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Written By ND

शक्ति का विकास करो : महावीर

शूरता के चार उदाहरण

शक्ति का विकास करो : महावीर -
- आचार्य महाप्रज्ञ

WD
एक सूची है दुर्लभ वस्तुओं की। जाजो सूची बनाई गई है उसमें अंतिम है - पराक्रम। पराक्रम के अभाव में हमारी बहुत सारी प्रवृत्तियाँ ठप हो जाती हैं। सपने-सपने रह जाते हैं। यदि पराक्रम नहीं होता तो कुछ भी नहीं होता। जो भी होता है, उसका कारण है पराक्रम। एक पराक्रम सैकड़ों शाखाओं में बँट जाता है।

स्थानांग सूत्र में पराक्रम को चार वर्गों के साथ जोड़ दिया- वह एक व्यक्ति, जो सहनशीलता में बड़ा शूरवीर होता है। एक वह जो तपस्या करने में शूरवीर होता है। एक वह जो दान देने में शूरवीर होता है और एक वह है, जो युद्ध लड़ने में बड़ा शूरवीर होता है। कहा गया-क्षांति में शूर हैं- अर्हत्‌, तप में शूर हैं- अनगार, दान में शूर हैं- वैश्रमण एवं युद्ध में शूर हैं- वासुदेव।

यदि पराक्रम न हो, तो व्यक्ति सहिष्णु नहीं हो सकता। दूसरे की वृत्तियों को उसके आक्रोश को सहन करना कम बात नहीं है। बड़े-बड़े लोग घबरा जाते हैं। एक दिन साथ रहते हैं, दूसरे दिन किनारा करने लग जाते हैं। कुछ लोग ही सहन करना जानते हैं।

हमारे सामने सहन करने का आदर्श या पराकाष्ठा है- अर्हत्‌। बताया गया- 'खांतिसूरा अरहंता'- सहन करने में सबसे ज्यादा पराक्रमी होते हैं अर्हत्‌। मुनि भी पराक्रमी होते हैं। वे न जाने कितने ही जीवों को सहन करेगा। सहन करना कोई कायरता नहीं है। कायर आदमी कभी सहन नहीं कर सकता। कायर आदमी का सहन करना उसकी विवशता है पर एक शक्तिशाली आदमी सहन करता है, तो उसका नाम है- सहिष्णुता।

ND
महावीर के युग से लेकर आज तक बहुत से ऐसे साधु-साध्वियाँ हुए हैं, जिन्होंने बहुत कुछ सहन किया है। बहुत सहिष्णु थे। वे यह है तपस्या का बल। तीसरा शूर है दान का। कमजोर आदमी जी नहीं सकता। पराक्रम के ये दो उदाहरण अध्यात्म के क्षेत्र के हैं। सहन करना है या तपस्या करना है, वही कर सकता है, जो पराक्रमी होगा।

प्रस्तुत दो उदाहरण हैं- लौकिक क्षेत्र के। दान का क्षेत्र में आदर्श है कुबेर। इतना बड़ा दानी है कि वह धन का देवता कहलाता है। वह यक्ष है। दान देना बड़ा कठिन होता है और वह भी सात्विक वृत्ति के साथ। निःस्वार्थ भाव से दान देना बड़ा मुश्किल होता है। इसीलिए कहा गया- 'दानसूरे वेसमणे'- दान में शूर हैं वैश्रमण। वह न जाने कितने लोगों को दान देता है।

ये शूरता के चार उदाहरण हैं, पर शौर्य का काम हजारों क्षेत्रों में बँट जाता है। पराक्रम के बिना कुछ भी नहीं होता। प्रकृति का नियम होता है कि किसी में एक प्रकार का पराक्रम जागता है तो किसी में दूसरे प्रकार का। शरीर का ही संदर्भ लें। किसी के पैरों में पराक्रम जागता है, वह चलने में बड़ा पराक्रमी होता है। किसी के हाथों में पराक्रम होता है।

प्रश्न है इस शक्ति का विकास कैसे हो? एक समय था- हमारे आस-पास समस्याएँ प्रतीत होतीं। दूसरे लोग आलोचनाएँ करते। हिंदुस्तान के एक बहुत बड़े विचारक ने आलोचना की- तेरापंथी साधु क्या हैं? अपने भक्तों के बीच बैठ जाते हैं, कुछ गा-बजा लेते हैं, बस हो गया धर्म-व्याख्यान। उस आलोचना को आचार्य तुलसी ने सुना पर उत्तर नहीं दिया। उन्होंने तय कर लिया- हमें इसका उत्तर देना है,शक्ति बढ़ाकर। एक मंत्र मिला- अपनी शक्ति का विकास। इसका परिणाम है- आज वे आलोचनाएँ करने वाले प्रशंसक बन गए हैं।

भगवान महावीर ने कहा- सहनशीलता से अपने पराक्रम को बढ़ाओ। शक्ति का विकास करो। शक्ति के अभाव में न आरोग्य टिक सकता है, न ज्ञान और न ध्यान। जो व्यक्ति श्रम नहीं करता, वह कैसे ठीक होगा? सबसे बड़ा मंत्र है शक्ति का विकास। जिसने अन्तराय कर्म को मिटा लिया, उसने बहुत कुछ कर लिया। हम यह पाठ पढ़ें-जीना है तो शक्ति का जीवन जीना है। हमारी सफलता में सबसे बड़ा विघ्न होता है अन्तराय कर्म। उसका क्षयोपशम करना है, उसे क्षीण करना है। एक शक्ति जागेगी तो सब कुछ जाग जाएगा।

प्रस्तुति : ललित गर्ग