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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

भारतीय पौराणिक इतिहास के पांच 'पितृभक्त पुत्र'

भारतीय पौराणिक इतिहास के पांच 'पितृभक्त पुत्र' - Obedient son of Legendary
पिता और पुत्र के संबंध कैसे हों और पुत्र के प्रति पिता की जिम्मेदारी एवं पुत्र के मन में पितृ ऋण चुकता करने का ज्ञान यह सभी पुराणों में अच्छे से उदारहरण सहित समझाया गया है।
उस पिता का जीवन कष्टमय ही गुजरता है जिसका पुत्र उसकी आज्ञा का उल्लंघन करता हो और उस पिता का जीवन तो नर्क समान है जिसकी पत्नी भी पुत्र के समान हो और दोनों ही मिलकर पिता को अकेला कर देते हों। प्रस्तुत है पिता-पुत्र से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारियां...
 
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पितृ और मातृभक्त गणेश : विश्व इतिहास में सर्वप्रथम मातृ और पितृभक्त के रूप में भगवान गणेश का उल्लेक मिलता है। इस बात का उल्लेख शिवपुराण में मिलता है। एक बार माता की आज्ञा से गणेश द्वार पर शिव को रोक लेते हैं। कुपित होकर शिव उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं। जब पार्वती को पता चलता है तो वे दुख से बेहाल हो जाती हैं और बालक के जन्म की बात बताते हुए अपने पति से उसे पुनः जीवित करने को कहती हैं।
तब शिव हाथी के बच्चे का सिर बालक के धड़ पर रखकर उसे जीवित कर देते हैं और उसे गणेश नाम देते हुए अपने समस्त गणों में अग्रणी घोषित करते हैं। साथ ही कहते हैं कि गणेश समस्त देवताओं में प्रथम पूज्य होंगे।
 
एक बार जब सभी देवताओं में धरती की परिक्रमा की प्रतियोगिता होती है तो कार्तिकेय और गणेश भी इस प्रतियोगीता में हिस्सा लेते हैं। कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर चढ़कर पृथ्वी की परिक्रमा करने चल पड़े। गणेशजी ने सोचा अपने वाहन चूहे पर बैठकर पृथ्वी परिक्रमा पूरी करने में बहुत समय लग जाएगा। इसलिए गणेश ने अपने माता-पिता की सात बार परिक्रमा की और कार्तिकेय के आने की प्रतीक्षा करने लगे। कार्तिकेय ने लौटने पर अपने पिता से कहा- गणेश तो पृथ्वी की परिक्रमा करने गया ही नहीं। इस पर गणेश बोले- मैंने तो अपने माता-पिता की सात बार परिक्रमा की है। माता-पिता में ही समस्त तीर्थ है। तब शंकर ने गणेश को आर्शीवाद दिया कि समस्त देवताओं में सर्वप्रथम तुम्हारी पूजा होगी।
 
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पितृभक्त नचिकेता : नचिकेता एक पितृभक्त बालक था। जब उनके पिता वाजश्रवस विश्वजीत यज्ञ के बाद बूढ़ी एवं बीमार गायों को दान कर रहे थे तो यह देखकर नचिकेता को बहुत ग्लानी हुई। अर्थात जो उनके काम की गायें नहीं थी उसे वे दान कर रहे थे। तब नचिकेता ने अपने पिता से पूछा कि आप मुझे दान में किसे देंगे? 
तब नचिकेता के पिता क्रोध से भरकर बोले कि मैं तुम्हें यमराज को दान में दूंगा। चूंकि ये शब्द यज्ञ के समय कहे गए थे, अतः नचिकेता को यमराज के पास जाना ही पड़ा। यमराज अपने महल से बाहर थे, इस कारण नचिकेता ने तीन दिन एवं तीन रातों तक यमराज के महल के बाहर प्रतीक्षा की।
 
तीन दिन बाद जब यमराज आए तो उन्होंने इस धीरज भरी प्रतीक्षा से प्रसन्न होकर नचिकेता से तीन वरदान मांगने को कहा। नचिकेता ने पहले वरदान में कहा कि जब वह घर वापस पहुंचे तो उसके पिता उसे स्वीकार करें एवं उसके पिता का क्रोध शांत हो। दूसरे वरदान में नचिकेता ने जानना चाहा कि क्या देवी-देवता स्वर्ग में अजर एवं अमर रहते हैं और निर्भय होकर विचरण करते हैं! तब यमराज ने नचिकेता को अग्नि ज्ञान दिया, जिसे नचिकेताग्नि भी कहते हैं।
 
तीसरे वरदान में नचिकेता ने पूछा कि 'हे यमराज, सुना है कि आत्मा अजर-अमर है। मृत्यु एवं जीवन का चक्र चलता रहता है। लेकिन आत्मा न कभी जन्म लेती है और न ही कभी मरती है।' नचिकेता ने पूछा कि इस मृत्यु एवं जन्म का रहस्य क्या है?
 
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श्रवण कुमार : जब भी मातृ-पितृभक्ति की बात होती है तो सबसे पहले श्रवण कुमार का ही नाम याद आता है। श्रवण कुमार का नाम इतिहास में मातृभक्ति और पितृभक्ति के लिए अमर रहेगा। श्रवण कुमार की कहानी उस समय की है जब महाराज दशरथ अयोध्या पर राज किया करते थे।
 
श्रवण के माता-पिता अंधे थे। श्रवण अपने माता-पिता को बहुत प्यार करता। उसकी मां ने बहुत कष्ट उठाकर श्रवण को पाला था। जैसे-जैसे श्रवण बड़ा होता गया, अपने माता-पिता के कामों में अधिक से अधिक मदद करता।
 
सुबह उठकर श्रवण माता-पिता के लिए नदी से पानी भरकर लाता। जंगल से लकड़ियां लाता। चूल्हा जलाकर खाना बनाता। मां उसे मना करतीं- 'बेटा श्रवण, तू हमारे लिए इतनी मेहनत क्यों करता है? भोजन तो मैं बना सकती हूं। इतना काम करके तू थक जाएगा।' 'नहीं मां, तुम्हारे और पिताजी का काम करने में मुझे जरा भी थकान नहीं होती। मुझे आनंद मिलता है। तुम देख नहीं सकतीं। रोटी बनाते हुए, तुम्हारे हाथ जल जाएंगे।'
 
'हे भगवान! हमारे श्रवण जैसा बेटा हर मां-बाप को मिले। उसे हमारा कितना खयाल है।' माता-पिता श्रवण को आशीर्वाद देते न थकते। श्रवण के माता-पिता रोज भगवान की पूजा करते। श्रवण उनकी पूजा के लिए फूल लाता, बैठने के लिए आसन बिछाता। माता-पिता के साथ श्रवण भी पूजा करता। मता-पिता की सेवा करता श्रवण बड़ा होता गया। घर के काम पूरे कर, श्रवण बाहर काम करने जाता। अब उसके माता-पिता को काम नहीं करना होता।
 
एक दिन श्रवण के माता-पिता ने कहा- 'बेटा, तुमने हमारी सारी इच्छाएं पूरी की हैं। अब एक इच्छा बाकी रह गई है।' 'कौन-सी इच्छा मां? क्या चाहते हैं पिता जी? आप आज्ञा दीजिए। प्राण रहते आपकी इच्छा पूरी करूंगा।'
 
'हमारी उमर हो गई अब हम भगवान के भजन के लिए तीर्थ यात्रा पर जाना चाहते हैं बेटा। शायद भगवान के चरणों में हमें शांति मिले।' श्रवण सोच में पड़ गया। उन दिनों आज की तरह बस या रेलगाड़ियां नहीं थी। वे लोग ज्यादा चल भी नहीं सकते थे। माता-पिता की इच्छा कैसे पूरी करूं, यह बात सोचते-सोचते श्रवण को एक उपाय सूझ गया।
 
श्रवण ने दो बड़ी-बड़ी टोकरियां लीं। उन्हें एक मजबूत लाठी के दोनों सिरों पर रस्सी से बांधकर लटका दिया। इस तरह एक बड़ा कांवर बन गया। फिर उसने माता-पिता को गोद में उठाकर एक-एक टोकरी में बिठा दिया। लाठी कंधे पर टांगकर श्रवण माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने चल पड़ा।
 
श्रवण एक-एक कर उन्हें कई तीर्थ स्थानों पर ले जाता है। वे लोग गया, काशी, प्रयाग सब जगह गए। माता-पिता देख नहीं सकते थे इसलिए श्रवण उन्हें तीर्थ के बारे में सारी बातें सुनाता। माता-पिता बहुत प्रसन्न थे। एक दिन मां ने कहा- 'बेटा श्रवण, हम अंधों के लिए तुम आंखें बन गए हो। तुम्हारे मुंह से तीर्थ के बारे में सुनकर हमें लगता है, हमने अपनी आंखों से भगवान को देख लिया है।'
 
'हां बेटा, तुम्हारे जैसा बेटा पाकर, हमारा जीवन धन्य हुआ। हमारा बोझ उठाते तुम थक जाते हो, पर कभी उफ नहीं करते।' पिता ने भी श्रवण को आशीर्वाद दिया। 'ऐसा न कहें पिताजी, माता-पिता बच्चों पर कभी बोझ नहीं होते। यह तो मेरा कर्तव्य है। आप मेरी चिंता न करें।'
 
एक दोपहर श्रवण और उसके माता-पिता अयोध्या के पास एक जंगल में विश्राम कर रहे थे। मां को प्यास लगी। उन्होंने श्रवण से कहा- बेटा, क्या यहां आसपास पानी मिलेगा? धूप के कारण प्यास लग रही है। 'हां, मां। पास ही नदी बह रही है। मैं जल लेकर आता हूं।' श्रवण कमंडल लेकर पानी लाने चला गया।
 
अयोध्या के राजा दशरथ को शिकार खेलने का शौक था। वे भी जंगल में शिकार खेलने आए हुए थे। श्रवण ने जल भरने के लिए कमंडल को पानी में डुबोया। बर्तन में पानी भरने की अवाज सुनकर राजा दशरथ को लगा कोई जानवर पानी पानी पीने आया है। राजा दशरथ आवाज सुनकर, अचूक निशाना लगा सकते थे। आवाज के आधार पर उन्होंने तीर मारा। तीर सीधा श्रवण के सीने में जा लगा। श्रवण के मुंह से ‘आह’ निकल गई।
 
राजा जब शिकार को लेने पहुंचे तो उन्हें अपनी भूल मालूम हुई। अनजाने में उनसे इतना बड़ा अपराध हो गया। उन्होंने श्रवण से क्षमा मांगी। 'मुझे क्षमा करना ए भाई। अनजाने में अपराध कर बैठा। बताइए मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?'
 
'राजन्, जंगल में मेरे माता-पिता प्यासे बैठे हैं। आप जल ले जाकर उनकी प्यास बुझा दीजिए। मेरे विषय में उन्हें कुछ न बताइएगा। यही मेरी विनती है।' इतना कहते-कहते श्रवण ने प्राण त्याग दिए।
 
दुखी हृदय से राजा दशरथ, जल लेकर श्रवण के माता-पिता के पास पहुंचे। श्रवण के माता-पिता अपने पुत्र के पैरों की आहट अच्छी तरह पहचानते थे। राजा के पैरों की आहट सुन वे चौंक गए।
 
'कौन है? हमारा बेटा श्रवण कहां है?' बिना उत्तर दिए राजा ने जल से भरा कमंडल आगे कर, उन्हें पानी पिलाना चाहा, पर श्रवण की मां चीख पड़ी- 'तुम बोलते क्यों नहीं, बताओ हमारा बेटा कहां है?' 'मां, अनजाने में मेरा चलाया बाण श्रवण के सीने में लग गया। उसने मुझे आपको पानी पिलाने भेजा है। मुझे क्षमा कर दीजिए।' राजा का गला भर आया।
 
'हां श्रवण, हाय मेरा बेटा' मां चीत्कार कर उठी। बेटे का नाम रो-रोकर लेते हुए, दोनों ने प्राण त्याग दिए। पानी को उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया। प्यासे ही उन्होंने इस संसार से विदा ले ली।
 
कहा जाता है कि राजा दशरथ ने बूढ़े मां-बाप से उनके बेटे को छीना था। इसीलिए राजा दशरथ को भी पुत्र वियोग सहना पड़ा रामचंद्रजी चौदह साल के लिए वनवास को गए। राजा दशरथ यह वियोग नहीं सह पाए। इसीलिए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। श्रवण कुमार जैसे पितृभक्त कभी नहीं हुआ। जो पुत्र माता-पिता की सच्चे मन से सेवा करते हैं, उन्हें श्रवण कुमार कहकर पुकारा जाता है। 
 
अगले पन्ने पर चौथा पितृभक्त पुत्र...
 

राम और दशरथ की पितृ-भक्ति:- अयोध्या के राजसिंहासन के सर्वथा सुयोग्य उत्तराधिकारी थे भगवान श्रीराम। सम्राट के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते यह उनका अधिकार भी बनता था मगर पिता की आज्ञा उनके लिए सारे राजसी सुखों से कहीं बढ़कर थी। अतः उनकी आज्ञा जानते ही राम बिना किसी प्रश्न के, बिना किसी ग्लानि या त्याग जताने के अहंकार के, वन की ओर जाने को तत्पर हो उठे। 
स्वयं दशरथ के मन में श्रीराम के प्रति असीम स्नेह था, मगर वे वचन से बंधे थे। एक ओर पुत्र प्रेम था, तो दूसरी ओर कैकयी को दिया वचन पूरा करने का कर्तव्य। इस द्वंद्व में जीत कर्तव्य की हुई और दशरथ ने भरे मन से राम को वनवास का आदेश सुना दिया। राम ने तो पिता की आज्ञा का पालन करते हुए निःसंकोच वन का रुख कर लिया किंतु दशरथ का पितृ हृदय पुत्र का वियोग और उसके साथ हुए अन्याय की टीस सह न सका। अंततः राम का नाम लेते हुए ही वे संसार को त्याग गए।
 
भगवान श्रीराम सम्राट का ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते यह उनका अधिकार भी बनता था मगर पिता की आज्ञा उनके लिए सारे राजसी सुखों से कहीं बढ़कर थी। अतः उनकी आज्ञा जानते ही राम बिना किसी प्रश्न के, बिना किसी ग्लानि या त्याग जताने के अहंकार के, वन की ओर जाने को तत्पर हो उठे। 
 
स्वयं दशरथ के मन में श्रीराम के प्रति असीम स्नेह था, मगर वे वचन से बंधे थे। एक ओर पुत्र प्रेम था, तो दूसरी ओर कैकयी को दिया वचन पूरा करने का कर्तव्य। इस द्वंद्व में जीत कर्तव्य की हुई और दशरथ ने भरे मन से राम को वनवास का आदेश सुना दिया। राम ने तो पिता की आज्ञा का पालन करते हुए निःसंकोच वन का रुख कर लिया किंतु दशरथ का पितृ हृदय पुत्र का वियोग और उसके साथ हुए अन्याय की टीस सह न सका। अंततः राम का नाम लेते हुए ही वे संसार को त्याग गए।
 
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पितृ भक्ति भीष्म :-  पितृ भक्ति का एक विलक्षण उदाहरण महाभारत में देवव्रत के पात्र के रूप में मिलता है। यही देवव्रत आगे चलकर भीष्म कहलाए। हस्तिनापुर नरेश शांतनु का पराक्रमी एवं विद्वान पुत्र देवव्रत उनका स्वाभाविक उत्तराधिकारी था, लेकिन एक दिन शांतनु की भेंट निषाद कन्या सत्यवती से हुई और वे उस पर मोहित हो गए। 
 
उन्होंने सत्यवती के पिता से मिलकर उसका हाथ मांगा। पिता ने शर्त रखी कि मेरी पुत्री से होने वाले पुत्र को राजसिंहासन का उत्तराधिकारी बनाएं, तो ही मैं इस विवाह की अनुमति दे सकता हूं। शांतनु देवव्रत के साथ ऐसा अन्याय नहीं कर सकते थे। वे भारी हृदय से लौट आए लेकिन सत्यवती के वियोग में व्याकुल रहने लगे। उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। जब देवव्रत को पिता के दुख का कारण पता चला, तो वह सत्यवती के पिता से मिलने जा पहुंचा और उन्हें आश्वस्त किया कि शांतनु के बाद सत्यवती का पुत्र ही सम्राट बनेगा। 
 
निषाद ने कहा कि आप तो अपना दावा त्याग रहे हैं लेकिन भविष्य में आपकी संतानें सत्यवती की संतान के लिए परेशानी खड़ी नहीं करेंगी, इसका क्या भरोसा! तब देवव्रत ने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसी स्थिति उत्पन्न ही नहीं होगी और उसने वहीं प्रतिज्ञा की कि वह आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेगा। 
 
इस पर निषाद सत्यवती का हाथ शांतनु को देने के लिए राजी हो गए। जब शांतनु को अपने पुत्र की प्रतिज्ञा का पता चला, तो उन्होंने उसे इच्छा मृत्यु का वरदान दिया और कहा कि अपनी प्रतिज्ञा के कारण अब तुम भीष्म के नाम से जाने जाओगे।
 
ऐसे कई उदाहरण, पिता-पुत्र के ऐसे ही अनेक किस्सों से हमारी पौराणिक कथाएं समृद्ध हैं, जो रिश्ते के विविध आयामों में पिता का महत्व बयां करते हैं। 
 
अब अगले पन्नों पर जानिए पांच पौराणिक पितृभक्तों के बारे में जानकारी...
 

1.पितृभक्त यज्ञशर्मा : इस कथा का सार आपको अंत में पता चलेगा। आप यह याद रखें की शिवशर्मा के 5 पुत्र थे। द्वारका में शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहते थे। वे योगशास्त्र के पारंगत विद्वान थे। सभी सिद्धियां उन्हें प्राप्त थीं। उनके पांच पुत्र थे- यज्ञशर्मा, वेदशर्मा, धर्मशर्मा, विष्णुशर्मा, और सोमशर्मा। ये पांचों ही पुत्र के परम भक्त और तपस्वी थे।
 
एक बार शिवशर्मा ने अपने पुत्रों के पितृप्रेम की परीक्षा लेनी चाही। वे सर्वसमर्थ तो थे ही, उन्होंने माया का प्रयोग किया। पांचों पुत्रों के सामने उनकी माता दारुण ज्वर से पीड़ित हो गयीं। कोई उपचार काम न आया और देखते-देखते वे मर गई। विवश होकर पुत्रों ने इसकी सूचना पिता को दी और अगले कर्तव्य का निर्देश चाहा।
 
पिता तो परिक्षण पर तुले ही थे। आज्ञा दी- 'यज्ञशर्मा! तुम तीक्ष्ण शस्त्र से अपनी माता को खण्ड-खण्ड काटकर इधर-उधर फेंक दो।' आज्ञाकारी पुत्र ने पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया।
 
अगले पन्ने पर वेदशार्म ने क्या किया...
 

2.पितृभक्त वेदशर्मा : इसके पश्चात् पिता ने वेदशर्मा से कहा- 'पुत्र! मैंने एक स्त्री को देखा है। उसके बिना मैं रह नहीं सकता। तुम मेरे लिए उसे प्रसन्न कर लो और बुला लाओ।' वेदशर्मा पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर उस नारी के पास पहुंचे और उसके बिना अपने पिता की विह्वलता सुनाई।
 
स्त्री ने वेदशर्मा की प्रार्थना को ठुकराते हुए कहा- 'तुम्हारा पिता बूढ़ा और रोगी है। उसके मुख से कफ निकलता रहता है। उससे मैं विवाह नहीं करना चाहती। मैं तो तुम्हें चाहती हूं। तुम रूपवान और नवयौवन से सम्पन्न हो। उस बूढ़े के पीछे तुम क्यों व्याकुल हो। तुम जो चाहोगे, मैं सदा दिया करूंगी।'
 
वेदशर्मा ऐसी असंगत बात सुनकर आश्चर्यचकित होकर बोला- 'देवी! तुम मेरी माता के सदृश्य हो। अपने पुत्र से ऐसी अधार्मिक बात तुम्हें नहीं कहनी चाहिए। मैंने कोई अपराध भी तो नहीं किया है कि तुम ऐसी असंगत बात सुनाकर मुझे व्यथित कर रही हो। मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूं, तुम मेरे पिता को वरण कर लो। तुम जो चाहोगी, मैं वही दूंगा।'
 
स्त्री ने कहा- 'यदि तुम देना चाहते हो तो तीनों देवों और इन्द्र के साथ सभी देवों को यहां बुला दो। मैं उनका दर्शन करना चाहती हूं।'
 
वेदशर्मा ने अपनी तपस्या का उपयोग किया। सभी देव वहां आ विराजे। सारा वातावरण पवित्र हो गया। देवताओं ने वेदशर्मा को आदर दिया और वरदान मांगने को कहा। वेदशर्मा ने पिता के चरणों में निर्मल प्रेम मांगा वरदान देकर देवता अन्तर्हित हो गए।
 
इसके पश्चात् भी वह स्त्री वेदशर्मा के पिता को वरण करने के लिए तैयार नहीं हुई और बोली- 'इस घटना से तो केवल तुम्हारी तपस्या के बल का पता चला। उन देवताओं से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। यदि तुम अपने पिता के लिए मुझे कुछ देना चाहते हो तो अपना सिर स्वयं काटकर मुझे दे दो।'
 
वेदशर्मा को प्रसन्नता हुई कि पिता की आज्ञा के पालन में वह सफल हुआ। झट उसने तलवार से अपना सिर काटकर उसे दे दिया। स्त्री खून से लथपथ वेदशर्मा के सिर को काटकर लेकर उसके पिता के पास पहुंची। उसके भाई वहीं थे। इस दृश्य को देखकर उन्हें रोमांच हो आया। उनके मुख से निकल पड़ा- 'हम लोगों में वेदशर्मा ही धन्य हैं, जिसने पिता के लिए अपने शरीर का सदुपयोग किया।'
 
अगले पन्ने पर धर्मशर्मा ने क्या किया...
 

3.पितृभक्ति धर्मशर्मा : पिता ने वेदशर्मा के उस कटे सिर को धर्मशर्मा को देते हुए कहा- 'बेटा! अपने भाई के इस सिर को लो और इसे जीवित कर दो।' धर्मशर्मा ने धर्मराज का आह्वान किया। धर्मराज प्रकट होकर बोले- 'वत्स! तुमने मुझे क्यों बुलाया है? तुम्हें क्या चाहिए?'
 
धर्मशर्मा ने कहा- 'यदि मेरी पितृभक्ति सही है तो मेरा यह भाई जीवित हो जाय।' धर्मराज ने तुरंत उसके भाई को जीवित कर दिया। फिर धर्मशर्मा को पितृभक्ति का वरदान देकर वे अन्तर्हित हो गए। वेदशर्मा ने जब आंखे खोलीं, तब वहां न तो वह स्त्री थी और न उसके प्रिय पिता। उसने पूछकर सारी बातें जान लीं। फिर दोनों भाई पिता से आ मिले।
 
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4.विष्णुशर्मा की पितृभक्ति : इसके बाद भी उनके पिता चिन्तित ही दिखाई पड़े। उन्होंने विष्णुशर्मा को संबोधित किया- 'बेटा! मैं रुग्ण हूं। अमृत के बिना मैं स्वस्थ न हो सकूंगा। तुम देवलोक से मेरे लिए अमृत से भरा कलश ले जाओ।'
 
विष्णुशर्मा ने योग की शक्ति का आश्रय लिया। वे तीव्रगति से स्वर्गलोक की ओर बढ़े। अमृत का कलश देना देवता क्यों चाहेंगे? इन्द्र ने विष्णुशर्मा को रास्ते में ही प्रलोभित करने के लिए मेनका को भेजा। मेनका ने अपनी माया अच्छी तरह से फैलाई। उसकी सुन्दरता और गीत की मधुरता से कण-कण आप्लावित हो उठा। वह झूले में झूल रही थी। झूले ने उसमें निखार ला दिया था।
 
विष्णुशर्मा ने यह सब देखा और सुना, परन्तु उन पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे सब को छोड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे। अब मेनका को इनके पीछे लगाना पड़ा। उसने दीनता भरे शब्दों में प्रणय-याचना की, किंतु विष्णुशर्मा- जैसे पितृभक्त पर उसकी कोई माया न चली। इसके पश्चात् इन्द्र ने अनेक विघ्न प्रकट किए। इनकी चेष्टा से विष्णुशर्मा को क्रोध हो आया। वे इन्द्र को पदच्युत कर दूसरे इन्द्र को उनके पद पर बैठाने की बात सोचने लगे। तब इन्द्र हाथ में अमृत-कलश लेकर प्रकट हुए और उन्होंने सम्मान के साथ उसे विष्णुशर्मा को दे दिया।
 
अमृत-कलश लेकर विष्णुशर्मा घर लौटे और उसे पिता को दे दिया। पिता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने पुत्रों से कहा- 'बच्चों! तुम्हारी सेवा से मैं प्रसन्न हूं। तुम सब वरदान मांगों।'
 
सभी पुत्रों ने अपनी माता को जीवित देखना चाहा। पिता ने यह वरदान उन्हें दे दिया। थोड़ी ही देर बाद ममता और स्नेह लुटाती हुई उनकी माता वहां आ पहुंचीं। उन्होंने हर्ष में भरकर कहा- 'तुम सभी पुत्रों के कारण मेरा भाग्य चमक उठा है। न जाने मैंने कौन-से पुण्य किए थे कि मुझे तुम्हारे-जैसे पुत्र मिले।'
 
माता को हर्षित देख सभी पुत्र आनन्द से विह्वल हो गए। उन्होंने कहा- 'हमारा कोई बहुत बड़ा पुण्य है, जिससे हम लोगों ने तुम्हें माता के रूप में पाया।'
 
पिता भी अपने प्रिय पुत्रों पर अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले- 'पुत्रो! तुम लोग और वरदान मांगों। मेरे संतुष्ट होने पर तुम्हें अक्षयलोक भी प्राप्त हो सकता है।' पुत्रों ने वरदान में अक्षयलोक ही मांगा। पिता के 'तथास्तु' कहते ही दीप्तिशाली विमान उतर आया। भगवान् ने माता-पिता सहित सभी पुत्रों को विष्णुलोक चलने के लिए कहा, परन्तु शिवशर्मा ने कहा- 'मैं, मेरी स्त्री और मेरा छोटा पुत्र उस लोक में नहीं जाना चाहते, पीछे आएंगे। आप चार पुत्रों को ही वह दिव्य धाम दें।'
 
भगवान् विष्णु ने उन चारों भाग्यवान पुत्रों को ही साथ चलने के लिए कहा। उन चारों का स्वरूप विष्णु का-सा हो गया। वे वैकुण्ठलोक पधार गए। 
 
अगले पन्ने पर पांचवें पुत्र सोमशर्मा ने क्या किया जानिए...
 

5.पितृभक्त सोमशर्मा : चारों पुत्रों को विष्णुलोक प्रदान कर शिवशर्मा संतुष्ट थे। अब उन्हें अपने छोटे पुत्र सोमशर्मा के सत्त्व को परखना था। एक दिन उन्होंने सोमशर्मा से कहा- 'बेटा! तुम हम में स्नेह तो रखते ही हो, इस बार एक कठिन कार्य दे रहा हूं। अमृत से भरा हुआ यह घड़ा हम तुझे सौंपकर तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं। इस घड़े सावधानी से रक्षा करना।'
 
सोमशर्मा पिता की कोई आज्ञा मिलने पर बहुत हर्ष होता था। इस बार भी उन्हें बहुत हर्ष हुआ। उन्होंने माता-पिता को इस ओर से निश्चिन्त बनाकर तीर्थयात्रा के लिए भेज दिया। इसके बाद वे बड़ी तत्परता से अमृतकुम्भ की रखवाली करने लगे।
 
दस वर्ष के पश्चात् माता-पिता लौटे। उन्होंने माया से अपने शरीर में कोढ़ पैदा कर लिया था। वे मांस के पिण्ड की तरह त्याज्य दीख रहे थे। यह देखकर सोमशर्मा को बड़ी व्यथा हुई, साथ-साथ विस्मय भी हुआ। उन्होंने पूछा- 'आप दोनों तो विष्णुतुल्य हैं। आपको यह अधम रोग कैसे हो गया?' पिता ने कहा- 'पुत्र! अदृष्ट का भोग तो भोगना ही पड़ता है। किसी जन्म का कोई पाप उदित हुआ होगा।'
 
सोमशर्मा दोनों का कष्ट देखकर बड़ा कष्ट होता। वे जी-जान देकर सेवा में जुट गए। वे उनका मल-मूत्र साफ करते, मवाद धोते, मलहम-पट्टी करते, समय से खिलाते, समय से सुलाते, सब समय सेवा में लगे रहते, परन्तु पिता शिवशर्मा कठोर बने रहते। वे सदा सोमशर्मा को फटकार लगाया करते थे। पिता की ओर से डाट-फटकार और मार की झड़ी लगी रहती, परंतु सोमशर्मा की बोली सदा मधुर निकलती और व्यवहार में आदर झलकता था।
 
समर्थ पिता ने एक दिन सोचा-ज 'मैंने तो बहुत ही कठोरता बरती है, किंतु सोमशर्मा में कभी प्रेम की कमी नहीं आई। पितृप्रेम की परीक्षा में तो यह उत्तीर्ण है, अब कुछ इसकी तपस्या की परीक्षा कर लूं।'
 
समर्थ शिवशर्मा ने पुत्र पर माया का प्रयोग किया- सुरक्षित अमृत के घड़े से अमृत का अपहरण कर लिया। इसके बाद सोमशर्मा से बोले-बेटा! अमृत से भरा हुआ कुम्भ मैंने सुरक्षा के लिए तुम्हें सौंपा था, उसे लाकर दो। उसे पीकर हम स्वस्थ हो जाएंगे।
 
सोमशर्मा ने अमृतकुम्भ को खाली पाया। उसमें अमृत की एक बूंद भी न थी, उन्हें चिंता हुई कि इस सुरक्षित कुम्भ से अमृत कौन ले गया। विवश होकर उन्होंने अपनी तपस्या की शरण ली। आंखे बंद करके बोले- 'यदि मैंने निश्छल तपस्या की है और अन्य धर्मों का भी आदर से पालन किया है तो अमृत का यह घड़ा अमृत से लबालब भरा हो हुआ था। उन्हें संतोष हुआ कि अब इससे पिता-माता स्वस्थ हो जाएंगे। उन्होंने वह घड़ा पिता जी के सामने रखकर उनके चरणों में प्रणिपात किया।
 
बिना अमृत पिए ही माता-पिता भले-चंगे हो गए। दोनों के शरीर पहले-जैसे दीप्तिमान हो उठे। वे वस्तुतः रोगी तो थे नहीं। इधर सोमशर्मा माता-पिता को स्वस्थ देख प्रसन्नता से भर गए, उधर पिता ने सोमशर्मा को बहुत-बहुत आशीर्वाद दिया। इतने में उनकी इच्छा से विष्णुलोक से एक विमान उतरा और उस पर सोमशर्मा सहित माता-पिता बैठकर परम धाम को चले गए। यही सोमशर्मा अगले जन्म में प्रह्वाद हुए।