- दीपांकर गुप्ता हम कुछ समय के लिए चर्खा कात लेते हैं, प्रार्थना सभा में भाग ले लेते हैं और कुछ अन्य रस्मों को निभाकर गाँधी को याद करने के कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। उसके बाद क्या होता है? हमने अभी-अभी लोकसभा में नोटों का लहराना देखा। संसद के सदस्य अपने विरोधियों को बोलने नहीं देते। चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें चुप करा देते हैं। चुने हुए प्रतिनिधि अपने कट्टरपंथी रुखों का खुला इजहार करते हुए जरा भी संकोच नहीं करते।
हम एक बार भी यह नहीं सोचते हैं कि यह सब कर हम गाँधी की विरासत को चोट पहुँचा रहे हैं। हमें यह समझना चाहिए कि हम जिस उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था की दुहाई देते नहीं थकते हैं, वह गाँधी की देन है। उसे चोट पहुँचाते हुए हमें शर्म आनी चाहिए।
जहाँ तक गाँधी को याद रखने का सवाल है तो चर्खा चलाने व प्रार्थना सभाओं में भाग लेने जैसे प्रतीकात्मक, खोखले हाव-भाव किसी काम के नहीं। हम अगर गाँधी की विरासत को इन चंद प्रतीकात्मक कार्यों तक सीमित कर देते हैं तो यह उस आदमी के साथ अन्याय होगा, जिन्होंने हमारे पिछड़े देश को एक आधुनिक व उदार लोकतंत्र के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ाने के लिए अपना सारा जीवन दाँव पर लगा दिया।
गाँधी के अक्खड़ स्वभाव व उनके सनकीपन का हवाला देकर, यह कहकर कि गाँधी एक फकीर थे, जो गलती से राजनीति में भटक गए, वे आधुनिक राज्य या औद्योगिक मशीनों के दुश्मन थे, मुझे लगता है कि ऐसा सोचकर उनकी विरासत के साथ हम बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं। गाँधी के कहे का पूरी कठोरता से पालन करने की जगह एक समाजशास्त्री के नजरिए से गाँधी के जीवन व कार्यों के ऐसे प्रभावों का विश्लेषण अधिक महत्वपूर्ण है, जिस पर खुद उन्होंने पहले नहीं सोचा था।
वे जो कहते थे, खुद ही उसका खंडन भी कर देते थे। गाँधी के अनेक ऐसे पैरोकार हैं
गाँधी का मानना था कि स्वराज शब्द को किसी एक अर्थ के खाँचे में डाल देना अपनी बाह्य दृष्टि को संकुचित करने जैसा है, असीम संभावना को सीमा में बाँधने जैसा है
जो उनके इन विरोधाभासों को ढँकने की कोशिश करते हैं ताकि उन्हें एक ऐसे विचारक या नेता के रूप में पेश किया जा सके, जिनका कभी पतन हो ही नहीं सकता। विडंबना यह है कि गाँधी को सहेजने या एक खास साँचे में ढालने की इसी कोशिश की वजह से उनकी व्याख्या करने वाले विचारक आधुनिक, उदार व लोकतांत्रिक व्यक्ति के रूप में उनके योगदान की अनदेखी कर देते हैं।
खुद गाँधी अपने इस विरोधाभास को गर्व के साथ उद्घाटित करते थे। उन्होंने कभी उसके लिए माफी नहीं माँगी। उनके कथन की एक बानगी देखिए- मुझे अपनी असंगति स्वीकार करनी होगी, लेकिन चूँकि मुझे महात्मा कहकर पुकारा जाता है इसलिए मैं इमर्सन के उस कथन से साफ बच जाता हूँ कि मूर्खतापूर्ण विरोधाभास ओछी सोच वाले लोगों के दिमाग का फितूर भर होता है।
दरअसल, सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने गाँधी से यह अनुरोध किया था कि वे अपनी सोच को एक जगह इस तरह समेट दें ताकि उनमें आपसी तारतम्य स्थापित हो सके। लेकिन गाँधी का मानना था कि वे सिर्फ काम के लिए प्रतिबद्घ हैं और यदि उनके विचारों को तारतम्य बिठाते हुए एक जगह समेटने की जरूरत महसूस की जा रही है तो राधाकृष्णन खुद यह काम करने की कोशिश करके देख लें।
गाँधी का मानना था कि स्वराज शब्द को किसी एक अर्थ के खाँचे में डाल देना अपनी बाह्य दृष्टि को संकुचित करने जैसा है, असीम संभावना को सीमा में बाँधने जैसा है। 'हरिजन' के 1 मई 1937 के अंक में उन्होंने लिखा- मेरी लिखी हुई चीजों को मेरे शरीर के साथ भस्म कर देना ही अच्छा होगा। मैंने जो किया है, बस वही बचा रहेगा, मैंने जो कहा है या लिखा है, वह नहीं। निर्मल बोस कहते हैं- गाँधी ने एक बार उनकी तरफ मुखातिब होते हुए कहा- मैंने जो भी लिखा है, उसे आपने घोंटकर पी लिया है, लेकिन जरूरी यह है कि आपको हमें काम करते हुए देखना चाहिए ताकि आप मुझे बेहतर ढंग से समझ सकें।
अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि भारत में अब गाँधी समीचीन नहीं रहे। हमने चर्खा को तिलांजलि दे दी है, औद्योगिकीकरण के रास्ते पर चल पड़े हैं और सांप्रदायिक जुनून को इतनी बार दोहरा चुके हैं कि उन्हें याद भी नहीं करना चाहते हैं। हम सवाल करते हैं- सादगी, सत्य व अहिंसा का पालन करने के उनके वेद वाक्यों का क्या हुआ? सतही तौर पर तो लगता है कि कल के उस मसीहा के अनुयायियों की जो फौज थी, उनकी संख्या तेजी से घट रही है। जो अनुयायी बच गए हैं, वे उम्रदराज हैं और कुछ फाउंडेशनों व समितियों में कही-कहीं बिखरे हुए हैं, जिनसे गाँधी का नाम भर जुड़ा है।
लेकिन गाँधी की विरासत, परंपरा या उन मुश्किल नैतिक मूल्यों को स्थापित करने की कोशिश से कहीं अधिक है, जिनका पालन करना असंभव है। सही बात यह है कि गाँधी के प्रभाव हमारे कानूनों और हमारी राष्ट्रीय नीतियों की बुनियादों में बड़े-बड़े हरफों के रूप में गुँथे हुए हैं, बशर्ते हम उन पर गौर करें। ये जो गाँधी हैं, वह त्वचा को ठीक रखने के लिए मिट्टी के लेप लगाने वाले या प्रार्थना सभाओं वाले गाँधी नही हैं। अगर आपको गाँधी का आदर करना है तो इसी संदर्भ में उनकी भूमिका को स्वीकार करना होगा, न कि उन्हें अतीत के एक ऐसे चुके हुए व्यक्ति का रूप देकर जिन पर अव्यावहारिक फितूर सवार रहता था।
हो सकता है गाँधी के बगैर भी देश स्वतंत्र हो जाता। शायद आजादी पहले भी मिल जाती,
लोकतंत्र की भावना व बुनियादी अधिकारों व कर्तव्यों के सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद अहिंसा पर गाँधी के डटे रहने की उपज है। वे अहिंसा पर एक इंच भी पीछे नहीं हटे। इसी का नतीजा था कि वे लोकतंत्र के मानदंडों को स्थापित करने में सफल रहे
लेकिन सवाल है कि उनके बगैर क्या हम उदार लोकतांत्रिक राष्ट्र राज्य का रूप ले पाते? गाँधी की विरासत को खारिज करने के पहले इस सवाल पर हमें सोच लेना चाहिए। हमारा लोकतंत्र चाहे जितनी अनिश्चितताओं या खामियों से भरा हो, यह अभी भी दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हममें से जो भी शासन के इस रूप के समर्थक हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसके लिए हमें गाँधी का शुक्रगुजार होना चाहिए। अगर आज हम गाँधी का सिर्फ चर्खा, मितव्ययिता या प्रार्थना सभाओं के जरिए आकलन करें तो निश्चित रूप से आज वे किसी काम के नहीं।
इसमें कोई शक नहीं है कि गाँधी चर्खा और खद्दर के बहुत बड़े समर्थक थे और कई अर्थों में वे मिलों व मशीनों के विरोध में भी थे, लेकिन वे इन बातों को लेकर व्यावहारिक नजरिया रखते थे, विरोधाभास की हद तक। वे 'हरिजन' के एक अंक में लिखते हैं- सबों की भलाई के लिए हो तो विज्ञान के हर आविष्कार का स्वागत है। उन्होंने एक जगह यहाँ तक लिखा है कि अगर उन्हें लगा कि स्वराज को जीतने के रास्ते में चर्खा रोड़ा बनता है, तो मैं तत्काल उसमें आग लगा दूँगा। गाँधी समाजवाद के विरोध पर भी अड़े नहीं रहे। वे कुछ कारणों से समाजवाद का विरोध करते थे, लेकिन साथ ही उनका यह भी मानना था कि सिर्फ वास्तविक समाजवाद में ही सत्य और अहिंसा का पालन हो सकता है।
गाँधी बेशक महात्मा थे। अगर वे ऐसे नहीं होते तो भारत आजाद हुए अन्य देशों की तरह निरंकुशता व तानाशाही का शिकार हो जाता, लोकतांत्रिक देश नहीं होता। यह अहिंसा पर उनके अडिग रहने का नतीजा है। इसलिए जरूरी यह है कि हम यह मानें कि उनकी अहिंसा उतनी धार्मिक अभिव्यक्ति नहीं थी, जितनी आधुनिक उदार लोकतंत्र के सिद्घांत व चलन की अभिव्यक्ति । संविधान पर गाँधी की अमिट छाप की अनदेखी नहीं की जा सकती है।
लोकतंत्र की भावना व बुनियादी अधिकारों व कर्तव्यों के सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद अहिंसा पर गाँधी के डटे रहने की उपज है। वे अहिंसा पर एक इंच भी पीछे नहीं हटे। इसी का नतीजा था कि वे लोकतंत्र के मानदंडों को स्थापित करने में सफल रहे। गाँधी की धर्मनिरपेक्षता भी उदार लोकतांत्रिक मूल्यों पर डटे रहने व अहिंसा की वकालत का ही नतीजा थी, लेकिन उनकी धर्मनिरपेक्षता किसी महान भावना का परिचायक भर नहीं, बल्कि संवैधानिक एवं कानूनी नियमों की उपज थी।
उदार लोकतंत्र की भावना देश को गाँधी का सबसे बड़ा तोहफा है। यह भावना हमारे संविधान की आत्मा है। निर्वाचित प्रतिनिधियों के विभिन्न स्तरों, सरकार के विभिन्न अंगों या निष्पक्ष चुनावों के तरीकों पर बहुत लिखा जाता है, लेकिन हम बिरले ही स्वीकार करते हैं कि अहिंसा और सत्याग्रह ही हमारी या किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ बनते हैं। (लेखक प्रसिद्ध समाजशास्त्री हैं।)