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जानिए स्वामी विवेकानंद के धार्मिक विचार

जानिए स्वामी विवेकानंद के धार्मिक विचार - swami vivekananda thoughts
महापुरुषों के पत्रों से उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं के दर्शन होते हैं। इस दृष्टि से स्वामी विवेकानंद के पत्र उनके सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न दिव्य जीवन पर प्रकाश डालते हैं। उन्होंने अपने पत्रों के द्वारा भारतीय संस्कृति और धर्म के कलेवर में नव चैतन्य का संचार किया था। स्वामीजी ने अपने अल्प जीवन में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र और प्रगतिशील समाज की परिकल्पना की थी।


 


अपने भारत भ्रमणकाल के दौरान स्वामीजी ने विभिन्न धर्मों के मूल को समझा और उन्होंने पाया कि सभी धर्मों में उन्हें शाश्वत एकत्व दिख रहा है। श्री रामकृष्ण जो कहा करते थे कि 'खाली पेट धर्म नहीं होता', इस कथन की सत्यता को उन्होंने प्राणों ही प्राणों में अनुभव किया। हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि धर्मों में विचार धन चारों ओर बिखरा हुआ था उसका उन्होंने संग्रह किया।
 
 


 


स्वामी विवेकानंद के पूना प्रवास के दौरान एक विलक्षण घटना घटी, जिससे उनके विराट व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। गाड़ी में स्वामीजी को द्वितीय श्रेणी से भ्रमण करते देख कर कुछ शिक्षित लोग अंग्रेजी भाषा में संन्यासियों की निंदा करने लगे।
 
उन्होंने सोचा स्वामीजी को अंग्रेजी नहीं आती है। उनका सोचना था कि भारत के अधःपतन के लिए एकमात्र संन्यासी-संप्रदाय ही उत्तरदायी है। चर्चा जब पराकाष्ठा पर पहुंच गई तब स्वामीजी चुप नहीं रह सके।
 
वे बोले- युग-युग से संन्यासियों ने ही तो संसार की आध्यात्मिक भाव धारा को सतेज और अक्षुण्ण बना रखा है। बुद्ध क्या थे, शंकराचार्य क्या थे? उनकी आध्यात्मिक देन को क्या भारत अस्वीकार कर सकता है, स्वामीजी के मुख से धर्म का क्रम विकास, देश विदेश के धर्मों की प्रगति का इतिहास तथा अनेक गंभीर दार्शनिक बातें सुनकर सहयात्रियों को विवश होकर हथियार डाल देना पड़ा।
 
यह वही समय था जब स्वामीजी को शिकागो की विश्व धर्म परिषद सम्मेलन का पता चला था और यह सर्वविदित है कि उस धर्म सभा में स्वामीजी ने किसी भी धर्म की निंदा या समालोचना नहीं की अपितु उन्होंने कहा- 'ईसाई को हिन्दू या बौद्ध नहीं बनना होगा, और न हिन्दू अथवा बौद्ध को ईसाई ही। पर हां प्रत्येक धर्म को अपनी स्वतंत्रता और वैशिष्टय को बनाए रखकर दूसरे धर्मों का भाव ग्रहण करते हुए क्रमशः उन्नत होना होगा। उन्नति या विकास का यही एकमात्र नियम है।'
 
स्वामी की शिकागो वक्तृता भारत वर्ष की मुक्ति का संक्षिप्त लेखा है। भगिनी निवेदिता लिखती हैं- शिकागो की धर्म महासभा में जब स्वामीजी ने अपना भाषण आरंभ किया तो उनका विषय था- हिन्दुओं के प्राचीन विचार, पर जब उनका भाषण समाप्त हुआ तो आधुनिक हिन्दू धर्म की सृष्टि हो चुकी थी।
 
- डॉ. विजयलक्ष्मी अयंगार