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Written By उमेश चतुर्वेदी
Last Updated : मंगलवार, 8 जुलाई 2014 (14:40 IST)

आखिर केजरीवाल ने मानी गलती

आखिर केजरीवाल ने मानी गलती -
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दिल्ली में सरकार बनाकर उसे किसी तार्किक परिणति तक ना पहुंचाने के पहले ही जब 16 फरवरी को केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया था, उस दिन उनके समर्थकों को ही नहीं, उनके विरोधियों को भी झटका लगा था। यह बात और है कि उनके इस्तीफे के संकेत 21 जनवरी को तभी मिलने लगे थे, जब उन्होंने तीन पुलिसवालों को हटाने की मांग को लेकर दिल्ली में रेलभवन के पास धरना देना शुरू कर दिया था। उनके चंद समर्थकों को छोड़ दें तो उनके दोनों ही कदमों को सही नहीं माना गया।

यह बात और है कि केजरीवाल ने अपने इस्तीफे को तब गलत नहीं माना। लेकिन लगता है कि चुनावी अभियान में उन्हें पता लग गया है कि उनकी इस गलती के चलते कितने सवाल पूछे जा रहे हैं। शायद इस गलती ने उनके प्रति लोगों के उस भरोसे को भी कमजोर किया है, जो उनके साथ पिछले साल के दिसंबर तक थी। तब उनमें देश के एक बड़े वर्ग को उम्मीद की किरण नजर आ रही थी। सड़ी व्यवस्था और विचलित लोकतंत्र के बीच उनके अभियान देश को नई उम्मीद देते नजर आए थे। लेकिन जब कर्मक्षेत्र को उन्होंने अचानक से ही बीच मंझधार में छोड़ दिया तो उनकी छवि रणछोड़ यानी युद्ध को बीच में ही छोड़ देने वाले की बनी। यही वजह है कि उनके प्रति लोगों का भरोसा कम हुआ और एक वर्ग के बीच उनकी साख भी घटी। इसके लिए बेशक वे अपने विरोधी यानी कांग्रेस और बीजेपी को जिम्मेदार ही ठहराते रहे हैं। लेकिन अंग्रेजी अखबार इकोनॉमिक टाइम्स को दिए साक्षात्कार में उन्होंने मान लिया है कि इस्तीफा देने का उनका फैसला पूरी तरह गलत था।

अरविंद को देर-सवेर यह भी मानना होगा कि उनका सरकार बनाने का फैसला भी गलत था। दिल्ली की जनता का एक बड़ा वर्ग आज भी मानता है कि अगर उन्होंने सरकार नहीं बनाई होती तो दिल्ली में जो भी सरकार बनती, वह अरविंद की हल्लाबोल राजनीति से आक्रांत रहती और दिल्ली में कम से कम एक आदर्श के तौर पर उसे सम्भलकर चलाना पड़ता। जिसमें पारदर्शिता होती, भ्रष्टाचार नहीं होता और अंतत: दिल्ली की जनता को ही फायदा होता।

अरविंद को भी पता था कि उनकी अल्पमत की सरकार को चला पाना आसान नहीं होने वाला। ऐसे में उनके लिए विपक्ष की राजनीति ही मुफीद रहती। इसका उन्हें निश्चित तौर पर मौजूदा आम चुनाव में उनकी पार्टी को फायदा होता। जनता की उम्मीदों का रथ उनकी पार्टी के उम्मीद से ज्यादा कार्यकर्ताओं को संसद की देहरी पर ससम्मान पहुंचाता। लेकिन अरविंद यहां पर चूक गए और इस चूक का खामियाजा पढ़े-लिखे वर्ग के एक तबके का समर्थन खोकर चुकाना पड़ा। बेशक सोशल मीडिया पर अरविंद को वाराणसी और कुमार विश्वास को अमेठी में अहम उम्मीदवार माना जा रहा हो, तमाशाई संस्कृति के पोषण इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी उनकी उम्मीदवारी इन इलाकों में चकदार लग रही हो। लेकिन हकीकत यह है कि ठोस जमीन पर उन्हें इन इलाकों में गंभीर उम्मीदवार ही नहीं माना जा रहा है।

जिन अंजलि दमानिया ने नितिन गडकरी को दोबारा बीजेपी अध्यक्ष नहीं बनने दिया, वह अंजलि दमानिया नागपुर में उसी नितिन गडकरी के खिलाफ गंभीर प्रत्याशी नहीं मानी जा रही हैं। जाहिर है कि इन सबके लिए जिम्मेदार अरविंद के वे कदम रहे, जिन्हें उन्होंने जल्दीबाजी उठाए। अब अरविंद को भी पता चल रहा है कि राजनीति में कई बार रणनीति भी अहम होती है, सिर्फ ईमानदारी की चिल्लम-चिल्ली ही काम नहीं आती। गलतियां तो उन्होंने टिकट बांटने में भी कम नहीं की है।

आशीष खेतान की जगह अगर वे शाजिया इल्मी को नई दिल्ली, आनंद कुमार को उत्तर पूर्व दिल्ली की बजाय दक्षिण दिल्ली से उतारते तो हो सकता था कि नतीजे कुछ ज्यादा ही बेहतर होते। अरविंद ने अपनी गलती मानने की शुरुआत कर दी है और देर-सवेर दूसरी गलतियों की तरफ भी उनका ध्यान जाएगा और वे मानेंगे कि उनकी गलतियों से जनता ने क्या खोया है। जनता के खोने की बात इसलिए, क्योंकि वे खुद नहीं मानते कि उन्होंने कुछ खोया है।

अरविंद की आम आदमी पार्टी में अब विचारधाराओं का भी टकराव भी नजर आने लगा है। आपसी खींचतान की खबरें तो सामने आने ही लगी हैं। दिल्ली के लक्ष्मीनगर से विधायक विनोद कुमार बिन्नी ने जो शुरुआत की थी, वह बढ़ते ही जा रहा है। निश्चित तौर पर इस खींचतान में अरविंद और उनकी आम आदमी पार्टी के उस उच्चाधिकार प्राप्त कमेटी के फैसलों का भी हाथ है, जिसे राजनीतिक मामलों की समिति कहा जाता है। आंतरिक और पारदर्शी लोकतंत्र के विकास के नाम पर विकसित इस पार्टी में जब से उच्चाधिकार प्राप्त राजनीतिक मामलों की समिति बनी है, फैसलों की गलती बढ़ी है।

देखना यह है कि इसकी गलती अरविंद कब स्वीकार करते हैं, लेकिन एक बात तय है कि अरविंद का नाम नहीं, अरविंद प्रवृत्ति जब तक राजनीति में रहेगी..भले ही वह कमजोर रहे...भारतीय लोकतंत्र के उन दलों को लोकतांत्रिक तानाशाह बनने से रोकती रहेगी, जो सत्ता में आते ही तानाशाह बन जाती हैं। लिहाजा उम्मीद एक किरण अब भी बाकी मानी ही जानी चाहिए। (लेखक टेलीविजन पत्रकार और स्तंभकार हैं।)