अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
(प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का विषय)
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥
भावार्थ : सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित
करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है- उसको तू मेरा ही तेज जान॥12॥
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥
भावार्थ : और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब
भूतों को धारण करता हूँ और रसस्वरूप अर्थात अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों को अर्थात
वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ॥13॥
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥
भावार्थ : मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला
प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर चार (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य, ऐसे चार
प्रकार के अन्न होते हैं, उनमें जो चबाकर खाया जाता है, वह 'भक्ष्य' है- जैसे रोटी आदि। जो निगला
जाता है, वह 'भोज्य' है- जैसे दूध आदि तथा जो चाटा जाता है, वह 'लेह्य' है- जैसे चटनी आदि और जो
चूसा जाता है, वह 'चोष्य' है- जैसे ईख आदि) प्रकार के अन्न को पचाता हूँ॥14॥
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥
भावार्थ : मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से
स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (विचार द्वारा बुद्धि में रहने वाले संशय, विपर्यय
आदि दोषों को हटाने का नाम 'अपोहन' है) होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य (सर्व वेदों
का तात्पर्य परमेश्वर को जानने का है, इसलिए सब वेदों द्वारा 'जानने के योग्य' एक परमेश्वर ही है)
हूँ तथा वेदान्त का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ॥15॥