग और वहीं पर रहने वाली डॉक्टर मधु से अपने प्यार को कबूल करने की कोशिशों को दिखाया गया है। वहीं दूसरी ओर अभिमन्यु के भाई के मन में भी जनरल की बेटी के लिए भावनाएं जन्म लेने लगती हैं। आगे के एपीसोड्स में युवा लड़कों के व्यवहार को ट्रेनिंग के दौरान और ट्रेनिंग समाप्त होने तक बदलाव को उकेरा गया है। इन युवाओं को जिम्मेदार अफसरों के रूप में ढालना रोमांच पैदा करता है। 
 
सेना में दी जाने वाली मुश्किल ट्रेनिंग पर आधारित इस धारावाहिक में उनके ख्याल, भावनाओं, परिवार और प्यार के विषय में एक अलग दृष्टिकोण पेश किया गया था। फौजियों की कठिन ज़िंदगी को उकेरता हुआ यह धारावाहिक दर्शकों को सैनिकों की ज़िदंगी से जुडे अनछुए पहलुओं को दिखाने में बेहद कामयाब रहा और सालों के लिए अपनी छाप छोड़ गया। न्यू फिल्म प्राइवेट लिमिटेड द्वारा निर्मित इस धारावाहिक को कर्नल कपूर ने निर्देशित किया था।  इसमें शाहरुख द्वारा निभाया गया किरदार अभिमन्यु राय बहुत कुछ मुंबई के लेफ्टिनेंट कर्नल संजय बैनर्जी पर आधारित था। मेजर विक्रम राय का किरदार राकेश शर्मा ने निभाया था, वहीं किरन कोचप के किरदार में अमीना शेरवानी नज़र आईं। 

10) मिस्टर योगी
दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करते रहने की अगली कड़ी में दूरदर्शन पर प्रसिद्ध धारावाहिक मिस्टर योगी का प्रसारण साल 1989 में किया गया। 13 हफ्तों तक चलने वाली इस सीरिज में मिस्टर योगी 12 अलग-अलग राशियों वाली लड़कियों से मिलने जाता है। सीरियल में मोहन गोखले ने मिस्टर योगी का मुख्य किरदार निभाया था। धारावाहिक की कहानी एक अमेरिका में बसे हुए भारतीय लड़के की शादी के इरादे से लड़की खोजने और इस दौरान पैदा होने वाली विभिन्न घटनाओं और अलग-अलग पात्रों से मिलने के इर्दगिर्द बुना गया था। मिस्टर योगी एक खुशमिजाज और खुले खयालों वाला युवा है जो अमेरिका से एमबीए की डिग्री ले रहा है। 
 
मिस्टर योगी की ऐसे देश में परवरिश हुई है जहां सामाजिक और संस्कृतिक परिवेश भारतीय से अलग है। धारावाहिक केतन मेहता, जिन्हें इस सीरिज के लिए बेस्ट निर्देशक का अवॉर्ड भी दिया गया, द्वारा निर्देशित था जिसमें हास्य और करुणा को एक साथ मिक्स किया गया था। 
 
योगेश ईश्वर पटेल, एक एनआरआई की मुंबई में बिना दहेज लिए शादी हेतु दुल्हन की खोज में आने की कहानी है जो पूरी तरह इस बात से अनजान है कि एक प्रकार के दलदल में उसने हाथ डाल दिया है और यही हास्य की वजह बनती है। पल्लवी जोशी इसमें दुल्हन की भूमिका में नजर आई जिनसे आखिर में मिस्टर योगी की शादी हो जाती है।
 धारावाहिक में भारतीय समाज में गहराई तक बैठे वैवाहिक संबंधों और उन पर आधारित सामाजिक धारणाओं को हास्य के माध्यम से दर्शाया गया है। लड़कियों के लिए शादी की जरूरत सामाजिक अवधारणाओं पर ही पूरी तरह से आधारित होती है जिसमें भावनाओं को महत्व देना कहीं आसपास भी नहीं हैं।   
 
एक एपीसोड जिसमें वह राधा सेठ से मुलाकात करता है जिसमें वह कहती है कि वह अपने पैर काटकर उनसे शादी कर लेगी क्योंकि लड़कियों के लिए शादी का महत्व किसी भी अन्य चीज से बहुत ऊपर है और पूरा जीवन इसी पर आधारित माना जाता है। परंतु मिस्टर योगी इस तरह के संवादों से आश्चर्य में पड़ जाता है और यही से हास्य उपजता है। ओमपुरी ने धारावाहिक में सूत्रधार की भूमिका निभाई है। सीरियल के अंत में सूत्रधार खुद आश्चर्य चकित हो जाता है जब उसे पता लगता है कि मिस्टर योगी आखिरकार अपने लिए एक लड़की खोजने में सफल हो गए हैं।  
 
एक एपीसोड में पश्चिमी सभ्यता में पले-बढ़े मिस्टर योगी भारतीय संस्कृति को समझने की कोशिश करता है। वह भारतीय तरीके से अपने लिए पत्नी खोजना चाहता है, अपनी इस खोज के दौरान वह लड़कियों से मुलाकात करता है और उन्हें समझने की कोशिश करता है। उसके लिए यह बात समझ से परे है कि लड़कियां उसके सवालों के जवाब क्यों नहीं देती और हमेशा चुप क्यों रहती हैं। मिस्टर योगी के अनुसार बिना बात किए एक-दूसरे को समझना नामुमकिन है और शादी एक-दूसरे को जानने के बाद ही की जानी चाहिए।  
 
धारावाहिक बेहद ताजगी से भरा था। हास्य पैदा करने के तरीको अनोखे और कारगर थे। पूरे समय बजने वाला गाना मिस्टर योगी.... काफी कारगर साबित हुआ इससे दर्शकों को अंदाज हो जाता था कि मिस्टर योगी किसी मुसीबत में पडने जा रहे हैं। केतन मेहता का निर्देशन बेहद सटीक था। एक एपिसोड में लड़की राधा सेठ अपने समय की सोच से बहुत आगे की सोच रखती है और उसके आधुनिक ख्याल अमेरिका में पले बढ़े मिस्टर योगी को भी चकित कर देती है। 

11) ब्योमकेश बक्षी
करमचंद के अनोखे जासूसी अंदाज के बाद दर्शकों के दिल में गहराई से बस जाने वाला 'ब्योमकेश बक्शी' दूसरा भारतीय जासूस था। ब्योमकेश बक्शी आज़ादी के पहले के भारत में बंगाल में रहने वाले जासूस की गंभीर केसों को सुलझाने की कला पर आधारित था। ब्योमकेश बक्शी के रूप में रजत कपूर ने अपने बेहतरीन अभिनय से एक अमिट छाप छोड़ी। 
 
रजत कपूर के साथ केके रैना ने अजीत बंद्योपध्याय के रूप में ब्योमकेश का बखूबी साथ निभाया। ब्योमकेश बक्शी स्वयं को एक जासूस नहीं मानता, वह खुद को सत्यन्वेषी कहता है। सच को बाहर लाने की ज़िद उनके केस सुलझाने के पीछे छुपा रहस्य है। 
 
ब्योमकेश बक्षी पात्र की रचना शारदिंदु बंदोपाध्याय के द्वारा की गई थी जिस पर टीवी सीरिज़ 'ब्योमकेश बक्शी' आधारित था। धारावाहिक के लेखक बासु चटर्जी और मृगांक शेखर रे थे। निर्देशन की बागडोर धारावाहिक के लेखक और प्रसिद्ध निर्देशक बासु चटर्जी ने संभाली थी।
 
ब्योमकेश बक्शी की सफलता के बाद इसका एक और भाग दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया। पहले भाग में जहां कुल 14 अंक थे, दूसरा भाग 20 एपीसोड लिए हुए था। सारे अंक करीब 45 मिनिट लंबे थे। निर्देशक बासु चैटर्जी ने शारदिंदु बंदोपाध्याय के हर उपन्यास पर ब्योमकेश बक्शी का एक अंक बनाया था, सिर्फ चिड़ियाघर और अदिम शत्रु के लिए को दो भागों में दो अंको में दिखाया गया था। ब्योमकेश बक्शी की लोकप्रियता समय के परे आज भी कायम है और दूरदर्शन पर ही कई बार इसका प्रदर्शन किया जा चुका है। 
 
शरदिंदु बंदोपध्याय ने ब्योमकेश बक्शी को पहली बार सन 1932 में एक छोटी कहानी के रूप में जन्म दिया था। अगले 38 सालों के दरमियान उपन्यासकार शारदिंदु बंदोपध्याय ने अपने हीरो ब्योमकेश की ज़िदंगी में उसके आसपास होने वाले रहस्यों को सुलझाने वाली करीब 32 और कहानियां लिखी जिनमें कुछ उपन्यास के रूप में थी। दुर्भाग्यवश अपनी आखिरी कहानी 'बिशुपाल बध' (बिशुपाल की हत्या) पूरी कर पाने के पहले ही उनका निधन हो गया। इस कहानी में रहस्य इतना गहरा है कि अन्य किसी के लिए यह पता लगा पाना नामुमकिन हो गया था कि आखिर बिशुपाल की हत्या किसने की। हत्या इतनी निपुणता के साथ की गई है कि हत्यारे का पता लगाना सिर्फ लेखक के लिए ही मुमकिन था और इस प्रकार यह कहानी बिना अंत के ही रह गई और ब्योमकेश बक्शी का यह आखिरी केस है जिसे वह सुलझा नहीं पाया। 

12) भारत एक खोज 
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित ‍पुस्तक 'द डिस्कवरी ऑफ इंडिया' पर फिल्मकार श्याम बेनेगल ने दूरदर्शन के लिए एक अद्‍भुत धारावाहिक 'भारत एक खोज' बनाया। 53 एपिसोड में बनाया गया यह धारावाहिक ऐतिहासिक धरोहर है और इसे हर भारतीय को देखा जाना चाहिए। इसमें भारत का इतिहास आरंभ से 1947 तक दिखाया गया है। श्याम बेनेगल का निर्देशकीय कौशल देखने लायक है जब उन्होंने हजारों वर्षों का इतिहास बहुत ही उम्दा तरीके से इस धारावाहिक में दिखाया है। यह धारावाहिक न केवल ज्ञानवर्धक बल्कि मनोरंजक भी है जो हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति से दिलचस्प तरीके से रूबरू करवाता है। इसे तो सभी स्कूलों में अनिवार्य रूप से छात्रों का दिखाया जाना चाहिए ताकि उनका ज्ञान बढ़े। इस धारावाहिक में कई बड़े कलाकारों ने विभिन्न भूमिकाएं निभाईं। सिनेमाटोग्राफर वीके मूर्ति का छायांकन लाजवाब है। 1988 में इसे दूरदर्शन पर दिखाया गया। बाद में डीडी भारती, लोक सभा टीवी और डीडी इंडिया पर प्रसारण हुआ। यह धारावाहिक टीवी इतिहास का अनमोल खजाना है।