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Written By WD

आम चुनाव तथा वर्तमान चुनाव प्रणाली

-मिलाप चौरड़िया

आम चुनाव तथा वर्तमान चुनाव प्रणाली -
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आम चुनावों के इस मौसम में भारत में प्रचलित वर्तमान चुनाव प्रणाली के दोष व गुणों की विवेचना पूर्णत: प्रासंगिक होगी। भारत में 25 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारतीय स्वतंत्रता कानून 1947 को लागू किया गया था जिसकी धारा 8 उपधारा 2 के अंतर्गत भारत को संविधान सहित संपूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था को यथासंभव भारत में अंग्रेज प्रशासन के संचालन के लिए प्रचलित तत्कालीन भारत सरकार कानून 1935 के अनुरूप अपनाने का अधिकार दिया गया था। फलस्वरूप हमें संविधान बनाते वक्त वर्तमान चुनाव प्रणाली को बहुत ही सामान्य परिवर्तन के साथ स्वीकार करना पड़ा था।

हमें यह भी समझना होगा कि ब्रिटिश चुनाव प्रणाली पर आधारित हमारी चुनाव प्रणाली में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले प्रत्याशी को ही विजयी घोषित किया जाता है। ब्रिटेन से पूर्णत: भिन्न भारत में अनेक धर्मों, भाषाओं तथा संस्कृतियों तथा सामाजिक परिस्थितियों के फलस्वरूप हमारी चुनाव प्रणाली देश में प्रतिनिधित्वमूलक लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने में पूर्णत: असफल रही है।

यही नहीं, 1857 के वक्त प्रचलित समाज की एकता को इस प्रणाली ने पूर्णत: खंडित करने का कार्य तो किया ही है, वरन देश में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा राजनीति के अपराधीकरण के मूल में यही ‍चुनाव प्रणाली रही है। यही नहीं, यह प्रणाली सब प्रकार के अनुचित माध्यम अपनाकर जवाबदेहीरहित सत्ता प्राप्ति का माध्यम-भर बनकर रह गई है इसीलिए पूरे देश में इस वक्त किसी भी नेता को राष्ट्रीय नेता का दर्जा प्राप्त नहीं है।

अधिकांश राजनीतिक दल व्यक्ति विशेष की व्यक्तिगत संपत्ति मात्र बनकर रह गए हैं। वर्तमान चुनाव प्रणाली के अंतर्गत लोकतंत्र के मौलिक आधार एवं आवश्यकता के अनुरूप जिम्मेदारी, जवाबदेही तथा पारदर्शिता पर आधारित दलों का संचालन संभव ही नहीं रह गया है, वरन इनके नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ही दलों के संचालन का मूल आधार होती है।

चुनाव प्रणाली की अनेक खामियों का लाभ उठाते हुए नए-नए राज‍नीतिक दल कुकुरमुत्तों की तरह पैदा होते रहे हैं अत: चुनाव प्रणाली में आमूलचूल ‍परिवर्तन अतिआवश्यक है। सबसे पहले हमें चुनाव प्रणाली में मतदाता का संपूर्ण लोकतां‍त्रिक महत्व स्थापित करने के लिए पं‍जीकृत मतदाताओं को चुनाव प्रणाली का मूल आधार स्वीकार करना होगा।

राजनीतिक दलों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने हेतु प्रत्येक अगले एक चुनाव तक के लिए राष्ट्रीय या राज्यस्तर का मान्यता प्राप्त दल घोषित करने के लिए कुल पंजीकृत मतदाताओं के 10 प्रतिशत का समर्थन प्राप्त करना आवश्यक होना चाहिए ताकि राजनीतिक दल समाज के विभाजन की राजनीति छोड़ समाज के सभी वर्गों का समर्थन प्राप्त करने वाले कार्यों के लिए प्रेरित हो सकें।

विधानसभा तथा लोकसभा का निर्धारित कार्यकाल 3 वर्ष से अधिक का नहीं होना चाहिए। चुनावों की पूर्व घोषित ‍तिथि से 6 माह पूर्व राष्ट्रीय स्तर के मान्यता प्राप्त दल को प्रधानमंत्री पद तथा राज्यस्तरीय मान्यता प्राप्त दल को प्रांत के मुख्यमंत्री पद के लिए अपने प्रत्याशी के नाम की घोषणा करने का अधिकार होना चाहिए।

मान्यता प्राप्त दलों द्वारा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के निर्वाचन के लिए संबंधित दलों द्वारा लोकसभा या राज्य की विधानसभा के लिए बनाए जाने वाले सभी प्रत्याशियों के पक्ष में आने वाले कुल मतों की संख्या के आधार पर सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले प्रत्याशी को प्रधानमंत्री या राज्य का मुख्यमंत्री घोषित करने वाली प्रणाली को अपनाना चाहिए।

यही नहीं, प्रधानमंत्री या राज्य के मुख्यमंत्री के ऐसे प्रत्याशियों को लोकसभा या राज्य विधानसभा के स्व:‍निर्वाचित सदस्य भी माना जाना चाहिए। इस व्यवस्था के अंतर्गत किसी भी सदन में ऐसे स्व:निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या दो या तीन से अधिक नहीं हो पाएगी।

किसी भी व्यक्ति को लोकतांत्रिक प्रणाली के माध्यम से प्रथम बार प्रत्याशी बनने का अधिकार सर्वप्रथम निचले स्तर के निकाय चुनावों में हिस्सा लेने से ही शुरू करना चाहिए। निचले स्तर के निकाय में निर्वाचित जो जनप्रतिनिधि दो बार बगैर किसी प्रकार के भ्रष्टाचार या अपराध के दोष से मुक्त रहकर अपना कार्यकाल पूर्ण कर पाता हो, उसे ही राज्य विधानसभा निर्वाचन के लिए प्रत्याशी बनने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

इसी प्रकार विधायक बगैर किसी प्रकार के भ्रष्टाचार या अपराध के दोष से मुक्त रहकर अपने दो कार्यकाल पूर्ण करता हो, तब ही लोकसभा की सदस्यता के निर्वाचन हेतु प्रत्याशी बनने का अधिकार होना चाहिए।

हमने यह भी देखा है कि चुनावों के माध्यम से एक नई प्रकार की जमींदारी व्यवस्था पनप रही है। इस नई प्रकार की जमींदारी व्यवस्था से बचाने के लिए किसी भी एक पद के लिए किसी भी व्यक्ति को सिर्फ 2 या 3 बार ही प्रत्याशी बनने का अधिकार होना चाहिए।

अगर कोई प्रत्याशी किसी चुनाव में अपने निर्वाचन क्षेत्र के 10 प्रतिशत पंजीकृत मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने में असफल रहता है तो उसे भविष्य में एक नियत अवधि के लिए किसी भी चुनाव में प्रत्याशी बनने पर रोक रहनी चाहिए ताकि रातोरात नेता बनने वालों को चुनाव प्रणाली से मुक्त रखा जा सके।

वर्तमान चुनाव प्रणाली के विभाजन करने वाले प्रभाव को समाप्त कर तथा चुनाव प्रणाली के प्रभाव से ही समाज में एकता स्थापित की जा सकती है, बशर्ते उपरोक्त चुनाव सुधारों के अलावा स्थानीय निकायों के प्रत्याशियों को निर्वाचित होने के लिए चुनाव में कम से कम 30 प्रतिशत तथा विधायक तथा संसद के लिए 20 प्रतिशत पंजीकृत मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करना आवश्यक कर दिया जाए।

इसका प्रभाव समाज की जरूरत एवं एकता को ध्यान रखने वाली नीति को अपनाना एक प्रकार की बाध्यता बन जाएगी। फलस्वरूप इसके प्रत्यक्ष प्रभाव के तौर पर विभाजन की नीति अपनाने वाले राजनेता तो स्वत: राजनीति से अलग हो जाएंगे। 2 या 3 बार से अधिक बार प्रत्याशी बनने का प्रतिबंध मुख्यमंत्री सहित सभी पदों के लिए लागू होना चाहिए।

ऐसी व्यवस्था के प्रभाव से पारदर्शी, जवाबदेह, स्थायी तथा प्रभावशाली कार्यशील सरकार की व्यवस्‍था शुरू हो सकती है। ये चुनाव सुधार संभवत: प्रारंभ में अत्यंत कठोर लग सकते हैं, परंतु चुनाव प्रणाली को भारतीय परिस्थितियों के मद्देनजर अपनाने पर इनके सुखदायी दूरगामी प्रभाव भी अवश्य ही सामने आ सकते हैं।

यही नहीं, उपरोक्त चुनाव सुधारों को एकमुश्त लागू करने पर चुनावों में खर्च होने वाली राशि भी काफी कम मात्रा में खर्च होगी जिससे ईमानदार लोगों को चुनावों में प्रत्याशी बनने के लिए भी प्रोत्साहन प्राप्त होगा। फलस्वरूप भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लग सकेगा।