शुक्रवार, 29 मार्च 2024
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Written By WD

विकास का रास्ता स्वयं बनाएँ

विकास का रास्ता स्वयं बनाएँ -
- प्रो. महावीर सरन जै

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भौतिकवादी प्रगति एवं विकास के बावजूद मनुष्य सुखी नहीं है। वह मकान तो आलीशान बना पा रहा है मगर घर नहीं बसा पा रहा है। परिवार के सदस्यों के बीच प्यार एवं विश्वास की कमी होती जा रही है। व्यक्ति की चेतना क्षणिक, संशयपूर्ण एवं तात्कालिकता में केन्द्रित होती जा रही है। सम्पूर्ण भौतिक सुखों को अकेला ही भोगने की दिशा में व्यग्र मनुष्य अन्ततः अतृप्ति का अनुभव कर रहा है।

अतिवाद से ग्रस्त आज के संत्रस्त मनुष्य को आशा एवं विश्वास की आलोकशिखा थमानी है। व्यक्ति परम्परागत मूल्यों पर विश्वास नहीं कर पा रहा है क्योंकि वे अविश्वसनीय एवं अप्रासंगिक हो गए हैं। इस नए युग को नए जीवन-मूल्य चाहिए।

वैज्ञानिक विकास के कारण हमने जिस शक्ति का संग्रह किया है, उसका उपयोग किस प्रकार हो? प्राप्त गति एवं ऊर्जा का नियोजन किस प्रकार हो, यह आज के युग की जटिल समस्या है। विज्ञान ने हमें शक्ति, गति एवं ऊर्जा प्रदान की है। लक्ष्य हमें धर्म एवं दर्शन से प्राप्त करने हैं। धर्म ही ऐसा तत्व है जो मानव मन की असीम कामनाओं को सीमित करने की क्षमता रखता है। धर्म मानवीय दृष्टि को व्यापक बनाता है। धर्म मानव मन में उदारता, सहिष्णुता एवं प्रेम की भावना का विकास करता है।

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समाज की व्यवस्था, शांति तथा समाज के सदस्यों में परस्पर प्रेम, सद्भाव एवं विश्वासपूर्ण व्यवहार के लिए धर्म का आचरण एक अनिवार्य शर्त है। मन की कामनाओं को नियंत्रित किए बिना समाज रचना संभव नहीं है। जिंदगी में संयम की लगाम आवश्यक है। कामनाओं को नियंत्रित करने की शक्ति या तो धर्म में है या शासन की कठोर व्यवस्था में। धर्म का अनुशासन 'आत्मानुशासन' है। शासन का अनुशासन हम पर 'पर का नियंत्रण' है।

आज धर्म के जिस रूप को प्रचारित एवं व्याख्यायित किया जा रहा है उससे बचने की जरूरत है। वास्तव में धर्म संप्रदाय नहीं है। जिंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है।

मध्ययुग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं के प्रति आज के व्यक्ति की आस्था कम होती जा रही है। मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के प्रमुख प्रतिमान थे- स्वर्ग की कल्पना, सृष्टि एवं जीवों के कर्ता रूप में ईश्वर की कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, अपने देश एवं काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा। उस युग में व्यक्ति का ध्यान अपने श्रेष्ठ आचरण, श्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा अपने वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान करने की ओर कम था, अपने आराध्य की स्तुति एवं जय गान करने में अधिक था।

धर्म के व्याख्याताओं ने संसार के प्रत्येक क्रियाकलाप को ईश्वर की इच्छा माना तथा मनुष्य को ईश्वर के हाथों की कठपुतली के रूप में स्वीकार किया। दार्शनिकों ने व्यक्ति के वर्तमान जीवन की विपन्नता का हेतु 'कर्म-सिद्धान्त' के सूत्र में प्रतिपादित किया। इसकी परिणति मध्ययुग में यह हुई कि वर्तमान की सारी मुसीबतों का कारण 'भाग्य' अथवा ईश्वर की मर्जी को मान लिया गया। धर्म के ठेकेदारों ने पुरुषार्थवादी-मार्ग के मुख्य-द्वार पर ताला लगा दिया। समाज या देश की विपन्नता को उसकी नियति मान लिया गया। समाज स्वयं भी भाग्यवादी बनकर अपनी सुख-दुःखात्मक स्थितियों से सन्तोष करता रहा।

आज के युग ने यह चेतना प्रदान की है कि विकास का रास्ता हमें स्वयं बनाना है। किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। आज के मनुष्य की रुचि अपने वर्तमान जीवन को सँवारने में अधिक है। उसका ध्यान 'भविष्योन्मुखी' न होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है। वह पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है।

आधुनिकता का मूल प्रस्थान-बिन्दु यह विचार है कि ईश्वर मनुष्य का सृष्टा नहीं है अपितु मनुष्य ही ईश्वर का सृष्टा है। मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में ईश्वर प्रतिष्ठित था। आज की चेतना के केन्द्र में मनुष्य प्रतिष्ठित है। मनुष्य ही सारे मूल्यों का स्रोत है। वही सारे मूल्यों का उपादान है। इसी दृष्टि से आज के चिन्तक, मनीषी, विद्वान एवं धर्म के आचार्यों को वर्तमान जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए विचार सूत्र प्रदान करने चाहिए।