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Written By ND

जब तक ईश्वर तभी तक धर्म

- मधुसूदन आनन्द

जब तक ईश्वर तभी तक धर्म -
सुप्रसिद्ध पत्रकार अरुण शौरी ने हाल ही में 'धर्मों पर पुनर्विचार' विषय पर अपने एक भाषण में कहा कि इस शताब्दी के मध्य तक धर्म का स्वरूप एकदम भिन्न होगा। सूचना समाज के उदय से ऐसे परिवर्तन होंगे कि धर्म के वर्तमान स्वरूप को तब पहचानना तक मुश्किल हो जाएगा। दुनिया का तेजी के साथ लोकतांत्रीकरण हो रहा है और दुनिया अब काफी छोटी हो गई है। इसलिए धर्मों से संबंधित धारणाएँ पहले जैसी नहीं रहने वाली।

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धर्म से जुड़ी कुछ धारणाएँ तो भविष्य में टिक ही नहीं पाएँगी। उनकी इस स्थापना से प्रसिद्ध विज्ञान लेखक मुकुल शर्मा इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने इकॉनामिक टाइम्स में लिखा कि अगर अरुण शौरी नेताओं में बैठे होते और खुद अपना भाषण सुन रहे होते तो उनका मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह जाता। उनका तर्क है कि हिन्दू धर्म, इस्लाम और ईसाइयत तमाम तकनीकी क्रांतियों और नवजागरण जैसे बौद्धिक महा परिवर्तनों के बावजूद न केवल जिंदा हैं बल्कि पहले से ज्यादा गहरे और कठोर हुए हैं।

वे कहते हैं कि इन सभी धर्मों में इस सृष्टि के बनाने वाले ईश्वर की बात कही गई है और ईश्वर की पूजा करना मनुष्य का कर्तव्य बताया गया है। इस तर्क को आगे खींचें तो कहना होगा कि जब तक समाज का काम ईश्वर के बिना नहीं चलेगा तब तक धर्म इस दुनिया में रहेंगे। आज विज्ञान इस दृश्य जगत की पहेली हल करने में लगा हुआ है।

कुछ सत्य विज्ञान जान चुका है जैसे कि धर्मों में सृष्टि की उत्पत्ति की जो कथाएँ दी गई हैं वे गलत हैं। कि मनुष्य के उद्भव और विकास से अरबों साल पहले यह पृथ्वी थी जो सूरज के चारों तरफ घूम रही थी। मनुष्य के अस्तित्व में आने के करोड़ों साल पहले इस पृथ्वी पर वनस्पति थी और यहाँ बड़े-बड़े विशालकाय जीव डायनासोर रहते थे।

कि अगर आज हम मनुष्यों का अस्तित्व है तो इसलिए कि हमारे बाकायदा पुरखे थे जो होमोसेपियंस कहलाते थे और जो डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के अनुरूप बंदर से क्रमिक रूप से विकसित हुए थे। हम मनुष्य अपने मौजूदा दिमाग के साथ पृथ्वी पर नहीं आए। हमारा दिमाग भी धीरे-धीरे विकसित होकर मौजूदा स्थिति में आया है। क्या इससे अपने बारे में हमारी सोच थोड़ी भी नहीं बदलती? बहरहाल।

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अरुण शौरी की राजनीतिक प्रतिबद्धताएँ और रुझान कुछ भी हों, इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने धर्मों का गंभीर अध्ययन किया है और उन पर लिखा भी है। पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर ने सितंबर 1995 में कलकत्ता से प्रकाशित 'संडे' पत्रिका के लिए अरुण शौरी का एक इंटरव्यू किया था जिसमें शौरी ने बताया था कि 'जीवन में जिस तरह के दुःख मैंने देखे हैं, उन्हें देखते हुए तो मुझे नहीं लगता कि किसी सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञाता तथा दयालु ईश्वर का कोई अस्तित्व है। लेकिन मैं एक उत्साही मूर्तिपूजक हूँ।

जहाँ तक धार्मिक परंपराओं को मानने का सवाल है तो बौद्ध ग्रंथों के अनुरूप मैं प्रतिदिन एक घंटा ध्यान लगता हूँ।... व्यावहारिक रूप से तो मैं एक बौद्ध हूँ, लेकिन सांस्कृतिक रूप से एक हिन्दू हूँ। (एक धर्मनिरपेक्ष रूढ़िवादी की स्वीकारोक्ति, लेखक : मणिशंकर अय्यर, प्रकाशक : पेंगुइन) मणिशंकर अय्यर खुद एक लेखक हैं, लेकिन इस इंटरव्यू में वे अरुण शौरी की धर्म को लेकर जिज्ञासा को सामने लाने में प्रयत्नशील नहीं लगते, बल्कि इस्लाम और मुसलमानों को लेकर उनके अंतर्विरोध को सामने रखते हैं और क्योंकि वे खुद एक नास्तिक हैं इसलिए चाहते हैं कि धर्म संबंधी शौरी की धारणाओं को उजागर करके उनको छद्म सिद्ध किया जा सके।

जो भी हो इससे धर्मों पर पुनर्विचार करने की शौरी की पात्रता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता। शौरी की बातों को काफी हल्के ढंग से लिया गया है और उसके पीछे यह प्रचलित विश्वास कायम है कि पाँच हजार साल पुरानी भारतीय सभ्यता तमाम झंझावातों और हमलों को झेलने के बावजूद सतत चलती आई है जबकि बौद्ध धर्म के विश्व भर में एक समय में फैल जाने के बाद भी हिन्दू धर्म को कोई नुकसान नहीं पहुँचा।

पता नहीं शौरी ने अपने इस भाषण में ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न उठाया या नहीं लेकिन आज विज्ञान दर्शन को निर्णायक चुनौती देने की स्थिति में आ गया है। याद कीजिए कि महान वैज्ञानिक गैलीलियो ने जब यह कहा कि सूरज नहीं बल्कि पृथ्वी सूरज के चारों तरफ चक्कर लगाती है तब बाइबिल पर आधारित विश्व-दृष्टिकोण कैसे गड़बड़ा गया था और शासकों ने ऐसा सच उजागर करने के लिए गैलीलियो को कैसे जेल में डाल दिया था।

मनुष्य ने जब सूरज-चाँद-सितारों को देखा तो उसने सोचा जरूर इन्हें बनाने वाला कोई ईश्वर होगा। उसने देखा कि जीवन में दुःख ही दुःख है और इन दुःखों से ईश्वर ही मुक्ति दिला सकता है। इस मानवीय जिज्ञासा और दुःखों के अनुभव ने ही ईश्वर के अस्तित्व को आधार दिया। यह भी कहा गया कि प्रकृति में कार्य-कारण संबंध होना चाहिए। यानी जो कुछ भी है, उसके पीछे कोई कारण भी है।

भारत में बौद्ध धर्म और जैन धर्म के अलावा सांख्य, वैशेषिक, न्याय, योग, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा इन छः दर्शनों में इस जगत से हमारे संबंध की खोज की गई है। इनमें से वैशेषिक और न्याय दर्शन में किसी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया गया है। प्राचीन यूनानी दार्शनिक डेमोक्रिटस से बहुत पहले भारत के कणाद ऋषि ने परमाणु सिद्धांत दिया था।

उन्होंने डेमोक्रिटस की तरह ब्रह्मांड के मूल कारण के रूप में परमाणु सिद्धांत का इस जगत के भौतिक यथार्थ को आज साइंस के द्वारा समझने की कोशिशें काफी आगे बढ़ चुकी हैं हालाँकि उत्तर आधुनिक दृष्टिकोण यह है कि भौतिक जगत को समझना असंभव हैप्रतिपादन करके ही संतोष नहीं कर लिया बल्कि उन्होंने पदार्थ और उसके गुणों के बीच, वस्तुओं और उनकी गति के बीच, सामान्य और विशिष्ट के बीच, कारण और प्रभाव के बीच विश्लेषण करके प्रकृति और समस्त ब्रह्मांड का घटनाक्रम समझाया।

जैन धर्म में भी अंतरिक्ष के बारे में गंभीर चिंतन हुआ है। लेकिन जगत के यथार्थ को समझने की तमाम कोशिशों के बावजूद ईश्वर और धर्म की अवधारणा को मिटाया नहीं जा सका है। पश्चिमी दार्शनिकों ने ईश्वर की मृत्यु की घोषणाएँ की मगर समाज में वह जिंदा रहा क्योंकि धर्म को नहीं बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों को जिंदा रखना पुरोहितों के लिए जरूरी था।

इस जगत के भौतिक यथार्थ को आज साइंस के द्वारा समझने की कोशिशें काफी आगे बढ़ चुकी हैं हालाँकि उत्तर आधुनिक दृष्टिकोण यह है कि भौतिक जगत को समझना असंभव है। इंटरनेट एक ऐसा माध्यम है जिसने अनापशनाप चैट करने वालों को ही नहीं, ब्रह्मांड के बारे में जिज्ञासा रखने वाले लोगों को भी आपस में जोड़ दिया है। ये लोग अपनी-अपनी तरह से ब्रह्मांड की व्याख्या कर रहे हैं। गेऑफ हाजेलहर्स्ट का एक समाधान देखिए :

अंतरिक्ष का अस्तित्व उस तत्व के रूप में है जिसमें तरंगों के कारण पदार्थ का निर्माण होता है। अंतरिक्ष की तरंग-गति से ही पदार्थ और काल पैदा होते हैं।

जरूर यह आपको पहेली लग रही होगी। लेकिन थोड़ा सरलीकरण करें तो कहना होगा कि जिस पदार्थ से यह पृथ्वी और हम बने उसी से हमारा वह दिमाग भी बना जो इस जगत की थाह पाना चाहता है। वह पदार्थ दिमाग से भी पहले से व्याप्त है और वही इस जगत का यथार्थ है। इसे किसने बनाया, कैसे बनाया ये बिल्कुल बेकार की बातें हैं। स्पेस या विराट अंतरिक्ष को अंतिम सत्य मान लिया जाए तो किसी ईश्वर की जरूरत नहीं रह जाती। यह थ्योरी तमाम आकाशगंगाओं, सौरमंडलों, जीव जगत आदि की व्याख्या कर देती है। सब कुछ अंतरिक्ष में फैले उस पदार्थ के ही रूपांतरण हैं। यह सत्य जब सूचना माध्यमों से लोगों के गले उतरेगा तो धर्म का स्वरूप कैसे नहीं बदलेगा?

तो हम सब तमाम परिवर्तनों और महा परिवर्तनों के बाद ऐसे पदार्थ हैं जो हंसते हैं, रोते हैं, प्रेम करते हैं, नींद लेते हैं, स्वप्न देखते हैं, दूसरे पदार्थों को खाते हैं, ओढ़ते और बिछाते हैं, मनोरंजन करते हैं, द्रवित होते हैं, अपनी संतानों के रूप में अपने जैसा लेकिन विशिष्ट पदार्थ दुनिया में लाते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि लगातार उस पदार्थ के बारे में भी सोचते हैं जिसमें कई रूपांतरण हुए और फिर हम बने, हमारे विचार बने, कविता, संगीत, कलाएँ और विज्ञान बने, प्रकृति बनी, नदी, पहाड़, झरने, पेड़, चिड़िया आदि बने और बनते रहेंगे। सब पदार्थ का रूपांतरण है। उसी पदार्थ की माया है कि हम ईश्वर की कल्पना कर लेते हैं लेकिन वह है कहाँ सिवाय हमारे दिमाग के?