शुक्रवार, 29 मार्च 2024
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Written By WD

क्या करे कांग्रेस?

-निभा चौधरी

क्या करे कांग्रेस? -
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लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस सदमे में है। अभी तक वह अपनी न तो दिशा तय कर पा रही है और न ही दशा सुधारने के लिए कोई ठोस कदम उठा रही है। दस साल तक सत्‍ता में रहने वाली राष्‍ट्रीय पार्टी के लिए 44 के आंकड़े पर सिमटना वाकई में किसी पक्षाघात से कम नहीं है।

कांग्रेस अध्‍यक्ष सोनिया गांधी अभी तक कोपभवन से बाहर नहीं निकल पा रही हैं। हतोत्साहित राहुल गांधी उहापोह में हैं। पार्टी के अंदर उठ रही बागी आवाजों से वे दो-दो हाथ करें या फिर नई ऊर्जा के साथ पार्टी को नेतृत्व दें। अपनों के व्यंग्य बाण के अलावा सहयोगी दल भी बांहें मरोड़ने पर आमादा हैं। और इन सबके अलावा पार्टी के सामने बिना रीढ़ वाले वैसे दिग्गज नेताओं का हुजूम है जिन्हें जनसमर्थन न के बराबर है।

बहरहाल, ऐसा नहीं है कि कांग्रेस इस तरह की परिस्थिति से पहली बार रुबरु हो रही है। इससे पहले स्वर्गीय इंदिरा गांधी को भी इस तरह की बगावत का सामना करना पड़ा था, लेकिन इंदिरा ने न सिर्फ बगावत को कुचला बल्कि हरेक बार पार्टी को भी एक नया जीवन दिया। इतना ही नहीं, सीताराम केसरी से जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली थी तो किसी ने ये नहीं सोचा था कि सोनिया गांधी कांग्रेस को सत्‍ता के गलियारों में ले जाएंगी।

ये एक अलग बात है कि इंदिरा या सोनिया गांधी को कभी इस तरह की बीमार कांग्रेस का सामना नहीं करना पड़ा था। निश्चित तौर पर ये आज राहुल गांधी के लिए एक चुनौती है कि कैसे वो मृतप्राय: कांग्रेस को एक जीवनदान दे पाते हैं या नहीं।
बहरहाल, ये सत्‍ता का खेल है। आज के दौर में, सियासत के व्याकरण का पहला फार्मूला सत्‍ता के साथ चिपके रहना होता है। एक बार आप सत्‍ता से बाहर हुए नहीं कि अपनों का भी हमला काफी तेज हो जाता है।

कहते हैं न कि नाकामयाबी हमेशा अनाथ होती है जबकि सफलता के हजार बाप पैदा हो जाते हैं। चुनाव बाद तमाम सहयोगी दलों ने अपनी हार का ठीकरा भी कांग्रेस के मत्थे फोड़ा। भ्रष्‍टाचार में आकंठ डूबी डीएमके को भी ये लगने लगा कि शायद उसकी हार में भी कांगेस का ही हाथ है। एनसीपी को भी चुनाव बाद ये एहसास हुआ कि उसकी हार के लिए कांग्रेस की नीति जिम्मेदार थी, लेकिन परायों का ये आरोप उतना नहीं चुभता जितना अपनों का।

नारायण राणे के बागी तेवर उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को ही रेखांकित करता है। और अपनी इस महत्वाकांक्षा को उन्होंने बड़ी बेशर्मी के साथ सबके सामने कहा भी कि कांग्रेस आलाकमान ने अपना वादा नहीं निभाया। राणे ने इस बात का खुलासा नहीं किया कि आलाकमान ने उनसे क्या वादा किया था, लेकिन राजनीतिक विश्‍लेषकों का मानना है कि उनका इशारा मुख्‍यमंत्री पद के लिए है। अब एक ऐसा नेता जो अपने बेटे की जीत को सुनिश्चित नहीं करा सका वो पूरे राज्य में कांग्रेस का बेड़ा कैसे पार लगाएगा। एक छोटे से कोंकण इलाके में जब जनता ने राणे की रहनुमाई को खारिज कर दिया तो कैसे उन्हें महाराष्‍ट्र स्वीकार करेगा। पहले राणे अगर ये साबित कर देते कि उनकी वजह से महाराष्‍ट्र में कांग्रेस को कम से कम दस सीट मिल गई हैं, तब तो उनके बागी तेवरों के सामने कांग्रेस आलाकमान घुटने भी टेक सकती थीं, लेकिन ऐसे को तो पार्टी से बाहर ही निकाल दिया जाए तो वो एक बढ़िया फैसला रहेगा।

अभी तक राहुल गांधी पर जितने भी हमले हुए हैं वो ऐसे नेताओं से हुए हैं जिनकी पहचान सत्‍ता-लोलुप नेता के रूप में है। साथ ही उनके पैरों तले जमीन भी घिसक चुकी है। वे यह जानते हैं कि अगर वे गांधी परिवार पर हमला करते हैं तो वे भाजपा के गुड-बुक में तो दाखिल होंगे ही साथ ही मीडिया कवरेज भी मिलेगी। हाल ही में मध्‍यप्रदेश के एक कांग्रेसी नेता गुफरान आज़म ने राहुल पर हमला बोला। अब ये आज़म साहब सिर्फ एक बार लोकसभा में रहे और दो बार कांगेस की कृपा से राज्यसभा के सदस्य बने। इनका भाजपा प्रेम भी किसी से छुपा नहीं है। भाजपा शासित प्रदेश में वे भाजपा नेताओं की मदद से वक्फ बोर्ड के चेयरमैन बने। अब अगर ये बदले मौसम के साथ अपना सुर बदल लें तो इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है। राजस्थान और केरल के नेताओं ने भी राहुल पर जमकर हमला बोला, लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि इन नेताओं के बलबूते कांग्रेस उन राज्यों में खड़ी है। वे अपनी सीट बचा लें, इतना ही काफी है।

कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या ये है कि जिस राज्य में वो सत्‍ता में है वहीं बगावत सबसे ज्यादा है। असम, हरियाणा, महाराष्‍ट्र, उतराखंड सभी जगह बागी सुर साफ सुनाई दे रहे हैं, लेकिन ये नहीं कहा जा सकता है कि जिन्होंने बगावती तेवर अपनाए हैं उनके पीछे जनसमर्थन का सैलाब है। इन बागी नेताओं में अधिकांश ऐसे नेता हैं जो चुनाव हार चुके हैं। उनकी राजनीतिक हैसियत पर एक बड़ा सवालिया निशान लगा हुआ है। इनके अलग होने या बागी रुख अपनाने से कांग्रेस का कितना नफा या नुकसान होगा, ये कहना मुश्किल है, लेकिन इतना जरूर है कि जिस तरह कि परिस्थितियां कांग्रेस के सामने आ रही हैं, वो अपने आप में कांग्रेस के लिए एक वरदान ही है।

खासतौर से क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस के संबंध। नेशनल कॉन्‍फ्रेंस से अलग होने का फैसला कांग्रेस कर ही चुकी है। उधर महाराष्‍ट्र में एनसीपी के साथ चल रही तनातनी का भी लब्बोलुआब यही है कि एनसीपी को भी ये लग रहा है कि कमजोर कांग्रेस से मनमानी की जा सकती है। ये एक अलग बात है कि चाहे एनसीपी हो या द्रमुक या फिर नेशनल कॉन्‍फ्रेंस, कोई भी अपना किला नहीं बचा पाई है।

अगर जम्मू-कश्‍मीर में कांग्रेस ने नेशनल कॉन्‍फ्रेंस से रिश्‍ता तोड़ लिया है तो ये कांग्रेस के लिए फायदेमंद ही साबित होगा। कम से कम हरेक जिले में कांग्रेस को एक नए सिरे से शुरुआत करनी पड़ेगी। हरेक जिले, कस्बे में किसी न किसी तरह से पार्टी का ढांचा खड़ा करना पड़ेगा। मुमकिन है कि अगले चुनाव में उन्हें मनोवांछित नतीजे नहीं मिलें लेकिन इस हकीकत को नकारा नहीं जा सकता कि एक बार फिर से पार्टी के ढांचे को खड़ा करने में मदद मिलेगी।

आज भी बिहार के काफी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का मानना है कि राजद और दूसरे क्षेत्रीय दलों के साथ सांठगांठ करने की वजह से पार्टी का वजूद राज्य में लगभग समाप्त हो चुका है और अगर जमीनी कार्यकर्ताओं की बात सुनी जाए तो उनका यही कहना है कि चुनाव जीतना और हारना एक अलग बात है और पार्टी को एक बार फिर से पुनः जीवित करना दूसरी बात है।

और अगर पार्टी को फिर से खड़ा करना है तो निस्संदेह राहुल गांधी को बाहर निकलना होगा। दस जनपथ या कांग्रेस मुखयालय में बैठकर कांगेस में रक्त-संचार नहीं किया जा सकता। पहले उन जगहों की पहचान करनी होगी जहां कांग्रेस काफी कमजोर है। जमीनी कार्यकर्ताओं के साथ संवाद बढ़ाना होगा। उन कार्यकर्ताओं की पहचान करनी होगी जो पार्टी के सिद्धांतों के साथ जुड़े हुए हैं। साथ ही उस तरह के नेतृत्व को बढ़ाना होगा जो कार्यकर्ताओं के साथ कदम मिलाकर चल रहे हों और उन्हें अवाम का समर्थन भी प्राप्त हो।

आज कांग्रेस की सबसे बड़ी परेशानी ये है कि उनके यहां कार्यकर्ताओं की भारी कमी दिख रही है। जब तक ब्लॉक स्तर पर कार्यकर्ताओं की एक मजबूत टीम नहीं बनाई जाती है तब तक कांग्रेस की वापसी की उम्मीद करना बेमानी होगा। खासतौर पर कांग्रेस को अभी से उन राज्यों में कमर कसकर कूदना पड़ेगा, जहां अगले कुछ महीने में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।

कांग्रेस को अपनी सेहत सुधारना सिर्फ पार्टी के लिए ही नहीं बल्कि एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए भी आवश्‍यक है। आज हमारे पास विपक्ष का नेता नहीं है। क्षेत्रीय दलों में वो कुव्वत नहीं है कि वो भाजपा का सामना कर सके। ऐसी परिस्थिति में एक मजबूत और ऊर्जावान राष्‍ट्रीय पार्टी की जरूरत को नकारा नहीं जा सकता और अपनी पुरानी गलतियों से सीख लेते हुए कांग्रेस इस जरूरत को पूरा कर सकती है।