मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
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Written By WD

दिल्ली गैंग रेप : अब सवाल खौलने लगे हैं

बलात्कार के बाद भी बार-बार बलत्कृत होती है महिला

delhi gangrape case | दिल्ली गैंग रेप : अब सवाल खौलने लगे हैं
स्मृति आदित्य

दिल्ली में हुए गैंग रेप ने फिर हमारी सुरक्षा व्यवस्था के गाल पर करारा तमाचा मारा है और हम स्तब्ध हैं कि आखिर क्यों और कब तक यह घिनौना कृत्य देश की महिलाओं के साथ होता रहेगा? आखिर कहीं कोई पराकाष्ठा है या नहीं?

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कब तक महिलाओं का नैसर्गिक जीवन यूं ही छला जात‍ा रहेगा और बहस-तर्क-वितर्क-आरोप-प्रत्यारोप-नारे-कोरे भाषण और आलेखों के बीच हर दिन कोई निर्दोष महिला जीते जी मृत्युतुल्य जीवन जीने को बाध्य होती रहेगी??? कब तक?? कभी उड़ीसा की पुलिस कांस्टेबल तो कभी नन्ही-सी फलक, कभी शिवानी तो कभी असम की किशोरी .... क्या फर्क पड़ता है नामों से ... । शिकार तो एक महिला ही होती है ना?

इस देह को लेकर कितनी-कितनी मौत मरती है महिलाएं?? कहां-कहां से ‍कितने-कितने स्तरों पर उसके साथ अत्याचारों-अनाचारों और अनैतिकताओं के किस्से गुंथे जाते हैं?? शर्म भी शर्माने लगी है अब इन पतित कर्मों से लेकिन नहीं शर्माया है तो एक 'पुरुष होने का भाव' जो सामाजिक स्तर पर इतनी-इतनी जगह इस कदर फैल चुका है कि उसे निकाल पाना, धो पाना, पोंछ पाना असंभव ही लगता है कभी-कभी...।

पुरुष तो शायद फिर भी समझने लगे हैं, सभंलने लगे हैं लेकिन समूचे देश की सदियों से चली आ रही व्यवस्था में जो 'पुरुष भाव' पनप चुका है उसे समझा पाना कठिन प्रतीत होता है। चाहे कितने ही कानून बना दिए जाएं, चाहे कितने ही फांसी के फंदे बना लिए जाएं लेकिन बदलाव की मूल जरूरत प्रकृति, स्वभाव और प्रवृत्ति में है, पुरुष में नहीं।

कभी-कभी लगता है हम तो उन आदिवासियों से भी बदतर हैं जो हमारी तरह 'प्रगतिशील' नहीं है लेकिन फिर भी सोच में और व्यवहार में प्रगतिशील हैं। आदिवासियों में आपने कभी बलात्कार की वजह से आत्महत्या नहीं सुनी होगी। कच्चा-पक्का ही सही मगर उनका अपना एक कानून है।

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अव्वल तो उनकी महिलाओं के साथ कोई जोर-जबरजस्ती कर नहीं सकता लेकिन अगर हो गई हो तो भरी पंचायत में खुद महिला से पूछा जाता है कि इस पुरुष के साथ क्या किया जाए? यानी सजा देने का हक पी‍ड़‍ित महिला को होता है। सेंव-गुड़ जैसी प्रथा के तहत शादी जैसा समझौता भी संभव है ‍लेकिन कहीं कोई दबाव नहीं, कोई बाध्यता नहीं। अगर महिला दंड तय करती है तो वही अंतिम मान लिया जाता है।

और देखिए दूसरी तरफ हमारी क्रूर व्यवस्था। पी‍ड़‍िता से ऐसे-ऐसे शर्मनाक सवाल किए जाते हैं कि बलात्कार के बाद वह बार-बार बलत्कृत होती है। शब्दों से, प्रश्नों से, आंखों से, सामाजिक व्यवहार से, अपनों की उपेक्षा से और खुद उसके ही द्वारा खुद को अपवित्र मान लिए जाने से। हम कहां जा रहे हैं?? स्त्रियों को लेकर इस दोहरी और नपुंसक सोच के साथ कितने आगे बढ़ सकेंगे??? शब्द गर्म होकर खौलते हैं लेकिन फिर ठंडे क्यों हो जाते हैं???

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क्या बलात्कार की लगातार बढ़ती घटनाएं हमारे सांस्कृतिक पतन का संकेत तो नहीं? अगर इसे अभी महसूस नहीं किया गया तो मान लीजिए कि महाविनाश का धरातल हम ही तैयार कर रहे हैं... बलात्कार से उपजे सवाल अब अश्रुपुरित नहीं हैं .... जलने लगे हैं दिल, दिमाग और मनोभाव के साथ...