अन्ना, अनशन और पीएम का 'इफ्तार'
एक तरफ अनशन, दूसरी तरफ जश्न
कल टीवी पर चैनलों पर पर दो तस्वीरें पेश की जा रही थी। एक तरफ रामलीला मैदान के मंच पर अन्ना के अनशन का नौवां दिन चल रहा था और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की विशाल इफ्तार पार्टी। जिन संवेदनशील भारतीय दर्शकों ने यह देखा होगा मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि उनका मन धिक्कार उठा होगा। शर्म से सिर झुक गया होगा। यह वही राजनीतिक दल है जिसे हमने वोट देकर अपने लिए चुनकर सरकार बनाने का अवसर दिया है। यह वही नेता है जो चुनाव के समय हमें गरीबी, भूख, बेकारी और बेरोजगारी को दूर करने का सुनहरा सपना दिखाते हैं। यह वही नेता है जो शहर के चौराहों पर बड़े-बड़े पोस्टरों में विनम्रता का आवरण ओढ़े हाथ जोड़े कुटील मुस्कान सजाए आदमकद नजर आते हैं। यह वही नेता है जो सत्ता से पहले हमारी गलियों की धूल फांकते हैं और सत्ता मिलते ही महंगी कारों के काफिले से हमारे ही मुंह पर धूल उड़ाते चले जाते हैं। पार्टी में विपक्ष भी खिलखिला रहा था चाहे वह ईमानदारी की पक्षधर सुषमा स्वराज हो या नैतिकता की दुहाई देते आडवाणी। हर दल, हर नेता, हर मंत्री। बेशर्म नेताओं की इससे बड़ी बेशर्मी और कहां मिलेगी? एक तरफ देश का एक सच्चा नागरिक पूरे देश के हित के लिए गांधी के आदर्शों को आत्मसात करता हुआ अपने प्राणों की बाजी लगा रहा है और दूसरी तरफ 'प्रधानमंत्री' कहा जाने वाला 'शख्स' और उसकी संवेदनशीलता(?), सामाजिकता(?) और मानवीयता (?) देखिए कि नेताओं का मजमा लगा कर करोड़ों लोगों की भावनाओं को प्लेट में परोस कर अन्ना के अनशन का जश्न मना रहा था। इफ्तार पार्टी परस्पर भाईचारा, सौहार्द्र और एकता के लिए हर साल प्रधानमंत्री द्वारा दी जाती है। यह एक स्वस्थ और आकर्षक परंपरा है। यह परंपरा बनी रहनी चाहिए मगर क्या देश के वर्तमान हालातों में यह इफ्तार पार्टी सरकार के अमानवीय रूख का घृणित संकेत नहीं देती? इन्हीं नेताओं की बेईमान वाणी कहती है कि नेता कहीं और से नहीं आते। वे भी इंसान है। वे भी इसी समाज से आते हैं। लेकिन यह इफ्तार पार्टी और इसमें गुंजते क्रूर अट्टहास को देखकर तो यही लगा कि नहीं नेता इंसान नहीं होते, वे इस समाज का हिस्सा नहीं है। वे एक अलग ही प्रजाति का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक ऐसी प्रजाति जो सिर्फ अपने पेट की भूख जानती है। पेट, जो 'अन्न' से नहीं भरता बल्कि 'अन्ना' जैसे इंसानों के बलिदानों से भरता है। आम आदमी की आहों से भरता है। करारे नोटों की महक से भरता है। पेट, जो देश के लिए भूखे बैठें इंसान को देखकर तृप्त होता है। जब जनता कहती कि नेताओं की कोई जाति नहीं होती, नेता अव्वल दर्जे का बेशर्म और बेगैरत इंसान होता है तब इन नेताओं को तकलीफ होती है। लेकिन अपने आचरण से यही नेता बार-बार यह सिद्ध करते हैं कि इनका धर्म सिर्फ कुर्सी होता है, इनकी जाति सिर्फ सत्ता होती है। अगर ऐसा नहीं होता तो प्रधानमंत्री देश के इन हालातों में इफ्तार पार्टी करने की हिम्मत नहीं जुटाते और अगर पार्टी का आयोजन हो भी गया होता तो विपक्ष का या पक्ष का कोई तो नेता वहां जाने से हिचकिचाता। अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि अगर यह इंसान होते तो हर निवाले के साथ इन्हें अन्ना का तप से दमकता चेहरा और अनशन से मुरझाता शरीर याद आता। मगर ऐसा नहीं हुआ... हम कैसे मानें कि यह देश जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा चलाया जाने वाला देश है। जब सारी दुनिया एक चमत्कारिक व्यक्तित्व के अनशन से व्याकुल हो रही है तब हमारी सरकार इफ्तार पार्टी कर अपने 'अहम' के पकवान उड़ा रही है। अगर यही इस राजनीति का अंतिम सच है तो एक बार, सिर्फ एक बार पूरे देश की जनता को चुनावों का बहिष्कार करना होगा और हर मोहल्ले में एक 'अन्ना' को जन्म लेना होगा।