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Written By शरद सिंगी

ब्रिक्स बैंक की स्थापना के होंगे दूरगामी प्रभाव

ब्रिक्स बैंक की स्थापना के होंगे दूरगामी प्रभाव -
ब्रिक्स देशों के छठे शिखर सम्मलेन का समापन सोलह जुलाई को ब्राज़ील के शहर फ़ोर्टालेज़ा में हुआ। ब्रिक्स देश पांच विकासशील राष्ट्रों का समूह है। ये पांच राष्ट्र हैं भारत, रूस, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राज़ील। इन देशों के अंग्रेजी नामों के प्रथमाक्षरों को लेकर इस समूह का नामकरण हुआ है ब्रिक्स समूह देश।
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इस सम्मेलन में ब्रिक्स बैंक खोलने का एक महत्वपूर्ण निर्णय हुआ जिससे विश्व की अर्थव्यवस्था में दूरगामी और सकारात्मक परिवर्तन आने की उम्मीद है। ऐसा इसलिए क्योंकि दुनिया की 42 प्रतिशत आबादी को समाहित करने वाले ब्रिक्स देशों का वर्तमान विश्व बैंक पर अधिकार नगण्य है। अंदाज़ा इसी बात से लग जाता है कि सन् 1946, जब से विश्व बैंक प्रारम्भ हुई है तब से लेकर आज तक इसका अध्यक्ष केवल अमेरिकी नागरिक ही होता है तथा मताधिकार का अधिकांश प्रतिशत अमेरिका एवं यूरोपीय देशों के पास सुरक्षित है।

आज विश्व में अमेरिकी डॉलर सबसे सुरक्षित मुद्रा मानी जाती है। इस स्थिति से अमेरिका को कुछ उचित और कुछ अनुचित लाभ हैं। सुरक्षित मुद्रा होने के कारण विश्व के अधिकांश देश अपने रिज़र्व कोषों का अधिकतम भाग डॉलर में रखते हैं। निवेशक अपना व्यक्तिगत निवेश भी डॉलर में रखना पसंद करते हैं। इस वजह से मुद्रा बाजार में डॉलर को किसी भी मुद्रा की तुलना में अधिक समर्थन प्राप्त है, अतः इस मुद्रा में अन्य मुद्राओं की तरह लंबी घटबड़ नहीं देखी जाती। विश्व बैंक भी अपना सारा लेनदेन डॉलर में ही करता है।

सन् 1999 में यूरोप की एकल मुद्रा यूरो के प्रादुर्भाव के बाद विश्व के विभिन्न देशों ने राहत की सांस ली थी यह सोचकर कि डॉलर का वर्चस्व कम होगा। अपनी जोखिम को बांटने के उद्देश्य से कई राष्ट्रों ने अपने रिज़र्व का कुछ भाग यूरो में परिवर्तित कर दिया तथा व्यक्तिगत निवेश भी यूरो की ओर आकर्षित हुआ था। इस तरह मुद्रा बाज़ार में डॉलर का प्रभाव कुछ हद तक कम हुआ भी, परंतु यूरोप के विभिन्न देशों की बनती-बिगड़ती आर्थिक स्थितियों के कारण यूरो उतना स्थायित्‍व नहीं पा सका। यूरो आज दूसरे नंबर की वैश्विक मुद्रा होने के बाद भी डॉलर को चुनौती देने में सक्षम नहीं है। जिन देशों ने अपने रिज़र्व यूरो में निवेश किए थे वे पुनः डॉलर की ओर पलायन करने लगे हैं।

परन्तु डॉलर हो या यूरो दोनों ही मुद्रा पश्चिमी राष्ट्रों की मुद्राएं हैं। अन्य महाशक्तियां मुद्रा बाजार में बहुत पिछड़ी हुई हैं। रूस का रूबल कमज़ोर मुद्राओं की श्रेणी में है। जापान का येन स्थिर होने के बाद भी उसे बाज़ार का समर्थन नहीं है। चीन अपनी मुद्रा युवान मज़बूत होने के भय से बाजार में बिना नियंत्रण के डालने में इच्छुक नहीं है। भारत ने अपनी मुद्रा को मुद्रा बाजार में स्वतन्त्र तो छोड़ रखा है किन्तु उसमें हो रही लगातार गिरावट निवेशकों को आकर्षित करने में असमर्थ है। बीच-बीच में भारत की रिज़र्व बैंक को भी रुपए के समर्थन में मैदान में कूदना पड़ता है।

इन परिस्थितियों में जहां अर्थव्यवस्था और मुद्रा पर पूरी तरह पश्चिमी देशों का नियंत्रण है, एशियाई, अफ़्रीकी और दक्षिण अमेरिकी देशों को एक सबल विकल्प चाहिए था। इन्हीं जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ब्रिक्स देशों द्वारा विश्व बैंक का विकल्प खड़ा करना एक उचित एवं स्वागतयोग्य कदम है। पचास अरब डॉलर की शुरुआती पूंजी वाले इस बैंक में ब्रिक्स सदस्यों का बराबरी का योगदान होगा। इस पूंजी को सौ अरब डॉलर तक ले जाने का लक्ष्य है। इस बैंक का उद्देश्य सदस्य राष्ट्रों में निर्माण और विकास योजनाओं को वित्तीय सहायता पहुंचाने का है तथा अन्य अविकसित राष्ट्रों के लिए भी सेवाऐं देने का प्रावधान है। हर सदस्य राष्ट्र को बराबरी का अधिकार रहेगा। बैंक का मुख्यालय शंघाई में रहेगा जबकि प्रथम पांच वर्षों के लिए अध्यक्ष भारत से तथा अगला अध्यक्ष रूस से रहेगा।

रूस के राष्ट्रपति पुतिन भी इस बैंक को लेकर उत्साहित हैं और कहते हैं कि यह बैंक एक महत्वपूर्ण बहुपक्षीय वित्तीय संस्था होगी, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या ब्रिक्स बैंक वैश्विक व्यवसाय में अमेरिकी डॉलर के प्राबल्य को तोड़ने में कामयाब होगा? क्या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक के प्रभुत्व को चुनौती देने में समर्थ होगा जिन पर ब्रिक्स देशों का नगण्य प्रभाव है? जवाब सकारात्मक दिखाई पड़ते हैं क्योंकि इस निर्णय के कार्यान्वयन से ब्रिक्स देश स्वयं अपनी मुद्राओं में विनिमय और व्यापार कर सकेंगे जो अभी तक केवल डॉलर में ही संभव था।

जब ब्रिक्स देशों की मुद्रा में व्यापार आरम्भ होगा तो डॉलर रखने की अनिवार्यता भी समाप्त हो जाएगी और साथ ही खत्म होगा अमेरिकी बैंकों द्वारा लिया जाने वाला कमीशन। ब्रिक्स देशों में आपस में व्यापार संसार में हो रहे व्यापार का 17 प्रतिशत है। डॉलर की सत्ता को चुनौती देने की लिए यह प्रतिशत बहुत अधिक है। इसलिए विशेषज्ञों के अनुसार ब्रिक्स बैंक के खुलने के साथ ही सत्तर वर्षों से चला आ रहा डॉलर का वर्चस्व समाप्त होगा और डॉलर रिज़र्व मुद्रा होने का अपना ख़िताब खो देगा।

स्पष्ट है कि बैंक स्थापित करने का विचार उत्तम तो है ही किन्तु इस योजना को मूर्तरूप देने में कई चुनौतियों का सामना करना होगा। प्रमुख चुनौती आपसी सामंजस्य और विश्वास की होगी। विकासशील देशों में आपस में प्रतिस्पर्धा होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि प्रस्तावित बैंक के मुख्यालय और चेयरमैन के पद को लेकर भारत और चीन में काफी खींचतान हुई। ख़ुशी की बात यह रही कि अंततः शिखर सम्मलेन में सभी राष्ट्राध्यक्ष एक मत पर पहुंचे और सभी राष्ट्रों को समान अधिकार देने पर सहमति हुई। चीन और भारत के बीच आपसी विश्वास इस योजना की सफलता में एक महत्वपूर्ण कड़ी होगी।

अन्यथा कुछ वर्षों पूर्व खाड़ी के देशों ने भी अपनी एक साझा मुद्रा स्थापित करने की घोषणा की थी किन्तु आपसी मतभेदों के चलते यह योजना बीच में ही धराशायी हो गई। आशा करते हैं कि प्रस्तावित ब्रिक्स बैंक की योजना का हश्र ऐसा नहीं होगा क्योंकि पूरी दुनिया के गरीब देशों की आशान्वित निगाहें इस योजना की सफलता पर लगी हैं जो नई आर्थिक व्यवस्था के युग का सूत्रपात करेगी। यह भी उल्लेखनीय है कि संसारभर के समाचार पत्रों में इस बैंक की स्थापना के प्रयासों में भारत के प्रधानमंत्री की महत्वपूर्ण भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है।