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Written By BBC Hindi

संस्कृत इतनी विवादास्पद क्यों है?

- संजॉय मजूमदार (दिल्ली)

संस्कृत इतनी विवादास्पद क्यों है? -
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भारत में संस्कृत को लेकर एक नया विवाद छिड़ा है। सरकार चाहती है कि स्कूल इस प्राचीन भाषा से जुड़ी गतिविधियां एक सप्ताह तक आयोजित करें। वहीं कुछ नेताओं का मानना है कि इस भाषा के जरिए भाजपा अपना एजेंडा आगे बढ़ा रही है।

पढ़ें संजॉय मजूमदार की पूरी रिपोर्ट।

दिल्ली के लक्ष्मण पब्लिक स्कूल में छात्रों का एक समूह संस्कृत श्लोक बोल रहा है। एक दूसरी कक्षा में आठवीं के छात्र वैदिक गणित सीख रहे हैं। ये सब हो रहा है संस्कृत सप्ताह के तहत।

नरेंद्र मोदी सरकार ने पूरे देश में स्कूलों में संस्कृत सप्ताह मनाने का आदेश दिया है। लक्ष्मण पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल उषा राम कहती हैं, 'ये हमारी मातृ भाषा है, सभी भाषाएं इसी से निकली हैं।'

संस्कृत इंडो-आर्य भाषा समूह में आती है और भारत की कई भाषाएं इसी से जन्मी हैं। 11वीं के छात्र वैष्णव कहते हैं, 'अगर आपको संस्कृत आती है तो हिंदी, बंगाली और मराठी आसानी से समझ सकते हैं।'

उत्तराखंड में आधिकारिक भाषा : लेकिन भारत में अब एक फीसदी से भी कम लोग संस्कृत बोलते हैं, ज्यादातर हिंदू पुजारी इसे धार्मिक समारोहों के दौरान इस्तेमाल करते हैं।

ये सिर्फ उत्तराखंड में ही आधिकारिक भाषा है। ताजा जनगणना के मुताबिक 14,000 लोगों ने इसे अपनी पहली भाषा बताया था। ओडिशा, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु, केरल और यहां तक कि गुजरात में भी इसे बोलने वाले न के बराबर हैं।

स्कूलों में संस्कृत वैकल्पिक भाषा है। ज्यादातर छात्र फ्रेंच, जर्मन और मंदारिन लेते हैं। लेकिन हिंदू धर्म और हिंदू धार्मिक ग्रंथों से जुड़ी इस प्राचीन भाषा को जिंदा करना दक्षिणपंथी भाजपा के एजेंडे का हिस्सा रहा है।
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'समावेशी भारत चाहते हैं' : केंद्र सरकार ने स्कूलों को संस्कृत सप्ताह के बारे में जो आदेश भेजा उसमें कहा गया है, 'संस्कृत और भारतीय संस्कृति आपस में जुड़ी हुई हैं क्योंकि ज़्यादातर ज्ञान इस भाषा में उपलब्ध है।'

संस्कृत का सबसे ज्यादा विरोध तमिलनाडु के नेता कर रहे हैं। डीएमके नेता कनिमोझी कहती हैं, 'हम एक समावेशी भारत, धर्मनिरपेक्ष भारत चाहते हैं। ऐसा भारत जो सभी का हो।'

हालांकि इस तर्क का जोरदार विरोध होता है। सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज मार्कंडेय काटजू कहते हैं, 'लोगों को ये गलतफहमी है कि ये हिंदुओं की भाषा है। संस्कृत के 95 फीसदी साहित्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।'

ये एक ऐसी बहस है जिसका निकट भविष्य में कोई अंत नजर नहीं होता, खासतौर पर भारत जैसे देश में जहां कई भाषाएं और सैकड़ों बोलियां हैं।