अपनी धन-सम्पदा को सत्कर्म में लगाएं...
महर्षि वेद व्यास ने कहा है कि जो विशिष्ट सतपात्रों को दान देता है और जो कुछ अपने भोजन आच्छादन में प्रतिदिन व्यवहृत करता है, उसी को मैं उस व्यक्ति का वास्तविक धन या सम्पत्ति मानता हूं। अन्यथा शेष सम्पत्ति तो किसी और की है, जिसकी वह केवल रखवाली करता है।
दान में जो कुछ देता है और जितनी मात्रा का वह स्वयं उपभोग करता है, उतना ही उस धनी व्यक्ति का अपना धन है। अन्यथा मर जाने पर उस व्यक्ति के स्त्री, धन आदि वस्तुओं से दूसरे लोग आनंद मनाते हैं अर्थात मौज उड़ाते हैं।
तात्पर्य यह है कि सावधानीपूर्वक अपनी धन-सम्पदा को दान आदि सत्कर्मों में व्यय करना चाहिए। जब आयु का एक दिन अंत निश्चित है तो फिर धन को बढ़ाकर उसे रखने की इच्छा करना मूर्खता ही है, क्योंकि जिस शरीर की रक्षा के लिए धन बढ़ाने का उपक्रम किया जाता है, वह शरीर अस्थिर है, नश्वर है।
इसलिए धर्म की ही वृद्धि करना चाहिए, धन की नहीं। धन द्वारा दानादि कर धर्म की वृद्धि का उपक्रम करना चाहिए, निरंतर धन बढ़ाने से कोई लाभ नहीं।