गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
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Written By उमेश चतुर्वेदी

विवादों की किताबें

विवादों की किताबें -
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चुनावी माहौल हो तो राजनीतिक चर्चाएं होनी स्वाभाविक ही हैं। ऐसे में जब ऐसी किताबें आएं, जिन्हें सत्ता प्रतिष्ठान के बेहद नजदीकी लोगों ने लिखा हो, जो सत्ता प्रतिष्ठान के अंदर की कालिख और रहस्यों को उजागर करने का दावा करती हों तो उनकी टाइमिंग और उनमें व्यक्त तथ्यों को लेकर राजनीतिक चर्चाएं होंगीं हीं।

प्रधानमंत्री के पूर्व प्रेस सलाहकार संजय बारू की किताब 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' और पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख की किताब 'क्रूसेडर ऑर कांस्पीरेटर : कोलगेट एंड अदर ट्रूथ्स' की चर्चा अगर हो रही है तो सिर्फ इसलिए कि दोनों ही किताबों में उस राजनीतिक माहौल और उसकी क्रूर सच्चाइयों का जिक्र है, जो अभी इतिहास नहीं बना है, बल्कि वह वर्तमान है। लेकिन यह जरूर है कि कुछ दिनों में यह इतिहास बन ही जाएगा।

दोनों की चर्चा इसलिए भी ज्यादा हो रही है कि दोनों के लेखक सिर्फ लेखक या पत्रकार नहीं हैं, बल्कि एक का लेखक अपने लोकतांत्रिक सत्ता तंत्र के सर्वशक्तिमान सत्ता केंद्र समझे जाने वाले प्रधानमंत्री का मीडिया सलाहकार रहा है तो दूसरा देश के शासन व्यवस्था की रीढ़ समझी जाने वाली नौकरशाही के सर्वोच्च अंग भारतीय प्रशासनिक सेवा का वरिष्ठ अफसर रहा है और ना सिर्फ अफसर रहा है, बल्कि देश को हिलाकर रख देने वाले कोयला घोटाले का एक अभियुक्त भी माना जा रहा है। ध्यान रहे इस घोटाले की रकम को भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने करीब एक लाख 86 हजार करोड़ आंका है।

जिस संसदीय लोकतंत्र को हमने अपना रखा है, जिसे वेस्ट मिंस्टर पद्धति भी कहा जाता है, उसके सर्वोच्च शासक यानी प्रधानमंत्री को ब्रिटिश राजनीति विज्ञानी देश रूपी जहाज का मस्तूल मानते रहे हैं। उनकी यह मान्यता हर उस देश में व्यावहारिक रूप से स्वीकृत है, जहां संसदीय लोकतंत्र और देश पर शासन चलाने के लिए कैबिनेट व्यवस्था को अंगीकार किया जा चुका है।

अपने देश में भी यह मान्यता गहरे तक पैठ गई है। शायद यही वजह है कि 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' में संजय बारू मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की लाचारगी को उजागर करते हैं तो कम से कम देश के समझदार वर्ग को हैरत नहीं होती। किताब के मुताबिक यह लाचारगी कभी अपने ही कैबिनेट मंत्रियों के सामने आती है तो कभी कांग्रेस की मुखिया सोनिया गांधी के सामने। वैसे भारतीय राजनीति में एक तबका ऐसा भी रहा है जो संगठन को सत्ता के मुकाबले ताकतवर रखने की वकालत करता रहा है। इन अर्थों में भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा और उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सोच अलग नहीं रही है।

लेकिन इंदिरा गांधी के जमाने से जिस तरह सत्ता संगठन पर हावी होती चली गई है, उससे देश में यह धारणा बलवती होती चली गई कि प्रधानमंत्री संगठन से भी कहीं ज्यादा ताकतवर होता है, लेकिन संजय बारू की किताब प्रधानमंत्री की हैसियत को लेकर हैरत में नहीं डालती, क्योंकि यह देश मानता रहा है कि असल में सरकार तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही चलाते रहे हैं या चलाते हैं। वैसे भी मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता तंत्र में असल हनक उसकी ही होती है, जो सीधे जनता से चुनकर आता है।

इन अर्थों में मनमोहन सिंह सचमुच एक्सीडेंटल प्रधानमंत्री ही रहे हैं। कुल जमा वे एक बार 1999 में चुनाव लड़े और दक्षिण दिल्ली की सीट से वे भारतीय जनता पार्टी के विजय कुमार मल्होत्रा के सामने हार गए, लेकिन संयोग ही रहा कि सत्ता तंत्र के शीर्ष पर वे पहुंच गए, लेकिन जनता से उन्हें चूंकि सीधे ताकत हासिल नहीं रही, लिहाजा वे लाचार ही बने रहे। संजय बारू की किताब से जाहिर है कि प्रधानमंत्री ने सिर्फ एक बार अपनी ताकत अमेरिका से परमाणु समझौते के वक्त दिखाई और दूसरी बार मनरेगा लागू करते वक्त दिखाने का वक्त था, लेकिन उन्होंने अपने सांगठनिक आकातंत्र के आगे समर्पण कर दिया। संजय बारू की किताब प्रधानमंत्री को लेकर जनसामान्य में व्याप्त अवधारणा को सिर्फ रिकॉर्ड पर लाती है और उसे पुष्ट करती है।

सही मायने में देखा जाए तो पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख की किताब ह्यक्रूसेडर ऑर कांस्पीरेटर : कोलगेट एंड अदर ट्रूथ्स' कहीं ज्यादा भयावह तथ्यों को उजागर करती है। तथ्य यह कि कोयला घोटाले के पीछे शिबू सोरेन और दासारि नारायण राव जैसे मंत्रियों का हाथ रहा, क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री द्वारा तैयार की गई पारदर्शी प्रक्रिया को दरकिनार करते हुए ऑनलाइन नीलामी की बजाय कोयला खदान अपने चहेते लोगों को पैसे लेकर बांट दी। पीसी पारेख ने शायद ही यह किताब लिखी होती, अगर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जांच कर रही सीबीआई ने पारेख के खिलाफ आरोप पत्र नहीं दायर किया होता।

पारेख इससे क्षुब्ध हैं। उनके गुस्से की वजह यह है कि जिस बुढ़ापे में वे आराम करने की सोच रहे थे, उस बुढ़ापे में रिटायरमेंट के आठ साल बाद उन्हें इस मामले में फंसना पड़ा। वे जब ये कहते हैं कि सांसद खुलेआम लूट रहे हैं या मुख्य सचिव तक से चपरासी जैसा व्यवहार उनके राजनीतिक आका करते हैं तो वे भी कुछ नई बात नहीं कर रहे होते हैं। दरअसल वे इन तथ्यों को रिकॉर्ड पर ही ला रहे होते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसके लिए नौकरशाही जिम्मेदार नहीं है।

जब पिछली दफा मुलायम सिंह उत्‍तरप्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव ने भरे मंच पर ही उनके पैर छू लिए थे। आखिर उनके सामने ऐसी कौनसी मजबूरी थी। राजनीतिक विषयों पर ये दो किताबें ही नहीं आई हैं, जिन पर चर्चा हो रही है। 1978 में नेहरू के निजी सहायक रहे ओए मथाई ने 'रेमिनेंस ऑफ द नेहरू एज' और 1979 में 'माई डेज विथ नेहरू' लिखकर कई सनसनीखेज खुलासे किए थे। यह बात और है कि ये किताबें नेहरू के निधन के करीब डेढ़ दशक बाद आई थीं।

राजीव गांधी के साथ काम कर चुके मणिशंकर अय्यर ने भी 'ए टाइम ऑफ ट्रांजिशन : राजीव गांधी टू ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी', 'रिमेंबरिंग राजीव और राजीव गांधीज इंडिया' लिखी है। ये पुस्तकें भी राजनीतिक ही रही हैं और सत्ता तंत्र में अंदरुनी पहुंच रखने वाले लोगों ने लिखी। पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह की भी छह साल पहले किताब आई थी 'योर्स सिंसियरली', जो हिंदी में कुछ चेहरे और कुछ चिट्ठियां नाम से अनुदित होकर सामने हैं।

इस किताब में भी कई विवादास्पद और सनसनीखेज जानकारियां हैं, लेकिन इन किताबों की वैसी चर्चा नहीं हुई, जैसी बारू और पारेख की किताब की हो रही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि दोनों ही किताबें ठीक राजनीतिक माहौल यानी चुनावों के बीच आई हैं। जाहिर है कि विपक्ष इसका राजनीतिक फायदा उठा रहा है और ऐसे में अगर सत्ता पक्ष इन किताबों की टाइमिंग पर सवाल उठाए या राजनीति प्रेरित ना बताए तो ही हैरत होती।

वैसे अमेरिकी राजनय और राजनीति में अतीत और शासन तंत्र से जुड़ी किताबें लिखने की परिपाटी रही है। इसे वहां राजनीति या द्वेष के तौर पर नहीं लिया जाता, बल्कि माना जाता है कि इससे इतिहास की जानकारी होती है और राजनीतिक तंत्र में इस दबाव में पारदर्शिता बनी रहती है। इन अर्थों में देखें तो अमेरिका प्रशंसित और पोषित अर्थव्यवस्था को स्वीकार कर चुका भारतीय तंत्र अब वहां की इस पुस्तक संस्कृति की परिपाटी को स्वीकार करता नजर आ रहा है। (लेखक टेलीविजन पत्रकार और स्तंभकार हैं)