• Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. सनातन धर्म
  3. महापुरुष
  4. 10 great historical hindu women
Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

जानिए, 10 महान ऐतिहासिक महिलाएं

जानिए, 10 महान ऐतिहासिक महिलाएं - 10 great historical hindu women
FILE
प्राचीन भारत में महिलाएं काफी उन्नत व सुदृढ़ थीं। समाज में पुत्र का महत्व था, पर पुत्रियों को समान अधिकार और सम्मान मिलता था। मनु ने भी बेटी के लिए संपति में चौथे हिस्से का विधान किया। उपनिषद काल में पुरुषों के साथ ‍स्त्रियों को भी शिक्षित किया जाता था। सहशिक्षा व्यापक रूप से दिखती है, लव-कुश के साथ आत्रेयी पढ़ती थी। नारी भी सैनिक शिक्षा लेती थी। महाभारत काल से नारी का पतन होना शुरू हुआ तो मध्यकाल आते-आते नारी पूरी तरह से पुरुषों की गुलाम, दासी और भोग्या बन गई।

इतिहास में अमिट रहेंगी पांच पत्नियां


हजारों भारतीय महिलाओं ने अपने कर्म, व्यवहार और बलिदान से विश्व में आदर्श प्रस्तुत किया है। प्राचीनकाल से ही भारत में पुरुषों के साथ महिलाओं को भी समान अधिकार और सम्मान मिला है इसीलिए भारतीय संस्कृति और धर्म में नारियों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इन भारतीय महिलाओं ने जहां हिंदू धर्म को प्रभावित किया वहीं इन्होंने संस्कृति, समाज और सभ्यता को नया मोड़ दिया। भारतीय इतिहास में इन महिलाओं के योगदान को कभी भी भूला नहीं जा सकता।

 

आगे पढ़ें, पहली महान महिला...


FILE
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

माता पार्वती : भारतीय महिलाओं में सबसे विराट व्यक्तित्व है मां पार्वती का। दुनियाभर की महिलाओं के लिए वे आदर्श और प्रेरणास्रोत हैं। माता सती ने ही पार्वती के रूप में दूसरा जन्म लिया था। पहले जन्म में वे ब्रह्मा के पुत्र दक्ष की पुत्री थी और उन्होंने भगवान शिव से विवाह किया था। बाद में दक्ष द्वारा शिव के अपमान के चलते उन्होंने यज्ञ में कूदकर आत्मदाह कर लिया था। दूसरे जन्म में उन्होंने हिमालयराज के यहां जन्म लिया और पार्वती कहलाई। पार्वती इसलिए की वह पर्वतराज की राजकुमारी थीं। आज भी वह पर्वतों की रानी है। इस जन्म में भी उन्होंने भगवान शिव से विवाह किया।

माता सती और उनके दूसरे जन्म की गाथा देवी भागवत पुराण में दर्ज है। वे धरती पर ही कश्मीर के क्षे‍त्र में रहती थी। ऋषि कश्यप के साथ मिलकर उन्होंने कई असुरों का वध किया था। आज भी संपूर्ण हिमालय के पर्वत क्षेत्र की वही माता रक्षा करती है। उन्हें पहाड़ों की देवी कहा जाता है।

शिव की पत्नी मां पार्वती का ध्यान करना ही सही मार्ग है। अन्य किसी देवी का ध्यान शाक्त धर्म के विरुद्ध है। वहीं जगदम्बा, उमा, गौरी, कालका और सती हैं। इनके दो पुत्र हैं गणेश और कार्तिकेय तथा एक पुत्री है वनमाला।

मां पार्वती के बारे में विस्तार से जानने के लिए पढ़ें... पार्वती ही है माता।

अगले पन्ने पर, जिनके ज्ञान के कारण सभी ऋषिगण झुकते थे...


ब्रह्मवादिनी वेदज्ञ ऋषि गार्गी : वेदों की ऋचाओं को गढ़ने में भारत की बहुत-सी स्त्रियों का योगदान रहा है उनमें से ही एक है गर्गवंश में वचक्नु नामक महर्षि की पुत्री 'वाचकन्वी गार्गी'। कृष्ण-अर्जुन संवाद से जिस तरह गीता का जन्म हुआ उसी तरह याज्ञवल्क्य-गार्गी के प्रश्न-उत्तरों के कारण 'बृहदारण्यक उपनिषद' की ऋचाओं का निर्माण हुआ। उपनिषद वेदों का एक हिस्सा है जिन्हें वेदांत भी कहते हैं।

साध्वी गार्गी के बारे में विस्तार से जानिए... ब्रह्मवादिनी वेदज्ञ ऋषि गार्गी

ब्रह्मवादिनी वेदज्ञ ऋषि मैत्रेयी : मैत्रेयी मित्र ऋषि की कन्या और महर्षि याज्ञवल्क्य की दूसरी पत्नी थी। महर्षि याज्ञवल्क्य पहली पत्नी भारद्वाज ऋषि की पुत्री कात्यायनी थीं। एक दिन याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ आश्रम छोड़कर वानप्रस्थ जाने का फैसला किया। ऐसे में उन्होंने दोनों पत्नियों के सामने अपनी संपत्ति को बराबर हिस्से में बांटने का प्रस्ताव रखा।

कात्यायनी ने पति का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, लेकिन बेहद शांत स्वभाव की मैत्रेयी की अध्ययन, चिंतन और शास्त्रार्थ में रुचि थी। वे जानती थीं कि धन-संपत्ति से आत्मज्ञान नहीं मिलता। इसलिए उन्होंने पति की संपत्ति लेने से इंकार करते हुए कहा कि मैं भी वन में आपके साथ जाऊंगी और ज्ञान और अमरत्व की खोज करूंगी। इस तरह कात्यायनी को ऋषि की सारी संपत्ति मिल गई और मैत्रेयी अपने पति के साथ जंगल में चली गई। 'वृहदारण्य उपनिषद्' में मैत्रेयी का अपने पति के साथ बड़े रोचक संवाद का उल्लेख मिलता है।

आज हमारे लिए स्त्री शिक्षा बहुत बड़ा मुद्दा है, लेकिन हजारों साल पहले मैत्रेयी ने अपनी विद्वता से न केवल स्त्री जाति का मान बढ़ाया, बल्कि उन्होंने यह भी सच साबित कर दिखाया कि पत्नी धर्म का निर्वाह करते हुए भी स्त्री ज्ञान अर्जित कर सकती है।

विश्ववारा लोप, मुद्रा, घोषा, इन्द्राणी, देवयानी आदि प्रमुख महिलाओं ने भी वेदों की रचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ये सभी ब्रह्मज्ञानी थीं।

अगले पन्ने पर, तीसरी महान महिला...


कौशल्या : भगवान राम की माता कौशल्या बहुत ही सहृदय थीं। अपने पुत्र का वन-गमन उसके लिए सबसे हृदयविदारक घटना थीं। माता कौशल्या ने अपने पुत्र को इस प्रकार संस्कारित किया कि विमाता कैकेयी के कुभावों से भी राम विचलित नहीं हुए और सहर्ष वनवासी होना स्वीकार कर लिया।

परिस्थितिवश कौशल्या जीवनभर दु:खी रहती हैं। अपने वास्तविक अधिकार से वंचित होकर उनका जीवन करुण और दयनीय हो जाता है लेकिन फिर भी वे संयम और सामंजस्यता से पातिव्रत्य, धर्म, साधुसेवा, भगवदाराधना का पालन करती रहीं। कौशल्या की कथा और चरित्र पर कई विद्वानों ने ग्रंथ लिखे हैं। रामायण और रामचरित मानस में उनके व्यक्तित्व का वर्णन विस्तार से मिलता है।

राजा दशरथ की तीन रानियां थीं। कौशल्या ने अन्य दोनों रानियों को कभी सौत नहीं समझा बल्कि उन्होंने दोनों को अपनी छोटी बहन समझकर ही उनसे व्यवहार किया। इस बारे में वे सुमित्रा (लक्ष्मण की माता) से कहती है-

सिथिल सनेहुं कहै कोसिला सुमित्रा जू सौं,
मैं न लखि सौति, सखी! भगिनी ज्यों सेई हैं॥

अगले पन्ने पर चौथी महान महिला...


सीता : राजा जनक की पुत्री का नाम सीता इसलिए था कि वे जनक को हल चलाते वक्त खेत की रेखाभूमि से प्राप्त हुई थीं इसलिए उन्हें भूमिपुत्री भी कहा गया। राजा जनक की पुत्री होने के कारण उन्हें विदैही भी कहा गया। जनक विदैही संस्कृति और धर्म के अनुयायी थे।

राम से विवाह के बाद सीता के जीवन में एक नया मोड़ आया। राम के वनवास काल में सीता का रावण ने हरण कर लिया था। सीता को अशोक वाटिका में रखकर रावण ने साम, दाम, दंड, भेद आदि सभी उपायों से सीता को खुद से विवाह करने के प्रयास किए किंतु सीता ने अपने पारिवारिक आदर्श का परिचय देते हुए केवल श्रीराम का ही ध्यान किया। पति-परायण, पतित भावना, भक्ति भावना, मृदुता, स्नेहमयी, वात्सल्यमयी सीता ने अपने चरि‍त्र से सभी नारियों के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत किया।

लेकिन रावण के पास रहने के कारण सीता को समाज ने नहीं अपनाया। सीता को अग्नि परीक्षा देना पड़ी फिर भी लोगों ने उस पर संदेह किया। लोकापवाद के कारण सीता निर्वासित होती है लेकिन इसके लिए वह अपना उदार हृदय व सहिष्णु चरित्र का परित्याग नहीं करती और न ही पति को दोष देती है। सीता राम-कथा के केंद्र में रहकर केंद्रीय पात्र बनी हैं।

अगले पन्ने पर, पांचवीं महिला...


शबरी : शबरी को श्रीराम के प्रमुख भक्तों में गिना जाता है। शबरी का वास्तविक नाम 'श्रमणा' था। वह भील समुदाय की 'शबरी' जाति से थीं। शबरी के पिता भीलों के राजा थे। शबरी जब विवाह के योग्य हुई तो उसके पिता ने एक दूसरे भील कुमार से उसका विवाह पक्का कर दिया और धूमधाम से विवाह की तैयारी की जाने लगी। विवाह के दिन सैकड़ों बकरे-भैंसे बलिदान के लिए लाए गए।

बकरे-भैंसे देखकर शबरी ने अपने पिता से पूछा- 'ये सब जानवर यहां क्यों लाए गए हैं?' पिता ने कहा- 'तुम्हारे विवाह के उपलक्ष्य में इन सबकी बलि दी जाएगी।'

यह सुनकर बालिका शबरी को अच्छा नहीं लगा और सोचने लगी यह किस प्रकार का विवाह है, जिसमें इतने निर्दोष प्राणियों का वध किया जाएगा। यह तो पाप कर्म है, इससे तो विवाह न करना ही अच्छा है। ऐसा सोचकर वह रात्रि में उठकर जंगल में भाग जाती है।

दंडकारण्य में वह देखती है कि हजारों ऋषि-मुनि तप कर रहे हैं। बालिका शबरी अशिक्षित होने के साथ ही निचली जाति से थी। वह समझ नहीं पा रही थीं कि किस तरह वह इन ऋषि-मुनियों के बीच यहां जंगल में रहें जबकि मुझे तो भजन, ध्यान आदि कुछ भी नहीं आता।

लेकिन शबरी का हृदय पवित्र था और उसमें प्रभु के लिए सच्ची चाह थी, जिसके होने से सभी गुण स्वत: ही आ जाते हैं। वह रात्रि में जल्दी उठकर, जिधर से ऋषि निकलते, उस रास्ते को नदी तक साफ करती, कंकर-पत्थर हटाती ताकि ऋषियों के पैर सुरक्षित रहे। फिर वह जंगल की सूखी लकड़ियां बटोरती और उन्हें ऋषियों के यज्ञ स्थल पर रख देती।

इन सब कार्यों को वह इतनी तत्परता से छिपकर करती कि कोई ऋषि देख न ले। यह कार्य वह कई वर्षों तक करती रही। अंत में मतंग ऋषि ने उस पर कृपा की।

जब मतंग ऋषि मृत्यु शैया पर थे तब उनके वियोग से ही शबरी व्याकुल हो गई। महर्षि ने उसे निकट बुलाकर समझाया- 'बेटी! धैर्य से कष्ट सहन करती हुई साधना में लगी रहना। प्रभु राम एक दिन तेरी कुटिया में अवश्य आएंगे। प्रभु की दृष्टि में कोई दीन-हीन और अस्पृश्य नहीं है। वे तो भाव के भूखे हैं और अंतर की प्रीति पर रीझते हैं।'

महर्षि की मृत्यु के बाद शबरी अकेली ही अपनी कुटिया में रहती और प्रभु राम का स्मरण करती रहती थी। राम के आने की बांट जोहती शबरी प्रतिदिन कुटिया को इस तरह साफ करती थीं कि आज राम आएंगे। साथ ही रोज ताजे फल लाकर रखती कि प्रभु राम आएंगे तो उन्हें मैं यह फल खिलाऊंगी।

वृद्धावस्था में एक दिन राम आए तो उसकी आंखों से अश्रुओं की धारा निकलने लगी। उसने श्रीराम के चरण धोकर उन्हें आसन पर बिठाया। फलों का पात्र उनके सामने रखकर वह बोली- 'प्रभु! मैं आपको अपने हाथों से फल खिलाऊंगी, खाओगे ना भीलनी के हाथों के फल?

श्रीराम ने कहा- 'माँ! मैं तो बस भक्ति से ही नाता रखता हूं। जाति-पाति, कुल, धर्म सब मेरे सामने गौण हैं। मुझे भूख लग रही है, जल्दी से मुझे कुछ फल खिलाकर तृप्त कर दो।'

शबरी एक-एक फल को चखकर फल खिलाती जाती थी और श्रीराम बार-बार मांगकर खाते जाते थे।

अंत में शबरी ने श्रीराम से कहा- भगवन् आप सीता की खोज में जा रहे हैं तो सुग्रीव से मित्रता करना न भूलना। शबरी तपस्विनी और योगिनी थीं। शबरी को श्रीराम के आशीर्वाद से मोक्ष मिला।

अगले पन्ने पर, छठी महिला...


गांधारी : गांधार देश के सुबल नामक राजा की कन्या होने के कारण धृतराष्ट्र की पत्नी को गांधारी कहा जाता था। गांधारी ने जब सुना कि उसका भावी पति अंधा है तो उसने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली जिससे कि पतिव्रत धर्म का पालन कर पाए। यह पट्टी उसने आजन्म बांधे रखी। गांधारी पतिव्रता के रूप में आदर्श थीं।

शिव के वरदान से गांधारी के 100 पुत्र हुए, जो कौरव कहलाए। गांधारी दुर्योधन आदि की माता थी। महाभारत युद्ध के बाद गांधारी अपने पति के साथ वन में गई और वहां दावाग्नि में पति के साथ भस्म हो गईं।

महाभारत युद्ध में अपने सभी पुत्रों की मृत्य से गांधारी द्रवित हो उठी। वह अपने सभी पुत्रों के शव के पास बैठकर विलाप करती रही और उसने श्रीकृष्ण से कहा- 'मेरे पतिव्रत में बल है तो शाप देती हूं कि यादव वंशी समस्त लोग परस्पर लड़कर मर जाएंगे। तुम्हारा वंश नष्ट हो जाएगा, तुम अकेले जंगल में अशोभनीय मृत्यु प्राप्त करोगे, क्योंकि कौरव-पांडवों का युद्ध रोक लेने में एकमात्र तुम ही समर्थ थे और तुमने उन्हें रोका नहीं। तुम्हारे देखते-देखते कुरु वंश का नाश हो गया।'

गांधारी पतिव्रता थी और उसका शाप फलित हुआ।

अगले पन्ने पर सातवीं महिला...


कुंती-माद्री : एक और गांधारी थी जिसके 100 पुत्रों के पालन-पोषण में राजपाट लगा था तो दूसरी ओर कुंती थी, जो अकेली ही अपने 5 पुत्रों का लालन-पालन कर रही थी। कुंती ने अपने पुत्रों को जो संस्कार और शिक्षा दी वह उल्लेखनीय और प्रशंसनीय है।

कुंती श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की बहन थीं। महाराज कुंतीभोज से इनके पिता की मित्रता थी, उसके कोई संतान नहीं थी, अत: ये कुंतीभोज के यहां गोद आईं और उन्हीं की पुत्री होने के कारण इनका नाम कुंती पड़ा। धृतराष्ट्र के भाई महाराज पाण्डु के साथ कुंती का विवाह हुआ, वे राजपाट छोड़कर वन चले गए।

वन में ही कुंती को धर्म, इंद्र, पवन के अंश से युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम पुत्रों का जन्म हुआ। दूसरी ओर कुंती की सौत माद्री को अश्वनीकुमारों के अंश से नकुल, सहदेव का जन्म हुआ। महाराज पाण्डु का देहांत होने पर माद्री ने भी अपनी देह छोड़ दी, लेकिन कुंती के समक्ष पांचों बच्चो के पालन-पोषण की जिम्मेदारी आ गई। बच्चों की खातिर कुंती ने बहुत दुख सहे और उन्होंने कभी भी पांचों बच्चों में कोई भेदभाव नहीं किया। पांचों को समान प्यार-दुलार मिला।

ऋषिगण विधवा कुंती समेत पांचों बालकों समेत उनके हस्तिनापुर में उनके परिवारवालों को सौंपने ले गए, तो कुंती का स्वागत तो हुआ नहीं, उल्टा उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा गया। उनकी संतान को वैध मानने ने इंकार कर दिया। ऋषिगणों के अनुरोध पर बड़ी मुश्किल से उनको रखा गया लेकिन फिर उन्हें तरह-तरह से सताया जाने लगा।

दुर्योधन की साजिश के तहत कुंती को अपने पांचों पुत्रों के साथ वारणावत भेजा गया। वारणावत में ऐसा भवन था, जो लाख (लाक्षागृह) से बना था और जो किसी भी समय भभककर भस्म हो जाता, लेकिन विदुर को इस साजिश का पता था। हितैषी विदुर के कारण कुंती अपने पुत्रों समेत बचकर निकल गईं। इसके बाद जंगल में उन्होंने बहुत कष्ट सहे। इसी दौरान उनको पुत्रवधू द्रौपदी की प्राप्ति हुई। इससे उन्हें कुछ संतोष हुआ। फिर एक दिन सभी को धृतराष्ट्र ने हस्तिनापुर में बुलाकर अलग रहने का प्रबंध कर दिया ताकि कोई झगड़ा न हो। यहां कुंती ने कुछ समय आराम से गुजारे।

अगले पन्ने पर आठवीं महिला...


द्रौपदी : द्रौपदी का जन्म महाराज द्रुपद के यहां होने से तथा द्रुपद पुत्री होने के कारण उन्हें द्रौपदी कहा जाता था। द्रौपदी को यज्ञसेनी इसलिए कहा जाता है कि मान्यता अनुसार उनका जन्म यज्ञकुण्ड से हुआ था। उन्हें पांचाली भी कहा जाता था, क्योंकि उनके पिता पांचाल देश के नरेश थे। उनका एक नाम कृष्णा भी था। द्रौपदी के भाई थे धृष्टद्युम्न जिन्होंने महाभारत के युद्ध में गुरु द्रोण का सिर काट दिया था।

द्रौपदी के स्वयंवर में महाराज द्रुपद ने शर्त रखी कि कि निरंतर घूमते हुए यंत्र के छिद्र में से जो भी वीर एक विशेष धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर दिए गए पांच बाणों से, छिद्र के ऊपर लगे, लक्ष्य को भेद देगा, उसी के साथ द्रौपदी का विवाह कर दिया जाएगा।

द्रौपदी के स्वयंवर में कर्ण और कौरव सहित देश-विदेश के आदि राजा पहुंचे। ब्राह्मण वेश में पांडव भी स्वयंवर-स्थल पर पहुंचे। कर्ण ने धनुष पर बाण चढ़ा तो लिया किंतु द्रौपदी ने सूत-पुत्र से विवाह करने इंकार कर दिया, तब कर्ण को प्रतियोगिता से बाहर कर दिया गया। कौरव आदि अनेक राजा तथा राजकुमार तो धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा ही नहीं सके और भूमि पर गिर पड़े। तब ब्राह्मण वेश में अर्जुन ने पहुंचकर प्रत्यंचा चढ़ाई और लक्ष्य को भेद दिया लेकिन कौरवों सहित अन्य राजाओं ने इस बात पर आपत्ति जताई की ब्राह्मण को राजकन्या क्यों दी गई। इस दौरान कृष्ण भी उपस्थित थे, जो जानते थे कि ब्राह्मण वेश में कौन है तो उनकी नीति से समारोह में शांति बनी और कुंती ने अर्जुन को वरमाला पहनाई।

अर्जुन सहित पांडव द्रौपदी को लेकर कुंती के पास पहुंचे। उन्होंने द्वार पर ही खड़े होकर माता कुंती को पुकारा और कहा कि माते हम आपके लिए भिक्षा लाए हैं। उनके यह कहने पर कि वे लोग भिक्षा लाए हैं, उन्हें बिना देखे ही कुंती ने कुटिया के अंदर से कहा कि सभी मिलकर उसे ग्रहण करो। पांचों हैरान रह गए। लेकिन मां कुंती के मुंह से निकला वचन उनके लिए दुविधा का विषय बन गया। पुत्रवधू को देखकर अपने वचनों को सत्य रखने के लिए कुंती ने पांचों पांडवों को द्रौपदी से विवाह करने के लिए कहा।

द्रौपदी के जीवन की कथा यहीं से शुरू होती है, जो इतिहास में आज तक चर्चित है। द्रौपदी ने पांडवों के साथ रहकर पांडवों की हर कदम पर मदद की।

द्रौपदी के पुत्र : द्रौपदी को युवराज युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक और सहदेव से श्रुतवर्मा नामक पुत्र थे।

अश्वत्थामा की मणि : द्रौपदी के कारण ही पांडवों को अश्वत्थामा के मस्तक की मणि लाना पड़ी थी। वह मणि जो अस्वत्थामा की शक्ति का केंद्र थी। वह मणि समस्त राज्य से अधिक मूल्यवान तथा शस्त्र, क्षुधा, देवता, दानव, नाग, व्याधि आदि से रक्षा करने वाली थी।

दुर्योधन का अपमान : कहा जाता है कि द्रौपदी के कारण ही महाभारत युद्ध हुआ। क्यों? क्योंकि पांडवों द्वारा बनवाए गए मायानिर्मित सभाभवन में विभिन्न वैचित्र्यता थी। दुर्योधन जब वहां घूम रहा था तब उसको अनेक बार स्थल पर जल की, जल पर स्थल की, दीवार में द्वार की और द्वार में दीवार की भ्रांति हुई। कहीं वह सीढ़ी में समतल की भ्रांति होने के कारण गिर गया और कहीं पानी को स्थल समझ पानी में भीग गया। उसकी इस स्थिति को देखकर युधिष्ठिर को छोड़कर द्रौपदी सहित अन्य पांडव हंसने लगे। कहा यह भी जाता है कि द्रौपदी ने उन्हें 'अंधे का बेटा अंधा' कहा था। दुर्योधन अपना यह अपमान सह नहीं पाए और द्रौपदी को सजा देने की योजनाएं बनाने लगा।

द्रौपदी चीरहरण : अत: हस्तिनापुर जाते हुए उसने मामा शकुनि के साथ पांडवों को द्यूतक्रीड़ा में हराकर उनका वैभव चूर करने की एक युक्ति सोची। दुर्योधन का मामा शकुनि द्यूतक्रीड़ा में निपुण था। दोनों ने मिलकर धृतराष्ट्र को द्यूतक्रीड़ा का आयोजन करने के लिए मना लिया और फिर विदुर के हाथों पांडवों को निमंत्रण भेजा। युधिष्ठिर ने चुनौती स्वीकार कर ली तथा द्यूतक्रीड़ा में वे व्यक्तिगत समस्त दांव हारने के बाद भाइयों को, स्वयं अपने को तथा अंत में द्रौपदी को भी हार बैठे।

दुर्योंधन ने क्रुद्ध होकर दु:शासन (भाई) से कहा कि वह द्रौपदी को सभाभवन में लेकर आए। द्रौपदी ने उससे (दुर्योधन से) प्रश्न किया कि धर्मपुत्र (युधिष्ठिर) ने पहले कौन-सा दांव हारा है- स्वयं अपना अथवा द्रौपदी का।

तब दु:शासन ने द्रौपदी के बाल खींचकर कहा- 'हमने तुझे जुए में जीता है अत: तुझे अपनी दासियों में रखेंगे।' कर्ण के उकसाने से दु:शासन ने द्रौपदी को निर्वस्त्र करने की चेष्टा की। द्रौपदी ने विकट विपत्ति जानकर श्रीकृष्ण का स्मरण किया। श्रीकृष्ण की लीला से द्रौपदी का वस्त्र लम्बाता गया और द्रौपदी के सम्मान की रक्षा हुई।

द्रौपदी इतिहास में अकेली ऐसे महिला है जिसने सबसे ज्यादा सहा। द्रौपदी के जीवन पर सैकड़ों ग्रंथ लिखे गए और उनके चरित्र की पवित्रता को उजागर किया गया।

अगले पन्ने पर नौवीं महिला...


देवकी-यशोदा : भगवान कृष्ण की माता देवकी ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष जेल में ही बिता दिए और कृष्ण को जिस माता ने पाला उनका नाम था यशोदा। इतिहास में देवकी की कम लेकिन यशोदा की चर्चा ज्यादा होती है, क्योंकि उन्होंने ही कृष्ण को बेटा समझकर पाल-पोसकर बड़ा किया और एक आदर्श मां बनकर इतिहास में अजर-अमर हो गई। माता पार्वती और माता यशोदा जैसी मां को ढूंढना मुश्किल है।

कंस से रक्षा करने के लिए जब वासुदेव (कृष्ण के पिता) जन्म के बाद आधी रात में ही कृष्ण को यशोदा के घर गोकुल में छोड़ आए तो उनका पालन-पोषण यशोदा ने किया। यशोदा नंद की पत्नी थीं। महाभारत और भागवत पुराण में बालक कृष्ण की लीलाओं के अनेक वर्णन मिलते हैं जिनमें यशोदा को ब्रह्मांड के दर्शन, माखन चोरी और उनको यशोदा द्वारा ओखल से बांध देने की घटनाओं का प्रमुखता से वर्णन किया जाता है। यशोदा ने बलराम के पालन-पोषण की भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो रोहिणी के पुत्र और सुभद्रा के भाई थे। उनकी एक पुत्री का भी वर्णन मिलता है जिसका नाम एकांगा था।

ब्रजमंडल में सुमुख नामक गोप की पत्नी पाटला के गर्भ से यशोदा का जन्म हुआ। उनका विवाह गोकुल के प्रसिद्ध व्यक्ति नंद से हुआ। भगवान श्रीकृष्ण ने माखन लीला, ऊखल बंधन, कालिया उद्धार, पूतना वध, गोचारण, धेनुक वध, दावाग्नि पान, गोवर्धन धारण, रासलीला आदि अनेक लीलाओं से यशोदा मैया को अपार सुख दिया। इस प्रकार 11 वर्ष 6 महीने तक माता यशोदा के महल में कृष्ण की लीलाएं चलती रहीं। इसके बाद कृष्ण को मथुरा ले जाने के लिए अक्रूरजी आ गए। यह घटना यशोदा के लिए बहुत ही दुखद रही। यशोदा विक्षिप्त-सी हो गईं क्योंकि उनका पुत्र उन्हें छोड़कर जा रहा था।

दूसरे के पुत्र को अपने कलेजे के टुकड़े जैसा प्यार और दुलार देकर यशोदा ने एक आदर्श चरित्र का उदाहरण प्रस्तुत किया। यशोदा का जीवन सिर्फ इतना ही नहीं है। धार्मिक ग्रंथों में उनके जीवन से जुड़ी कई घटनाएं और उनके पूर्व जन्म की कथाएं भी मिलती हैं।

अगले पन्ने पर पढ़ें, दसवीं महिला...


अरुंधति : अरुंधति महान तपस्विनी थी। अरुंधति ऋषि वशिष्ठ की पत्नी थी। आज भी अरुंधति सप्तर्षि मंडल में स्थित वशिष्ठ के पास ही दिखाई देती हैं।

अरुंधति भारत की महान महिलाओं में से एक है। भारत में नवविवाहित लड़कियां आकाश में अरुंधति को देखकर उनकी तरह आदर्श पत्नी बनने की कामना करती हैं। आकाश में एक तारा है जिसका हमारे प्राचीन वैज्ञानिकों ने नाम अरुंधति रखा है।

अरुंधति के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें... सप्तर्षि मंडल में अरुंधति