मंगलवार, 23 अप्रैल 2024
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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

रहस्यमय पौराणिक पारलौकिक समूह को जानिए...

रहस्यमय पौराणिक पारलौकिक समूह को जानिए... - hindu mysterious mythical supernatural group
वेद और महाभारत पढ़ने पर हमें पता चलता है कि आदिकाल में प्रमुख रूप से ऐसे रहस्यमयी और पारलौकिक समूह थे जो मानव की हर तरह की ‍इच्छापूर्ण करने में सक्षम हैं। आज भी इनका आह्‍वान करने कर ये मानव की मदद करते हैं। पहले हम बताएंगे सकारात्मक समूह के बारे में फिर जानिए नकारात्मक समूह के बारे में।
 
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्‌॥- (गीता अध्याय 9 श्लोक 25)
भावार्थ : देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा (परमेश्वर का) पूजन करने वाले भक्त मुझको (परमेश्वर को) ही प्राप्त होते हैं इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता॥
 
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च॥
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्‍घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥॥11-22॥
अर्थात : जो 11 रुद्र और 12 आदित्य तथा 8 वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार तथा मरुद्गण और पितरों का समुदाय तथा गंधर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धों के समुदाय हैं, वे सब ही विस्मित होकर आपको देखते हैं।
सकारात्मक समूह : 
1.विद्याधर:- कई तरह की चमत्कारिक विद्याओं को धारण करने के ही कारण इनको विद्याधर कहा जाता है। देवताओं की यह जाति अधिक विद्वान होती है। हिन्दू मान्यता के अनुसार विद्याधर हिमालय में रहने वाले उपदेव हैं। वे शिव के सहचर हैं। उनके पास चमत्कारिक शक्ति होती है। बौद्ध धर्म में भी विद्याधरों का उल्लेख मिलता है। शिव के हजारों गण हैं। गण नहीं, शिव की ही पूजा धर्मसम्मत है।
 
2.यक्ष-यक्षिणियां:- यक्षों को बहुत ही सिद्ध और चमत्कारिक और निधियों का माना गया है। कुबेर एक यक्ष ही था। युधिष्ठिर का एक यक्ष से ही सामना हुआ था। यक्षों की सहयोगिनियों को यक्षिणियां कहा गया है। मूलत: आठ यक्षिणियां हैं जो साधक की हर इच्छापूर्ण करती है।
 
3. गन्धर्व- यह केवल गन्‍ध को ही पसन्‍द करते हैं। कश्यप की पत्नी अरिष्ठा के गर्भ से गंधर्वों की उत्पत्ति हुई। बहुत से लोग गंधर्वों की पूजा और साधना करते हैं। गंधर्व नाम से एक वेद भी है। गंधर्वों का अपना लोक है। पौराणिक साहित्य में गंधर्वों का एक देवोपम जाति के रूप में उल्लेख हुआ है। गंधर्वों का प्रधान चित्ररथ था और उनकी पत्नियां अप्सराएं हैं। अथर्ववेद में गंधर्वों की गणना देवजन, पृथग्देव और पितरों के साथ की गई है।
 
4.अप्सराएं:- जल पर विचरण करने के कारण इन्‍हें 'अप्सरा' कहा जाता है। अथर्ववेद के अनुसार ये अश्वत्थ तथा न्यग्रोध वृक्षों पर रहती हैं, जहां ये झूले में झूला करती हैं और इनके मधुर वाद्यों की मीठी ध्वनि सुनी जाती है। ये नाच-गान तथा खेलकूद में निरत होकर अपना मनोविनोद करती हैं। अप्सराओं की कोई उम्र निर्धारित नहीं है। ये सभी अजर-अमर हैं। शास्त्रों के अनुसार देवराज इन्द्र के स्वर्ग में 11 अप्सराएं प्रमुख सेविका थीं। ये 11 अप्सराएं हैं- कृतस्थली, पुंजिकस्थला, मेनका, रम्भा, प्रम्लोचा, अनुम्लोचा, घृताची, वर्चा, उर्वशी, पूर्वचित्ति और तिलोत्तमा। इन सभी अप्सराओं की प्रधान अप्सरा रम्भा थी। अलग-अलग मान्यताओं में अप्सराओं की संख्या 108 से लेकर 1008 तक बताई गई है। 
 
5.नायिकाएं:- यक्षिणियां तथा अप्सराओं की उप जाति नायिकाएं हैं। ये अति सुंदर और लोगों को मोहित करने की कला से पूर्ण होती है। इन की साधना वशीकरण तथा सुंदरता प्राप्ति हेतु की जाती हैं। ये मुख्यतः ऋषि मुनियों के कठिन तपस्या को भंग करने हेतु देवताओं द्वारा नियुक्त हैं। ये मुख्यतः आठ हैं, 1.जया, 2.विजया, 3.रतिप्रिया, 4.कंचन कुंडली, 5.स्वर्ण माला, 6.जयवंती, 7.सुरंगिनी, 8.विद्यावती। 
 
6. गुह्मक-  गुह्मक का अर्थ गुप्त विद्याओं का ज्ञाता। तांत्रिक लोग गुह्मकों की साधना करते हैं। जैन और बौद्ध धर्म में गुह्मकों का उल्लेख विस्तार से मिलता है। ये बहुत सी निधियों को रखते हैं, और उनकी रक्षा करते हैं। इनके अधिकार में बहुत से कोषागार रहते हैं, जो पृथ्‍वी या पर्वतों में छिपे रहते हैं।
 
7.सर्प और नाग : नाग पूजा और नाग देवता का भारत भर में बहुत प्रचलन है। यह देव गण सर्प रूप में विद्यमान रहते हैं। इनका ध्यान करने से ये मानव की रक्षा और सेवा करने के लिए तत्पर रहते हैं। नागकुल के प्रमुख 10 नागों के बारे में जानकारी मिलती है। कद्रू के पुत्र नाग कहलाए। नाग थे- अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक।
 
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8. सिद्ध:- इन्‍हें परमेश्‍वर की सिद्धि‍ प्राप्‍त होती है। ये जो कुछ कह देते हैं, सब सत्‍य हो जाता है। ये कभी असत्‍य नहीं बोलते। ये बहुत ही अच्‍छे देव हैं। ये कभी बहुत छोटा रूप बना लेते हैं, कभी ये पर्याप्‍त भार से युक्‍त हो जाते हैं तथा कभी बिल्‍कुल ही हल्‍के हो जाते हैं। हिन्दू और बौद्ध धर्म में 84 सिद्धों का वर्णन मिलता है। सिद्धों का स्थान पूर्वी भारत माना जाता है।

बिहार, बंगाल, ओडिशा, असम आदि क्षेत्र सिद्ध साधकों के प्रभाव वाले माने जाते हैं। इनके गढ़ तत्कालीन शिक्षा के केंद्र के रूप में विख्यात नालंदा के आसपास के क्षेत्र थे। सिद्ध लोग योग और तप का आश्रय लेकर अपने स्थूल शरीर का ही सूक्ष्मीकरण कर लेते हैं। सिद्ध पुरुषों की अनुकंपा, सहायता प्राप्त करने के लिए कितने ही लोग लालायित फिरते हैं, लेकिन वे देवता नहीं होते।
 
8.वीर : वीरों की संख्‍या 52 बताई गई है।  सभी वीरों की शक्तियां एक-दूसरे से भिन्न हैं। ये अलग-अलग शक्तियों से संपन्न होते हैं। गुप्त नवरात्रि में और कुछ विशेष दिनों में वीर साधना की जाती है। वीर साधना को तांत्रिक साधना के अंतर्गत माना गया है।
 
10.64 योगिनियां : ये सभी आदिशक्ति मां काली का अवतार है। चौंसठ देवियों में से दस महाविद्याएं और सिद्ध विद्याओं की भी गणना की जाती है। 
 
11.भैरव समूह : भैरव समूह के बारे में तांत्रिक ग्रंथों में विस्तार ‍उल्लेख मिलता है। तंत्र साधना में भैरव के आठ रूप भी अधिक लोकप्रिय हैं- 1.असितांग भैरव, 2. रु-रु भैरव, 3. चण्ड भैरव, 4. क्रोधोन्मत्त भैरव, 5. भयंकर भैरव, 6. कपाली भैरव, 7. भीषण भैरव तथा 8. संहार भैरव। इसके अलावा सप्तविंशति रहस्य में 7 भैरवों के नाम हैं। इसी ग्रंथ में दस वीर-भैरवों का उल्लेख भी मिलता है। इसी में तीन बटुक-भैरवों का उल्लेख है। रुद्रायमल तंत्र में 64 भैरवों के नामों का उल्लेख है।
 
12. किन्नर- ये मनुष्‍यों के आकार में सदा रहते हैं, परन्‍तु जब चाहते हैं, तब अपना रूप भी बदल लेते हैं। कश्यप और अरिष्टा से ही किन्नरों की भी उत्पत्ति हुई। हिमालय का पवित्र शिखर कैलाश किन्नरों का प्रधान निवास स्थान था, जहां वे शंकर की सेवा किया करते थे। उन्हें देवताओं का गायक और भक्त समझा जाता है और यह विश्वास है कि यक्षों और गंधर्वों की तरह वे नृत्य और गान में प्रवीण होते थे। उनके सैकड़ों गण थे और चित्ररथ उनका प्रधान अधिपति था। शतपथ ब्राह्मण में अश्वमुखी मानव शरीर वाले किन्नर का उल्लेख है। बौद्ध साहित्य में किन्नर की कल्पना मानवमुखी पक्षी के रूप में की गई है। मानसार में किन्नर के गरूड़मुखी, मानव शरीरी और पशुपदी रूप का वर्णन है। इनके वंशज वर्तमान जनजातीय जिला किन्नौर के निवासी माने जाते हैं। आजकल हिजड़ों के लिए भी 'किन्नर' शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।
 
13.पितर : अग्रिष्वात्त, बर्हिषद, आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नांदीमुख ये 9 दिव्य पितर बताए गए हैं। पुराण के अनुसार दिव्य पितरों के अधिपति अर्यमा का उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र निवास लोक है।
 
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14.वसु समूह : 8 पदार्थों की तरह ही 8 वसु हैं। इन्हें 'अष्ट वसु' भी कहते हैं। इन आठों देवभाइयों को इन्द्र और विष्णु का रक्षक देव माना जाता है। सभी का जन्म दक्ष कन्या और धर्म की पत्नी वसु से हुआ है। दक्ष कन्याओं में से एक सती भी थी, जो शिव की पत्नी थीं। सती ने दूसरा जन्म पार्वती के रूप में लिया था।  
स्कंद पुराण के अनुसार महिषासुर मर्दिनी दुर्गा के हाथों की अंगुलियों की सृष्टि अष्ट वसुओं के ही तेज से हुई थी। रामायण में वसुओं को अदिति पुत्र कहा गया है।  वेद और पुराणों में इनके अलग-अलग नाम मिलते हैं। स्कंद, विष्णु तथा हरिवंश पुराणों में 8 वसुओं के नाम इस प्रकार हैं:- 1. आप, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धर, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्यूष और 8. प्रभाष। महाभारत के भीष्म एक वसु ही थे जो शाप के चलते मनुष्य योनी में आए। द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु। महाभारत में आप (अप्) के स्थान में 'अह:' और शिवपुराण में 'अयज' नाम दिया है। ऋग्वेद के अनुसार ये पृथ्वीवासी देवता हैं और अग्नि इनके नायक हैं। तैत्तिरीय संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में इनकी संख्या क्रमश: 333 और 12 है। धर धरती के देव हैं, अनल अग्नि के देव है, अनिल वायु के देव हैं, आप अंतरिक्ष के देव हैं, द्यौस या प्रभाष आकाश के देव हैं, सोम चंद्रमास के देव हैं, ध्रुव नक्षत्रों के देव हैं, प्रत्यूष या आदित्य सूर्य के देव हैं।
 
15.यम समूह : पितरों की जमात के अधिपति यम हैं। यमराज और उनके गणों को यम समूह कहा जाता है। यह मृत्यु के देवता हैं। स्मृतियों के अनुसार 14 यम माने गए हैं- यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दध्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त।
 
'धर्मशास्त्र संग्रह' के अनुसार 14 यमों को उनके नाम से 3-3 अंजलि जल तर्पण में देते हैं। इनका संसार 'यमलोक' के नाम से जाना जाता है। 'स्कन्दपुराण' में कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को दीए जलाकर यम को प्रसन्न किया जाता है। एक धर्मशास्त्र का नाम भी यम है।
 
16.:यामदेव : यामदेव की संख्या 12 बताई गई है। यदु ययाति देव तथा ऋतु, प्रजापति आदि यामदेव कहलाते हैं।

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17.तुषित : तुषितों की संख्या 30 बताई गई है। 30 देवताओं का एक ऐसा समूह है जिन्होंने अलग-अलग मन्वंतरों में जन्म लिया था। स्वारोचिष नामक ‍द्वितीय मन्वंतर में देवतागण पर्वत और तुषित कहलाते थे। देवताओं का नरेश विपश्‍चित था और इस काल के सप्त ऋषि थे- उर्ज, स्तंभ, प्रज्ञ, दत्तोली, ऋषभ, निशाचर, अखरिवत, चैत्र, किम्पुरुष और दूसरे कई मनु के पुत्र थे।
बौद्ध धर्मग्रंथों में भी वसुबंधु बोधिसत्व तुषित के नाम का उल्लेख मिलता है। तुषित नामक एक स्वर्ग और एक ब्रह्मांड भी है। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चाक्षुष मन्वंतर में तुषित नामक 12 श्रेष्ठगणों ने 12 आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया। पुराणों में स्वारोचिष मन्वंतर में तुषिता से उत्पन्न तुषित देवगण के पूर्व व अपर मन्वंतरों में जन्मों का वृत्तांत मिलता है। स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव व रोचन नामक 12 पुत्रों के तुषित नामक देव होने का उल्लेख मिलता है।
 
18.विश्वेदेवा : विश्वदेवा की संक्या 10 बताई गई है।
19.साध्यदेव : साध्य की संख्‍या 12 बताई गई है। अनुमन्ता, प्राण, नर, वीर्य्य, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु ये 12 साध्य देव हैं, जो दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न हुए हैं। इनके नाम कहीं कहीं इस तरह भी मिलते हैं:- मनस, अनुमन्ता, विष्णु, मनु, नारायण, तापस, निधि, निमि, हंस, धर्म, विभु और प्रभु।
 
20.अभास्वर : अभास्वर की संख्या 64 बताई गई है। तमोलोक में 3 देवनिकाय हैं- अभास्वर, महाभास्वर और सत्यमहाभास्वर। ये देव भूत, इंद्रिय और अंत:करण को वश में रखने वाले होते हैं।
 
21.मरुतगण : मरुतगणों की संख्या 49 बताई गई है।  गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है। मरुतों का एक संघ है जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं। वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।-(ऋ. 1.85.4)। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं।
 
7 मरुतों के नाम निम्न हैं- 1. आवह, 2. प्रवह, 3. संवह, 4. उद्वह, 5. विवह, 6. परिवह और 7. परावह। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं- ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।
 
22.महाराजिक : महाराजिक की संख्‍या 220 बताई गई है।
 
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नकारात्मक समूह:-
भूतान्प्रेत गणान्श्चादि यजन्ति तामसा जना।
तमेव शरणं गच्छ सर्व भावेन भारतः-गीता।। 17:4, 18:62
अर्थात : भूत प्रेतों की उपासना तामसी लोग करते हैं। हे भारत तुम हरेक प्रकार से ईश्वर की शरण में जाओ।
1.दैत्य : दैत्यों को असुर भी कहा गया है। दिति के दो प्रमुख पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष थे। हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रहलाद और संहल्लाद। प्रहलाद के कुल में विरोचन के पुत्र राजा बालि हुए। हिरण्यकश्यप के लिए नृसिंह, हिरण्याक्ष के लिए वराह और राजा बालि के लिए विष्णु को वामन अवतार लेना पड़ा। वृत्तासुर, त्रिपुरासुर, भस्मासुर, मयासुर, महिषासुर, गयासुर, मधु, कैटभ, शंभासुर, रक्तबीज, चंड-मुंड आदि असुरों की कथाएं पुराणों में मिलती हैं।
 
2.दानव : दनु के दानव पुत्रों के नाम इस प्रकार हैं- विप्रचित्ति, शंबर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, दुर्जय, अय:शिरा, अश्वशिरा, अश्वशंकु, गगनमूर्द्धा, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, वृषपर्वा, अजक, अश्वग्रीव, सूक्ष्म, तुहुंड, एकपद, एकचक्र, विरुपाक्ष, महोदर, निचंद्र, निकुंभ, कुजट, कपट, शरम, शलभ, सूर्य, चंद्र, एकाक्ष, अमृतप, प्रलंब, नरक, वातापि, शठ, गविष्ठ, बनायु, दीर्घजिह्व, द्विमुर्धा, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अरुण, अनुतापन, धूम्रकेश, दुर्जय, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और विप्रचिति आदि 61 महान पुत्रों की प्राप्ति हुई।
 
'वायुपुराण' के अनुसार दनु के कश्यप से 100 पुत्र हुए थे और इन्होंने धरती के आधे हिस्से पर अपना साम्राज्य स्थापित कर दिया था।
 
3.राक्षस : यातुधान, हेति और प्रहेति। विद्युत्केश, सुकेश, माल्यवान, सुमाली, माली। माल्यवान के वज्र, मुष्टि, धिरूपार्श्व, दुर्मख, सप्तवहन, यज्ञकोप, मत्त, उन्मत्त नामक पुत्र और अनला नामक कन्या हुई। सुमाली के प्रहस्त, अकंपन, विकट, कालिकामुख, धूम्राश, दंड, सुपार्श्व, सहादि, प्रधस, भास्कण नामक पुत्र तथा रांका, पुण्डपोत्कटा, कैकसी, कुभीनशी नामक पुत्रियां हुईं। माली के अनल, अनिल, हर और संपात्ति नामक 4 पुत्र हुए। इसके बाद रावण, विभीषण, कुंभकर्ण, मेघनाद आदि हुए।
 
4.पिशाच और पिशाचिनियां : भारत के पश्‍चिमोत्तर सीमांत पर रहने वाली जातियों को पिशाच माना जाता था। महाभारत में इन्हें दरद देश का निवासी माना है। पिशाच देश के योद्धा महाभारत के युद्ध में पांडवों की ओर से लड़े थे। यह क्षेत्र उत्तरी कश्मीर (गिलगित और यासीन का क्षेत्र) और दक्षिणी रूस के सीमांत पर स्थित है। हालांकि इसी नाम से पिशाच और पिशाचिनियां भी होती हैं जिनकी साधनाओं का भी प्रचलन है। कर्ण पिशाचिनी, काम पिशाचिनी आदि का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा सिंहासन बत्तीसी में जो पुतलियां थीं वे सभी पिशाचिनी ही थीं। इन्हें मनुष्य से इतर योनियों का माना जाता है।
 
आधुनिक पशाई कश्मीरी लोग संभवत: इन्हीं के वंशज हैं। इन लोगों में कच्चे मांस के भक्षण करने की प्रथा थी जिसके चलते इन्हें बुरा माना गया। वेदों के अनुसार दैत्य और दानवों का विकृत रूप पिशाच हैं। राक्षसों और मनुष्यों के साथ और पितरों के विरोधी पिशाच को वैताल और प्रेतभक्षक से संबंधित भी किया जाता है।
 
ब्रह्मपुराण के अनुसार पिशाच लोगों को गंधर्व, गुह्मक और राक्षसों के समान ही 'देवयोनिविशेष' कहा गया है। सामर्थ्य की दृष्टि से इन्हें इस क्रम में रखा गया है- गंधर्व, गुह्मक, राक्षस एवं पिशाच। ये चारों लोग विभिन्न प्रकार से मनुष्य जाति को पीड़ा देते हैं। इनकी पूजा करने वाला इनके ही जैसा हो जाता है।
 
5. भूत और प्रेत:- ये कल्‍याणकारी होते हैं तथा अपने कल्‍याण के लिए प्रयत्‍न भी करते रहते हैं। इन्‍हें भूति (ऐश्‍वर्य, विभूति, कल्‍याण) की आकांक्षा होती है। भूत अच्छे भी होते हैं और बुरे भी। भूत-प्रेतों की गति एवं शक्ति अपार होती है। इनकी विभिन्न जातियां होती हैं, जो निम्नलिखित है- भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वेताल और क्षेत्रपाल। आयुर्वेद के अनुसार 18 प्रकार के प्रेत होते हैं। भूत सबसे शुरुआती पद है या कहें कि जब कोई आम व्यक्ति मरता है तो सर्वप्रथम भूत ही बनता है। 
 
6. शाकिनी, डाकिनी, चुड़ैल : इसी तरह जब कोई स्त्री मरती है तो उसे अलग नामों से जाना जाता है। माना गया है कि प्रसुता, स्त्री या नवयुवती मरती है तो चुड़ैल बन जाती है और जब कोई कुंवारी कन्या मरती है तो उसे देवी कहते हैं। जो स्त्री बुरे कर्मों वाली है उसे डायन या डाकिनी करते हैं। इन सभी की उत्पति अपने पापों, व्याभिचार से, अकाल मृत्यु से या श्राद्ध न होने से होती है। ज्यादा शोर, उजाला और मंत्र उच्चारण से यह दूर रहते हैं। इसीलिए इन्हें कृष्ण पक्ष ज्यादा पसंद है और तेरस, चौदस तथा अमावस्या को यह मजबूत स्थिति में रहकर सक्रिय रहते हैं।