-सहबा जाफ़री
कितनी मुद्द्त बाद मिले हो, वस्ल का कोई भेद तो खोलो
कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो
क्या अब भी, इन रातों में ख़्वाबों के लश्कर आते हैं
क्या अब भी नींदों से नींदों पुल जैसे बन जाते हैं
क्या अब भी पुरवा कानो में गीत सुहाने गाती है
क्या अब भी वह मीठी आहट, तुम्हें उठाने आती है
क्या अब भी छू जाती है, तुमको भरी बरसात तो बोलो
कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो
क्या अब भी सोते में तुम बच्चों से जग जाते हो
क्या अब भी रातों में तुम देर से घर को आते हो
क्या अब भी करवट करवट, बिस्तर की सिलवट चुभती है
क्या अब भी मेरी आहट पर सांस तुम्हारी रुकती है
क्या अब भी है लब पर अटकी, कोई अधूरी बात तो बोलो
कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो
क्या अब भी मेरी खिड़की से तेरी सुबह होती है
क्या अब भी तेरे शीशे की धूप किसी को छूती है
क्या अब भी होली के रंग में एक रंग मेरा होता है
क्या अब भी यादों का सावन तेरी छत को भिगोता है
क्या अब भी मेरे होने का, होता है एहसास तो बोलो
कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो
नींद से जागे नयन तुम्हारे, क्या आज भी बहके लगते हैं
रजनीगंधा "मेरे वाले'' क्या आज भी महके लगते हैं?
मुझको छू कर आने वाली हवा तुझे महकाती है ?
मेरी चितवन की चंचलता, नींदें तेरी उड़ाती है ?
अब भी जाग के तारे गिनती होती है हर रात तो बोलो!
कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो