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Written By WD

एंटनी कमेटी रिपोर्ट की हकीकत

-निभा चौधरी

एंटनी कमेटी रिपोर्ट की हकीकत -
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लोकसभा चुनाव के बाद विश्लेषण और विवेचना का दौर अभी तक चल रहा है। कोई अपनी जीत का तो कोई अपनी हार का पोस्टमॉर्टम कर रहा है। भगवा ब्रिगेड के मुखिया मोहन भागवत इसे अनिवार्य जीत और जनता की इच्छा-आकांक्षा बता रहे हैं।

आरएसएस के सुप्रीमो मोहन भागवत का मानना है कि भाजपा को ये अप्रत्याशित जीत किसी नेता की वजह से नहीं बल्कि इसलिए मिली कि जनता कांग्रेस के कुशासन से उकता गई थी और विकल्प की तलाश में थी और भाजपा ने एक अच्छा विकल्प दिया और इसलिए ही भाजपा की जीत हुई।

ये दूसरी बात है कि भक्त चैनलों ने मोहन भागवत के इस सुविचार को ज्यादा तरजीह नहीं दी और इसे नीचे पट्टी पर एक-दो बार चलाकर ही निपटा दिया।

भागवत साहब को अब ये एहसास हो गया होगा कि भक्त चैनल उनके उन बयानों से खेलने के मूड में नहीं हैं जिसके निशाने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी होते हैं। खबरों में बने रहने की ख्‍वाहिशें दिलों में संजोये हुए मोहन भागवत ने जब दूसरी बार मुंह खोला तो वे सिर्फ हिन्दुत्व पर ही अपना ज्ञान देकर रह गए।

उधर कांग्रेस अभी तक अपनी हार का विश्लेषण कर रही है। एंटनी कमेटी ने साफ शब्दों में कह दिया है कि लोकसभा चुनाव में हार के लिए राहुल गांधी को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता है और इस कमेटी का ये निष्कर्ष निश्चित ही तर्कसंगत है। कांग्रेस की हार के लिए सिर्फ राहुल को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

2009 में इसी राहुल के नेतृत्व में उतरप्रदेश में कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं और उस चुनाव में कांग्रेस काफी मजबूत होकर सता में आई थी। लेकिन उसके बाद जिस तरह सुनियोजित तरीके से कांग्रेस पर हमला हुए उससे ये साफ हो गया कि कांग्रेस की उलटी गिनती शुरू हो गई है।

कांग्रेस नेतृत्व कभी भी उन हमलों का डटकर मुकाबला नहीं कर पाईं। अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और श्रीरविशंकर की तिकड़ी ने जिस तरह अपने चक्रव्यूह में मनमोहन सिंह सरकार को घेरा, उससे कांग्रेस कभी बाहर नहीं निकल पाई। कांग्रेस ये तय नहीं कर पा रही थी कि उन आंदोलनों से कैसे निपटा जाए।

कभी एयरपोर्ट पर अपने चार-चार मंत्रियों को बाबा रामदेव की अगुवाई करने के लिए दौड़ा दिया तो कभी बाबा को सलवार-कुर्ती पहनकर भागने को मजबूर कर दिया। सरकार कभी साष्टांग दंडवत करती रही तो कभी रौद्र रूप दिखाती रही।

दूसरी तरफ, अन्ना हजारे के साथ भी कुछ ऐसा ही सलूक होता रहा। लेकिन अन्ना हजारे के तत्कालीन सेनापति अरविंद केजरीवाल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं और श्रीरविशंकर के भक्तगणों की मदद से ऐसी जंग छेड़ी कि सरकार बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में आ गई।

अन्ना एंड कंपनी ने भ्रष्टाचार को इस कदर मुद्दा बनाया कि ये लगने लगा कि कांग्रेस ही घोटालों का पर्याय है। इस मुहिम से कांग्रेस को काफी नुकसान पहुंचा। राजधानी दिल्ली से लेकर गांव-कस्बों तक इस आंदोलन की कामयाबी इतनी जरूर रही कि आम जनता को ये एहसास होने लगा कि अगर मुल्क में भ्रष्टाचार है तो वो सिर्फ कांग्रेस की वजह से है।

कांग्रेस को इस प्रायोजित आंदोलन से एक रणनीति के तहत निपटना चाहिए था। साम-दाम-दंड-विभेद का इस्तेमाल होना चाहिए था। साथ ही जनता में ये संदेशा भी पहुंचाना चाहिए था कि कांग्रेस भी उतना ही तत्पर है भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए जितनी ये तिकड़ी।

और जब तक कांग्रेस इस आंदोलन से निपटने के लिए कमर कसती, तब तक काफी नुकसान हो चुका था। इस नुकसान का ही ये नतीजा था कि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में 44 के आंकड़े पर सिमट गई।

इतना ही नहीं, कांग्रेस के सहयोगी भी लगातार ताबूत में कील ठोकने का काम करते रहे और इस दर्द को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी यदा-कदा जगजाहिर किया था। जब उन्होंने संकेतों में ये कहा था कि गठबंधन सरकारों की अपनी मजबूरी होती है। ये मनमोहन सरकार की सबसे बड़ी चूक थी।

अगर उसी वक्त मनमोहन सिंह ने कड़ा रुख अपनाया होता तो वो एक तीर से दो-दो शिकार कर लिए होते। एक तो अन्ना आंदोलन से वे निपट लेते और दूसरे कांग्रेस की छवि को भी वो बदरंग नहीं होने देते। प्रधानमंत्री ने ये सब करने की बजाय मौन धारण कर लिया।

और अगर राहुल गांधी ने मुंह खोला भी तो ऐसा लगा कि वे स्वयं भी मनमोहन सिंह के रवैये से नाराज हैं। जब प्रेस क्लब में राहुल गांधी ने दागी सांसदों के बिल को फाड़ा तो उन्होंने कांग्रेस का ही ज्यादा नुकसान किया।

एक स्वच्छ छवि वाले प्रधानमंत्री को भी उस भीड़ में खड़ा कर दिया, जहां सभी भ्रष्ट ही नजर आ रहे थे। कुल मिलाकर मनमोहन सिंह की छवि ऐसी बनी कि लोग उन्हें बेईमानों की फौज का एक कमजोर और निरीह कप्तान मानने लग पड़े।

अगर हम यूपीए-दो के कार्यकाल को ध्यान से देखें तो हम पाएंगे कि कांग्रेस के तमाम नेता पूरे 5 सालों तक अपने ही पाले में गोल डालते रहे।

उनके उटपटांग बयान, अहंकार और जनता से नित-प्रतिदिन बढ़ती दूरी ही उनकी शर्मनाक पराजय का कारण बनी और इसके लिए मनमोहन सिंह से लेकर राहुल गांधी और तमाम मंत्री को जिम्मेवार माना जा सकता है।

और दुखद आश्चर्य की बात ये है कि कांग्रेस अभी तक आगे की रणनीति पर काम नहीं कर पा रही है। न तो पार्टी का पुनर्गठन हुआ है और न ही राहुल या कांग्रेस का कोई बड़ा नेता जनता के पास गया है।

सिर्फ लोकसभा में विपक्षी दल का तगमा लेने के लिए ही जद्दोजहद करने की जरूरत नहीं है- आम जनता के दिलों में भी एक सशक्त विपक्षी दल की छवि बनाने की जरूरत है।