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Written By WD

सफल हॉकी लीग के बाद अब ग्रासरूट की ओर देखने की बारी

संजय श्रीवास्तव

सफल हॉकी लीग के बाद अब ग्रासरूट की ओर देखने की बारी -
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हॉकी इंडिया लीग का दूसरा सत्र खत्म हो चुका है, जिसे सफल सत्र कहना चाहिए। हर मैच में खासी भीड़, खेल का भरपूर रोमांच और हॉकी का उम्दा प्रदर्शन। देश-विदेश के बड़े विदेशी कोचों के साथ दिग्गज खिलाड़ियों का मेला भी लीग में लगा। लीग में पहली बार लोगों को खींचने के लिए पेशेवर तौरतरीके अपनाए गए-प्रचार से लेकर और ग्लैमर के स्तर तक। अब इस सफल हॉकी इंडिया लीग के बाद समय है उदास और उजाड़ पड़े राष्ट्रीय खेल के ग्रासरूट लेवल की ओर देखने का।

हॉकी की असली चमक तभी लौटेगी जब एकदम निचले स्तर पर हॉकी गुलजार हो। छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में 25-30 साल पहले की तरह बच्चे हॉकी खेलते हुए नजर आएं।

मानिए या मत मानिए कि 90 के दशक के बाद हॉकी निचले स्तर पर एकदम साफ हो गई. ये इतना बड़ा नुकसान है, जिसका आकलन भी किया जा सकता। समूचे उत्तर भारत में जहां पहले कभी खूब हॉकी होती थी, वहां सन्नाटा है। जो कभी हॉकी के बहुत बड़े गढ़ या केंद्र थे, वहां अब गली-मोहल्लों और मैदानों पर क्रिकेट की रौनक है।

असली चिंता अब ये होनी चाहिए कि हॉकी स्टिक को बच्चों के हाथों में फिर किस तरह पकड़ाएं। जिस दिन ये हो जाएगा, उस दिन हॉकी सही मायनों में जिंदा हो उठेगी। फिर उसे रोकने वाला कोई नहीं होगा।

दरअसल हॉकी की इस पीड़ाजनक हालत पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। न खेल मंत्रालय और न ही भारतीय हॉकी महासंघ ने। पिछले 20-25 सालों से हॉकी के सरमाएदार वो लोग रहे, जिन्हें हॉकी से ज्यादा अपनी खेल संघों में अपनी कुर्सियों और ताकत की चिंता थी। ये वो दौर भी था जब खेल और खिलाड़ियों के ज्यादा इतर बातों पर ध्यान दिया गया। नतीजतन खेल का और पराभव हुआ।

ये हैरानी का विषय हो सकता है कि हमारे देश में दो बड़े खेल हैं-हॉकी औऱ क्रिकेट। क्रिकेट उठता रहा औऱ खेल के साथ प्रबंधन और विकास के स्तर पर कुलांचे भरता रहा और प्रतिद्वंद्वी खेल हॉकी के लोगों ने उससे कोई नसीहत नहीं ली। सभी ने तिल-तिलकर अपने राष्ट्रीय खेल को कमोवेश खुदकुशी की ओर बढ़ा दिया।

कभी उत्तर भारत में हॉकी का बहुत बड़ा केंद्र हुआ करने वाले मेरठ में पंडित सोहनलाल हॉकी मेकर्स की दुकान थी। रिवाज था जब भी भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक या बड़े विदेशी दौरों पर जाती थी, तो यहीं की हॉकी इस्तेमाल हुआ करती थी।

1980 में मास्को ओलंपिक खेलों में हमारी हॉकी टीम पंडित सोहनलाल हॉकी मेकर्स की हॉकी से मुस्तैद थी। दूर-दूर से लोग इस हॉकी दुकान से हॉकी खरीदने आया करते थे और काफी भीड़ लगी रहती थी। इस दुकान पर हॉकी खरीदने के इतने ऑर्डर आते थे कि पूरा करना मुश्किल हो जाता था।

यही हाल जालंधर और दूसरी जगहों पर बड़े हॉकी निर्माताओं का था. अब पंडित सोहन लाल हॉकी मेकर्स की दुकान सालों से उजड़ी पड़ी है. शायद एक महीने में वहां से 25 हॉकी स्टिक भी बिक पाती हों। आप इससे अंदाज लगा सकते हैं कि ग्रास रूट पर हॉकी किस हाल में है।

लखनऊ में केडी सिंह बाबू स्टेडियम के करीब गोमती नदी के किनारे का एक छोटा-सा मैदान आज से 15 साल पहले तक हॉकी की खट-खट से गूंजता था। ओलंपियन झमन लाल शर्मा खुद सुबह पांच बजे हॉकी सिखाने के लिए मैदान में आ जाते थे। अपनी कोशिशों से बच्चों को हॉकी सिखाकर इस खेल को अपने स्तर पर जिंदा रखने की कोशिश करते थे।

इस राष्ट्रीय खेल के लिए जोश भरने में लगे रहते थे। झमन लाल की मृत्यु के बाद अब उस मैदान पर सन्नाटा है। न कोई हॉकी सीखने आता और न कोई सिखाने।

देश के ज्यादातर एस्ट्रोटर्फ मैदानों का समुचित रखरखाव नहीं है, जिसके चलते वो खराब होने की कगार पर पहुंच चुके हैं। भारतीय खेल प्राधिकरण ने जगह-जगह हॉकी के कोच जरूर रखे हैं। उनके रिजल्ट और समर्पण की ओर नजर दौड़ाएंगे तो निराशा होगी। किसी जमाने में यूपी में हॉकी के बेहतर खिलाड़ी पैदा करने के लिए स्पोर्ट्स हॉस्टल खोले गए पर उनका हाल भी बहुत अच्छा नहीं है।

पंजाब और उत्तरप्रदेश कभी हॉकी के गढ़ थे लेकिन अब अतीत की परछाई। झारखंड और उड़ीसा के ज्यादातर हॉकी खिलाड़ियों की पृष्ठभूमि गरीबी रेखा के नीचे वाली है, ऐसे में किस तरह केवल हॉकी के लिए समर्पण भाव दिखा सकते हैं। अब भी ये किस्से अखबारों में दिख जाएंगे कि अमुक हॉकी का ओलंपियन किस कदर बुरे हाल में है। ध्यानचंद के बाद भारत का सबसे चमत्कारिक हॉकी का खिलाड़ी मुहम्मद शाहिद पिछले 13 सालों से प्रोमोशन के इंतजार में है।

..बेशक तस्वीर बदरंग हो चुकी है। इस पर काफी धूल की परत भी चढ़ चुकी है। इसे अब जरूरत है प्रेरणा और उत्साह की। सवाल यही है कि इस तस्वीर में उत्साह के चटखीले रंग कब तक भर पाते हैं। अगर ग्रास रूट लेवल पर हॉकी आ गई तो छा जाएगी. खुशी की बात है कि हॉकी इंडिया ने कुछ करना तो शुरू किया है।

अगर हॉकी को उठाना है तो छोटी जगहों पर हॉकी को मजबूत करने के लिए काम करने की जरूरत है। हॉकी इंडिया को चाहिए कि वह जूनियर और सब जूनियर लेवल पर ध्यान दे। अकादमियां खोली जाएं और महिला हॉकी पर भी साथ साथ दिया जाए।

सबसे अच्छी बात ये है कि हॉकी में एक लंबे समय बाद फिर राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं शुरू हो रही हैं। बड़ी संख्या में टीमें उसमें शिरकत करेंगी। ये सब हुआ है स्टार इंडिया के हॉकी को प्रमोट करने के फैसले के बाद, जिसके तहत उनकी योजना इस खेल में अगले कुछ सालों में 1500 करोड़ रुपए लगाने की है।

जिस तरह भारतीय क्रिकेट विश्व के लिए सबसे मजबूत आर्थिक आधार बनकर उभरा है, वैसा ही हॉकी में हो सकता है क्योंकि हमारे उभरते हुए खेल बाजार में इतना दम है कि वो हॉकी को बखूबी उठा सके। शायद अंतरराष्ट्रीय हॉकी फेडरेशन (एफआईएच) भी इस बात को समझ चुका है, तभी इस समय वह भारत को ज्यादा तवज्जों देने में जुटा है।

ये समझ में आ जाना चाहिए कि दुनिया में हॉकी तभी बचेगी, जब वो भारत और पाकिस्तान जैसे एशियाई देशों में बचेगी अन्यथा इसके अस्तित्व पर संकट आ जाए तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। मानकर चलना चाहिए कि आने वाले सालों में तस्वीर रंगत लिए होगी..तो मानकर चलते हैं कि होगा... 'चक दे इंडिया'