शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. सनातन धर्म
  3. इतिहास
  4. vishnu varah avatar
Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

वराह नाम से विष्णु के तीन अवतार थे, जानिए रहस्य

वराह नाम से विष्णु के तीन अवतार थे, जानिए रहस्य | vishnu varah avatar
आपने भगवान विष्णु के वराह अवतार का नाम तो सुना ही होगा जिन्होंने हिरण्याक्ष का वध किया था। लेकिन वे दरअसल आदि वराह थे। आदि वराह से पहले नील वराह और उनके बाद श्वेत वराह हुए जिनके बारे में कम ही लोग जानते होंगे। तीनों के काल को मिलाकर वराह काल कहा गया जो वर्तमान में भी जारी है। नील वराह का अवतरण हिमयुग के अंतिम चरण में जब हुआ जब धरती पर जल ही जल फैलने लगा था और रहने के लिए कोई जगह नहीं बची थी।
1. नील वराह काल : पाद्मकल्प के अंत के बाद महाप्रलय हुई। सूर्य के भीषण ताप के चलते धरती के सभी वन-जंगल आदि सूख गए। समुद्र का जल भी जल गया। ज्वालामुखी फूट पड़े। सघन ताप के कारण सूखा हुआ जल वाष्प बनकर आकाश में मेघों के रूप में स्थिर होता गया। अंत में न रुकने वाली जलप्रलय का सिलसिला शुरू हुआ। चक्रवात उठने लगे और देखते ही देखते समस्त धरती जल में डूब गई।
 
यह देख ब्रह्मा को चिंता होने लगी, तब उन्होंने जल में निवास करने वाले विष्णु का स्मरण किया और फिर विष्णु ने नील वराह रूप में प्रकट होकर इस धरती के कुछ हिस्से को जल से मुक्त किया।
 
पुराणकार कहते हैं कि इस काल में महामानव नील वराह देव ने अपनी पत्नी नयनादेवी के साथ अपनी संपूर्ण वराही सेना को प्रकट किया और धरती को जल से बचाने के लिए तीक्ष्ण दरातों, पाद प्रहारों, फावड़ों और कुदालियों और गैतियों द्वारा धरती को समतल कर रहने लायक बनाया। इसके लिए उन्होंने पर्वतों का छेदन तथा गर्तों के पूरण हेतु मृत्तिका के टीलों को जल में डालकर भूमि को बड़े श्रम के साथ समतल करने का प्रयास किया।
 
यह एक प्रकार का यज्ञ ही था इसलिए नील वराह को यज्ञ वराह भी कहा गया। नील वराह के इस कार्य को आकाश के सभी देवदूत देख रहे थे। प्रलयकाल का जल उतर जाने के बाद भगवान के प्रयत्नों से अनेक सुगंधित वन और पुष्कर-पुष्करिणी सरोवर निर्मित हुए, वृक्ष, लताएं उग आईं और धरती पर फिर से हरियाली छा गई। संभवत: इसी काल में मधु और कैटभ का वध किया गया था।
 
अगले पन्ने पर जानिए आदि वराह के बारे में...

आदि वराह : नील वराह कल्प के बाद आदि वराह कल्प शुरू हुआ। इस कल्प में भगवान विष्णु ने आदि वराह नाम से अवतार लिया। यह वह काल था जबकि दिति और कश्यप के दो भयानक असुर पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष का आतंक था। दोनों को ही ब्रह्माजी से वरदान मिला हुआ था। इस काल में हिमयुग समाप्ति की ओर चल रहा था।
ऋषि कश्यप की सृष्टि में अर्थात उनके कुल के विस्तार के समय भगवान विष्णु ने आदि वराह का अवतार लिया। आदि वराह को कपिल वराह भी कहा गया है। वराह इसलिए कि उन्होंने वराह जाति में ही जन्म लिया था। उस काल में वराह अर्थात वन में रहने वाली जाति होती थी। शोधकर्ताओं के अनुसार कश्यप का क्षेत्र कैस्पियन सागर के पास से कश्मीर तक था। भगवान आदि वराह ने नील वराह के कार्य को ही आगे बढ़ाया था।
 
हिरण्याक्ष का वध : ऋषि कश्यप का पुत्र हिरण्याक्ष का दक्षिण भारत पर राज था। ब्रह्मा से युद्ध में अजेय और अमरता का वर मिलने के कारण उसका धरती पर आतंक हो चला था। हिरण्याक्ष भगवान वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया था और वह उनके धरती निर्माण के कार्य की खिल्ली उड़ाकर उनको युद्ध के लिए ललकारता था। वराह भगवान न जब रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया, तब
उनका ध्यान हिरण्याक्ष पर गया।
 
आदि वराह के साथ भी महाप्रबल वराह सेना थी। उन्होंने अपनी सेना को लेकर हिरण्याक्ष के क्षेत्र पर चढ़ाई कर दी और विन्ध्यगिरि के पाद प्रसूत जल समुद्र को पार कर उन्होंने हिरण्याक्ष के नगर को घेर लिया। संगमनेर में महासंग्राम हुआ और अंतत: हिरण्याक्ष का अंत हुआ। आज भी दक्षिण भारत में हिंगोली, हिंगनघाट, हींगना नदी तथा हिरण्याक्षगण हैंगड़े नामों से कई स्थान हैं।
 
हिरण्याक्ष के वध के बाद भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकश्यप का वध किया था। वराह देव ने दक्षिण के महाराष्ट्र प्रदेश में अपने नाम से एक पुरी भी बसाई जिसमें हिरण्याक्ष के बचे-खुचे दुष्ट असुरों को नियंत्रित रखने के लिए अपनी सेना का एक अंग भी यहां छोड़ दिया। यह पुरी आज वहां बारामती कराड़ के नाम से प्रसिद्ध है। वराह देव कोटि का वर्णन वेदों में भी उपलब्ध है। ऋग्वेद में वराह द्वारा चोरी गई हुई पृथ्वी का उद्वार तथा विन्ध्या पर्वत को पार करने का का वर्णन है।
 
भगवती दुर्गा के रणसंग्राम में अपनी विशाल देव सेनाओं वराही सेना और नारसिंही सेना लेकर उनका स्वयं संचालन करते हुए विजयश्री से विभूषित हुई थीं। वराही नारसिंही च भीम भैरव नादिनी कहकर दुर्गाम्बा के रण में इन्हें याद किया गया है।
 
अगले पन्ने पर जानिए श्‍वेत वराह के बारे में...

श्वेत वराह : भगवान श्वेत वराह का युद्ध राजा विमति से हुआ था। इतिहास की दृष्टि से यह घटना अतिमहत्वपूर्ण है। द्रविड़ देश में सुमति नाम का राजा था। वह अपने पुत्रों को राज्य देकर तीर्थयात्रा को निकला। तीर्थयात्रा के भ्रमण में मार्ग में ही कहीं उसकी मृत्यु हो गई, तब एक दिन महर्षि नारद ने सुमति के पुत्र विमति को जाकर भड़काया कहा- 'पिता का ऋण उतारे वही पुत्र है।'
 
विमति ने मंत्रियों से पूछा कि पिता का ऋण कैसे उतरे? मंत्रियों ने कहा- 'राजन् आपके पिताजी को तीर्थों ने मारा है, सो तीर्थों को बदलें।' राजा ने कहा- 'तीर्थ तो अगणित हैं।' तब एक मंत्री ने कहा- 'जो सब तीर्थों की प्रमुख नगरी है, उसी को नष्ट कर दिया जाए।'
 
दक्षिण देश के इस शक्तिशाली राजा ने तब निर्णय किया और उसके निर्णय से उत्तर भारत की तीर्थ नगरी के लोगों में भय व्याप्त हो गया। तब वहां के लोगों ने सलाह-मशविरा करके उत्तरी ध्रुव के बर्फीले इलाके की ओर प्रस्थान किया। वहां के क्षेत्र को उस काल में स्वर्ग या देवलोक कहा जाता था। वहां श्वेतद्वीप पर उनके दर्शन वहां के देवता श्वेत वराह से हुए। श्वेत वराह ने उन विष्णु भक्त प्रजा को अभयदान दिया और विमति से युद्ध कर सैन्य सहित राजा विमति को पराजित किया।
 
पुराणों की वंशावली के अनुसार सुमति जैन संप्रदाय के सुमतिनाथ तीर्थकर हैं और वे योगेश्वर ऋषभदेव के पौत्र तथा भरत के पुत्र हैं। उनका समय शोधित काल गणना से 8,118 वि.पू. है। उल्लेखनीय है कि भगवान नारायण ने अपने भक्त ध्रुव को उत्तर ध्रुव का एक क्षेत्र दिया था। यहीं पर शिव पुत्र स्कंद का एक देश था और यहीं पर नारद मुनि भी रहते थे। उत्तर ध्रुव में कुछ कुरु भी रहते थे और यहीं पर श्वेत वराह
नाम की जाति भी रहती थी।
 
संदर्भ : ऋग्वेद, वायु पुराण, वराह पुराण और माथुर
चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास (लेखक, श्री बालमुकुंद चतुर्वेदी)।
ये भी पढ़ें
नवदुर्गा के नौ स्वरूप पूजने से मिलते हैं विविध फल