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Written By WD

गोपाचल के जिन मंदिर एवं प्रतिमाएँ

गोपाचल के जिन मंदिर एवं प्रतिमाएँ -
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पर्वतराज पर जिन प्रतिमाओं की संख्या 1500 के लगभग है। इनमें छः इंच से लेकर 57 फुट तक की मूर्तियाँ सम्मिलित हैं। महावीर धर्मशाला नई सड़क (विवेकानंद मार्ग) से किले का उरवाई द्वार लगभग 4 किलोमीटर है। इस उरवाई द्वार पर किले की बाहरी दीवार में कुछ अर्धनिर्मित मूर्तियाँ हैं। संभवतः यहाँ मूर्तियाँ बनाने की योजना रही होगी, किन्तु कुछ कारणवश छत्र आदि खोदकर उन्हें अधूरा छोड़ दिया गया।

दरवाजे के बाईं ओर सर्वप्रथम पहाड़ में तीन खड़गासन मूर्तियाँ मिलती हैं। तीनों कमलासन पर खड़ी हैं। तीनों मूर्तियों के मध्य स्थानों में शिलालेख उत्कीर्ण हैं। पहाड़ के सभी शिलालेखों का लिखना तो संभव नहीं है, केवल यहाँ एक शिलालेख की जानकारी दी जा रही है-

सं. 1510 वर्षे माघ सुदी 8 सोमे गोपाचल दुर्गे तोमर वन्शान्वये महाराजाधिराज राजा श्री डूंगरेन्द्र देव राज्य पवित्रमाने श्री काष्ठासंघ माथुरान्वये भट्टारक श्री गुणकीर्ति देवास्तत्पट्टे श्री यशकीर्ति देवास्तत्पट्टे श्री मलयकीर्ति देवास्ततो भट्टारक गुणभद्रदेव पंडितवर्य रइधू तदाम्नाये अग्रोतवंशे वासिल गोत्रे साकेलहा भार्या निवारी तयोः पुत्र विजयष्ट शाह सहजा तत्पुत्र शाह नाथुतेऊ नाथू पुत्री मालाद्रे भौंसा तेऊ पुत्री गोविंददेवजी महारथी वालमती साधु मालहा भार्या सिरो पुत्र संघातिपति देव मार्या मालेही द्वितीय लोछि तयोः पुत्र शंकर मसीजाकर मासारे पति पुत्रनेम भार्या हेमराजहि चतुर्थ साहीगा पुत्र सेही माघ पुत्र वीजा जोडसी कुमरा पन्नवसा चेला पुण्याधिदा द्वितीय भोला तृतीय अलूसा जीणा पुत्र माणिकुटी धारतरू सहाराषु डाली पुत्र देवीदास इस वंश निर्देश एतेषा मध्ये साधु श्री माल्हा पुत्र संघातिपित देउताय पुत्र संघातिपित करमसीहा श्री चंद्रप्रभु जिनर्विव महाकाय प्रतिष्ठापित प्रणमति कर्णसी श्री साध्वी वीर जिनपद चक्र अंगुष्ठ मात्र विमान जिनसा क्रिया प्रतिष्ठापयतो महुतया कुलं वलं राज्यमनंत सौरव्यं तवस्य विच्छित्तिरथो विभुक्तिः। शुभम्‌ भवतु देववृषयोः ॥

यह शिलालेख लगभग पौने दो फुट लंबा और इतना ही चौड़ा है, इसमें कुल 15 पंक्तियाँ हैं।

बाईं ओर की इन प्रतिमाओं का विवरण इस प्रकार है- तीर्थंकर मूर्ति के दोनों ओर इंद्र-इंद्राणी हैं। फिर तीर्थंकर चंद्रप्रभ की मूर्ति है। दोनों ओर इंद्र-इंद्राणी है। इसके बाद तीर्थंकर महावीर की मूर्ति है। उसके बगल में इंद्र विनम्र मुद्रा में खड़ा है।

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इस उरवाई समूह में विशाल खड़्‌गासन मूर्तियाँ 40, पद्मासन मूर्तियाँ 24, स्तंभों और दीवारों पर लघुतीर्थंकर मूर्तियाँ 840, उपाध्याय और साधु मूर्तियाँ 12 हैं। 4 चैत्य स्तंभ भी बने हैं। उनके ऊपर दीवार में शिखर बने हैं। इस समूह में कुल 10 शिलालेख हैं, जिनमें से कई तो वि. संवत्‌ 1510 और 1522 के हैं।

उरवाई की ओर जाने पर दाईं ओर की मूर्ति समूह का संबंध में ज्ञातव्य निम्न प्रकार है- दाईं ओर से बाईं ओर को- इस समूह में 47 खड़्‌गासन मूर्तियाँ हैं, 31 पद्मासन मूर्तियाँ, 6 यक्ष और देवी मूर्तियाँ, 6 चैत्य स्तंभ और शिलालेख हैं। इस पर्वत की मूर्तियों में सबसे विशाल अवगाहन वाली मूर्ति भगवान ऋषभदेव की है, जो इसी समूह में है, जिसकी अवगाहना 57 फुट की है तथा पैरों की लंबाई 9 फुट है। यह मूर्ति ही बावनगजा के नाम से प्रसिद्ध है।

श्वेताम्बर आचार्य शीलविजय और सौभाग्य विजय ने अपनी तीर्थमाला में इस मूर्ति को बावनगजा लिखा है तथा अन्य तीर्थमालाओं में भी बावनगजा लिखा है। इस कारण बावनगजा प्रसिद्ध हुई है। बाबर ने आत्मचरित (बाबरनामा) में इस मूर्ति को 40 फुट लिखा है। इस मूर्ति के पादपीठ के सारे भाग पर मूर्ति लेख है। मूर्ति लेख के अनुसार इस मूर्ति के प्रतिष्ठाकारक साहू कमलसिंह तथा प्रष्ठिाचार्य रइधू थे।

यहाँ पाँच मूर्तियाँ ऐसी हैं, जिनमें महाराज श्रेयांस द्वारा भगवान ऋषभदेव को आहार देते हुए प्रदर्शित किया गया है। इस समूह में एक कोष्ठक में चैत्यालय बना हुआ है, जिसमें तीन वेदियाँ बनी हुई हैं। प्रत्येक वेदी के ऊपर शिखिर निर्मित है। एक स्थल पर संभवतः मुनियों के ध्यान के लिए एक गुफा और कक्ष बने हुए हैं। एक मूर्ति तीर्थंकर माता की बनी हुई है, जो उपधान के सहारे शयन मुद्रा में दिख पड़ती है। संभवतः ये स्वप्न दर्शन के अवसर की मूर्ति है।

कई स्थानों पर दीवार में लघु मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। एक स्थान पर 71 मूर्तियाँ बनी हैं। सब मूर्तियों की गणना करना संभव नहीं लगता। कुछ मूर्तियाँ अस्पष्ट और अर्धनिर्मित हैं। कुछ बड़ी मूर्तियाँ भी अर्धनिर्मित दशा में हैं। शिल्पी को उन्हें पूर्ण करने में क्या बाधा आई होगी, यह अनुमान के बाहर है।

आगे बढ़ने पर दूसरा बड़ा द्वार मिलता है। द्वार के दोनों ओर दो खड़्‌गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं, किन्तु अब इनकी कमर तक ईंटें चुन दी गई हैं तथा मूर्तियोंपर सफेदी कर दी गई है।

उरवाई गेट से सिंधिया स्कूल जाते हुए आगे बढ़ने पर दो देवस्थान सास का बड़ा मंदिर और बहू का छोटा मंदिर मिलते हैं। सास-बहू के इन दोनों मंदिरों के गर्भ में कोई मूर्ति नहीं है। बड़ा मंदिर 105 फुट लंबा, 75 फुट चौड़ा और 100 फुट ऊँचा है। मंदिर के बीच का हॉल 32 फुट लंबा और 31 फुट चौड़ा है। इसमें चौकोर चबूतरा बना है और चारों कोनों पर स्तंभ हैं।

स्तंभों और दीवारों पर विविध प्रकार के दृश्य अत्यंत कलापूर्ण रीति से उत्कीर्ण किए गए हैं। द्वार और छत का अलंकरण दर्शनीय है। यहाँ पर लगे हुए एक शिलालेख से प्रकट होता है कि कछवाहा राजपूत महिपाल ने इसे सन्‌ 1092 में पूर्ण किया।

शिलालेख से यह स्पष्ट नहीं होता कि यह मंदिर किस देव या भगवान को अर्पण किया गया था। जनरल कनिंघम ने आर्कोलाजीकल सर्वे इंडिया वोल्यम सेकंड पृष्ठ 357 पर लिखा है कि वे जैन बड़ा मंदिर एवं छोटा जैन मंदिर से जाने जाते हैं।
किन्तु परम्परागत मान्यता है कि उक्त भक्त राजपूत ने अष्टाह्विका वृत के उपलक्ष्य में नंदीश्वर द्वीप की अनुकृति पर यह जैन मंदिर बनवाया था। नंदीश्वर द्वीप जाने वाले देव-देवियों की मूर्तियाँ नृत्य एवं विभिन्न मुद्राओं में मंदिर के सभी भागों में उत्कीर्ण कराई गईं। संभवतया मुस्लिमकाल में इन मूर्तियों का भंजन कर दिया गया।

यही कहानी इसके निकट बने छोटे मंदिर की है। ये मूलतः ही जैन मंदिर रहे हैं, किन्तु कुछ आधुनिक इतिहासकार सास-बहू के स्थान पर सहस्रबाहु का मंदिर बताकर इन्हें विष्णु मंदिर सिद्ध करते हैं। इसके संबंध में कोई अभिलेख या प्रमाण नहीं है। हमारी मान्यता है कि ये दोनों मंदिर सेतवाल जैन जाति के सहस्रबाहु गोत्र के व्यक्तिद्वारा बनवाए गए हैं। इसलिए सहस्रबाहु मंदिर का अपभ्रंश होकर सास-बहू के मंदिर के नाम से प्रचलित हो गया। स्मरण रहे कि जैन समाज की 84 जातियों की गणना में एक सेतवाल जैन जाति भी है और इसके 18 गोत्रों में एक गोत्र सहस्रबाहु है।

बड़े मंदिर के पास छोटा मंदिर है। यह भी उसी समय का बना है। इसमें भी मूर्ति ही है। दोनों मंदिरों की खुदाई बिलकुल मिलती-जुलती है। यह मंदिर यद्यपि छोटा है, किन्तु मध्यकालीन भारत की नक्कासी को प्रकट करता सुंदर नमूना है। दोनों ही मंदिर वास्तुकला और शिल्प के बेजोड़ उदाहरण हैं।

इस मंदिर के आगे बढ़ने पर तेली का मंदिर मिलता है। इस मंदिर का निर्माण नौवीं शताब्दी में द्रविड़ शैली में हुआ है। यह 100 फुट ऊँचा है। इसमें भी वेदी सूनी पड़ी है। इसके चारों ओर वाटिका में जैन मंदिर या मंदिरों के पाषाण स्तंभ तथा तीर्थंकर मूर्तियाँ रखी हुई हैं। ये मूर्तियाँ किस मंदिर की हैं तथा खुले मैदान में क्यों रखी हैं, यह ज्ञात नहीं हो सका। हमारा अनुमान है कि यह सामग्री तेली के मंदिर और उसके निकट बने एक जीर्ण मंदिर की है।

तेली का मंदिर भी मूलतः जैन मंदिर है। कुछ लोग इसका नाम तिलंगना (तैलंग) कल्पित करके इसे विष्णु मंदिर मानते हैं। हमारी स्पष्ट धारणा है कि राजा आम की वैश्य पत्नी से उत्पन्न राज कोठारी के वंशज तोलाशाह ने इसे बनवाया है। राजा कोठारी को आम के गुरु जैन आचार्य वप्पभट्ट सूरी ने जैन धर्म में दीक्षित किया था, जो ओसवाल जाति में सम्मिलित हो गया था। उसकी आठवीं पीढ़ी में तोलाशाह हुआ। यह बहुत बड़ा न्यायी, ज्ञानी, मानी और धनी था। जैन धर्म का बड़ा अनुरागी था।

तोलाशाह के मंदिर का अपभ्रंश रूप तेली का मंदिर नाम से प्रसिद्ध हो गया। यह जैन मंदिर है। यह किले की सभी विद्यमान इमारतों में सबसे ऊँचा है। जो अपनी योजना और डिजाइन की दृष्टि से अद्वितीय है। इसकी शीर्ष द्रविड़ शैली का है, जबकि सभी अलंकरण उत्तर भारत की भारतीय आर्य शैली के हैं। यह मंदिर वास्तुकला का एक रोचक उदाहरण है, जिसमें द्रविड़ और भारतीय आर्य शैली का सम्मिश्रण है।

इस मंदिर के निकट एक जीर्ण-शीर्ण कमरा बना है। सन्‌ 1844 में कनिंघम ने इस 35 फुट लंबे और 15 फुट चौड़े कमरे को जैनियों के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का मंदिर माना है। आगे मान मंदिर मिलता है। इस महल से आगे गूजरी महल बना हुआ है। गूजरी महल से ग्वालियर गेट होते हुए एक पत्थर की बावड़ी पर आते हैं। बावड़ी एक प्राकृतिक गुफा में बनी हुई है।

दुर्ग के इस प्राचीर में महत्वपूर्ण गुहा मंदिर समूह है। यह दक्षिण पूर्व समूह के नाम से जाना जाता है। जैन विचारधारा में यह पार्श्वनाथ तीर्थ है। जैसा कि आगे वर्णित गुफा नं. 1 के प्रतिमा लेख से विदित है। यहाँ पर्यटक बहुसंख्या में आते हैं और प्रतिवर्ष क्वार माह में मेला आयोजित होता है। यह समूह समुन्नत मूर्तिकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह समूह लगभग दो फर्लांग के क्षेत्र मैं फैला है।

इस समूह की मूर्तियों के पीछे की दीवार को तराशकर चिकना किया गया है। मूर्तियों के अभिषेक के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं तथा मूर्तियों की ग्रीवा के सामने पाषाण पट्टिकाएँ बनी हुई हैं, जिन पर खड़े होकर अभिषेक किया जा सकता है। 9 मूर्तियों के आगे ऊँची दीवार उठाकर और मूर्तियों के ऊपर शिखर बनाकर जिनालय का रूप प्रदान किया गया है।

मूर्तियों के पीछे भामंडल, सिर के ऊपर छत में चंदोवा और हाथों में कमल बने हुए हैं, जो अत्यंत कलापूर्ण हैं। प्रत्येक मूर्ति के दोनों ओर गजलक्ष्मी का अंकन किया गया है, जिसमें गजराज अपनी सूँड में कलश लिए हुए भगवान का अभिषेक करते दिखाई पड़ते हैं।

यहाँ लगभग 18 मूर्तियाँ हैं। बावड़ी में दाईं ओर पद्मासन पार्श्वनाथ मूर्ति है। इसके ऊपर बहुत सुंदर छत्र बना हुआ है। इसके आगे 20 से 30 फुट ऊँची खड़्‌गासन मूर्तियाँ हैं। पादपीठ पर बने हुए लांछनों के अनुसार ये मूर्तियाँ भगवान 1. शांतिनाथ, 2. पद्मप्रभ, 3. शांतिनाथ, 4. पद्मप्रभ, 5. बाहुबलि, 6. शांतिनाथ, 7. पद्मप्रभ, 8. नेमिनाथ और 9. शांतिनाथ की हैं।

इनसे आगे चलकर 9 मूर्तियों के आगे दीवार में द्वार बने हैं और ऊपर शिखर बने हैं, जो मंदिर प्रतीत होते हैं। ये मूर्तियाँ 1. भगवान कुन्थनाथ, 2. सुपार्श्वनाथ, 3. पद्मासन, 4. आदिनाथ पद्मासन, 5. शांतिनाथ खड़्‌गासन, 6. व 7. पद्मासन, 8. शांतिनाथ, 9. संभवनाथ की हैं।

इनसे आगे पुष्पदंत, नेमिनाथ और ऋषभदेव की खड़्‌गासन तथा पद्मप्रभ की पद्मासन मूर्तियाँ हैं। आगे और भी अनेक छोटी मूर्तियाँ हैं। एक मूर्ति के आगे दोनों ओर मान स्तंभ बने हैं। पास में ही एक गुफा मिलती है। इसमें छोटी-बड़ी लगभग 125 प्रतिमाएँ दीवारों में उत्कीर्ण हैं। इसके पश्चात तीन खड़्‌गासन मूर्तियाँ बनी हुई हैं। अंतिम दो गुफाओं में कुछ मूर्तियाँ हैं, इनमें ऋषभदेव की एक खड़्‌गासन मूर्ति है जो 35 फुट ऊँची और 10 फुट चौड़ी है। सभी मूर्तियाँ खंडित हैं।

मुगल बादशाह बाबर ने इन सभी मूर्तियों को खंडित कर दिया था। किन्तु पद्मासन भगवान पार्श्वनाथ की 35 फुट ऊँची और 30 फुट चौड़ी प्रतिमा को देखकर वह हतप्रभ हो गया और उसके क्रूर हाथ निष्क्रिय हो गए। इस मूर्ति के ऊपर उसकी क्रूरता का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसका क्या कारण था? इस संबंध में विविध और विचित्र किंवदंतियाँ प्रचलित हैं।

तथ्य जो भी हों, इसमें संदेह नहीं कि दुर्ग की लगभग सभी मूर्तियाँ खंडित हैं, किन्तु यह अखंडित है। पद्मासन मूर्तियों में यह भारत की सबसे विशाल मूर्ति है। इसके अतिरिक्त एक और मूर्ति अखंडित है, वह है भगवान महावीर की मूर्ति, जो बावड़ी के निकट पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति के निकट विराजमान है।

उपरोक्त मूर्तियों के अतिरिक्त उरवाई द्वार की बाहरी दक्षिण प्राचीर के पीछे कोटेश्वर में भी कुछ मूर्तियाँ बनी हुई हैं। एक मूर्ति 8 फुट लंबी शिला पर बनी हुई है। यह तीर्थंकर माता की शयन मुद्रा में है। इस पर ओपदार पालिश है। एक शिला फलक में एक स्त्री, पुरुष और बालक बने हुए हैं। संभवतया यह मूर्ति गोमेद यक्ष और अम्बिका की है।