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Written By WD

एक शिक्षक की कहानी, उसी की जुबानी

शिक्षक दिवस विशेष

Teachers Day Activities | एक शिक्षक की कहानी, उसी की जुबानी
एक शिक्षक का जीवन बच्चों के साथ कैसे बीतता है! वह भी कभी बच्चा बनकर उन्हें समझने की कोशिश करता है तो कभी बुजुर्ग दार्शनिक की तरह उनके प्रश्नों का उनके स्तर पर जवाब दे रहा होता है। शिक्षक बच्चों के साथ रहता हुआ वैसा ही निर्दोष हो जाता है। महान दार्शनिक शिक्षक सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन के जन्मदिवस पर मनाए जाने वाले 'शिक्षक दिवस' पर पढ़िए एक शिक्षक का जीवन एक शिक्षक की ही जुबानी।

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जिंदगी के लंबे चालीस बरस कैसे बीत गए, बड़ा अजीब लगता है। यूं महसूस होता है कि अरे ये अभी-अभी तो सन्‌ 70-71 था। मन गीली साबुन की तरह छूटकर पूरे चालीस बरस पीछे चला जाता है। वाकई ये बरस फूलों की खुशबू पर सवार थे। भीनी-भीनी और हौले-हौले चलती हवाओं में खुशबू और वक्त रंग-बिरंगी तितली बन गया था। उसके परों पर ये बरस केसर की क्यारियों में धुलते रहे। ये बरस न बोझ बने न चट्टान की तरह काटने पड़े, मुस्कुराहटों, लोरियों, अपनेपन के मोरपंख से रास्ता बनाते रहे।

हालांकि ये बरस आसान नहीं थे। ये वक्त के कठोर और चट्टानी चुनौतियों पर उगी हुई हरी घास थी। ये घास आश्वस्त करती थी कि अभी संभावनाओं के फूल, उम्मीदों की तितलियां, होठों पर मुस्कुराहट के अंकुर फूटेंगे बे आवाज और रातरानी की तरह ठेठ अंधेरे में खुशबुओं के उजास बिखरेंगे और दिन की तमाम तपीश और त्रासदियां तिरोहित होकर रातरानी की गंध में समा जाती थीं। जिंदगी बड़ी अजीब है। कठोर भी और बच्चे की मुस्कुराहट और किलकारी भी।

मैं शिक्षक बनकर बच्चों के बीच आ गया था। पहली ही बार उन पहाड़ी रास्तों के कठोर घुमाओं से गुजरते हुए लू-लपट के बीच जीर्ण-सी इमारत के परिसर में आ गया था। मुझे आश्चर्य हुआ था कि मुझे जरा-सा भी परायापन, अनजानापन, अपरिचय महसूस ही नहीं हुआ था। इमारत में उसके पटाव में, उजालदानों में कबूतर गुटूर गूं कर रहे थे। फटी टाटपट्टियों पर बच्चे बैठे पट्टियों पर लिख रहे थे। उस दिन मुझे ऐसा क्यूं लगा था कि मैं यहीं से कहीं गया था और फिर अपनों के बीच लौटा हूं। शायद यही अपनापन मेरे अंतस से उमड़-घुमड़कर बाहर आ गया था, मैं उन्हीं गुटूर गूं और किलकारियों में समा गया था। एक शिक्षक की जिंदगी का यह पहला दिन था जो पगडंडी बनकर सरपट भागने लगा था। एक अल्हड़ बालक की तरह... मैं उन्हीं का हिस्सा हो गया था।

एक अध्यापक बच्चों को क्या दे सकता है? क्या आश्वासन दे सकता है? एक खूबसूरत दुनिया का सपना दे सकता है। आंखों के फैले बियाबान में दूर कहीं टिमटिमाती रोशनी का ख्वाब दे सकता है। देने को उसके पास क्या है।

कठोर दुनिया से टकराकर चूर-चूर होती उम्मीदें, तिड़कते-बिखरते सपनों को निरंतर जोड़ते हुए बच्चों की उम्मीदों को थपकियां दे सकता है। हर बार बच्चों के टूटते सपनों को एक आशा की डोर से बांधकर दूर गगन में उड़ाता है। पूरे चालीस बरस बच्चों की किलकारियों में रहा, मासूम और भोलेपन की दुनिया में रहा।

उनकी निर्दोष आंखों की चमक में रहा, कभी उनके उदास और आंसुओं से भरी पलकों में रहा। वे होठ जब मुस्कुराते थे तो लगता था तपते रेगिस्तान में ठंडी हवा का झोंका आ रहा है। वे कुछ कहते थे मैं सुनता था, उन अबोध शब्दों में कितना अपनापन, कितनी बड़ी दुनिया समाई होती थी।

किताबों के पाठ और कविताएं, अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द शहद के मानिंद हो उठते थे। वाकई वह कक्षा सिर्फ कक्षा नहीं होती थी। वह मुस्कुराहट और उमंग से भरी डलिया होती थी, जो किसी उत्सव की तैयारी का पता देती थी। और आज चालीस बरस लंबी किलकारियों, हंसते-खेलते, मुस्कुराते बच्चों की दुनिया से जा रहा हूं। कितना सूना और सन्नाटा-सा मैं अपने चारों तरफ पा रहा हूं।

उन शिक्षकों, शिक्षिकाओं के द्वारा दिए गए मान-सम्मान को उससे ज्यादा अपनेपन को महसूसता हूं जिन्होंने मुझे ठेठ अपना समझा जैसे रिश्तों की डोर से बंधे रहे, एक पारिवारिक वातावरण में सामाजिक जवाबदारियों में रहे। उन अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों ने नागरिकों ने बेहद अपना समझा और निरंतर मान-सम्मान दिया। उनके प्रति आभार के कुछ शब्द कहकर 'अभिव्यक्त' नहीं किया जा सकता।

हालांकि गत वर्षों में शिक्षक काफी परेशान रहे हैं, उनके अनुभवों को कभी महत्व नहीं दिया। उनके जीवन में जो उन्होंने पठन- पाठन की तकनीकी विकसित की उसके प्रति विभाग की बेरुखी ने अच्छे परिणामों पर जैसे रोक ही लगा दी है। लंबे शिक्षकीय जीवन में शिक्षक, शिक्षा, पुस्तकें, अध्यापन, मनोविज्ञान आदि पर एक खोज संपन्न करता है। लेकिन राजधानी से आयातित कार्यक्रम ही सर्वेसर्वा रहे, इससे एक विचलन, एक तल्खी विद्यालयों में फैली हुई है। विभाग को, शासन को, जनप्रतिनिधियों को गंभीरता से इस पर विचार करना होगा।

जीवन में अनुभवों का विशाल गुलदस्ता मिला है। तल्खी भी, प्यार भी, लेकिन बच्चों के बीच जाकर शिक्षक सबकुछ भूलकर वह सिर्फ बच्चों का हो जाता है। इन वर्षों में उनकी मुस्कुराहट, हंसी, उम्मीदों के लिए निरंतर लगा रहा। उदासी और आंसूभरी आंखों में सपनों के आकाश दिखाता रहा। क्या पता कितना सफल रहा कह नहीं सकता। गांव से जिले से तक, जिले से दिल्ली तक के सम्मान मिले लेकिन अपने विद्यार्थियों से मिले सम्मान को मैं कभी नहीं भूल सकता।

जीवनसिंह ठाकुर