गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By WD

गाँधी की प्रासंगिकता

पुण्‍यतिथि विशेष

गाँधी की प्रासंगिकता -
ND
- प्रो. महावीर सरन जैन

गाँधी की प्रासंगिकता पर विचार करने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि गाँधी के व्यक्तित्व एवं विचार दर्शन का मूल आधार क्या है?

व्यक्तित्व की दृष्टि से विचार करें तो गाँधीजी राजनीतिज्ञ हैं, दार्शनिक हैं, सुधारक हैं, आचारशास्त्री हैं, अर्थशास्त्री हैं, क्रान्तिकारी हैं। समग्र दृष्टि से गाँधी के व्यक्तित्व में इन सबका सम्मिश्रण है। मगर इस व्यक्तित्व का मूल आधार धार्मिकता है।

गाँधी का धर्म परम्परागत धर्म नहीं है। गाँधी का धर्म विभाजक दीवारें खड़ी नहीं करता। गाँधी का धर्म बाँटता नहीं है। गाँधी के धर्म का अर्थ है- ईश्वरमय जीवन जीना। ईश्वर का मतलब किसी रूप साँचे में ढला देवता नहीं है। ईश्वर का अर्थ है- सत्य/सत्याचरण। गाँधीजी ने बार-बार कहा- सत्य के अतिरिक्त अन्य कोई ईश्वर नहीं है। इस ईश्वर की या इस सत्य की प्राप्ति तथा अनुभव का आधार है- प्रेम एवं अहिंसा।

धर्म मनुष्य की पाश्विक प्रकृति को बदलने का उपक्रम है। धर्म मनुष्य की वृत्तियों के उन्नयन की प्रक्रिया है। धर्म एक समग्र सत्य साधना है। धर्म अन्तःकरण के सत्य से चेतना का सम्बन्ध स्थापित करना है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चित्त का, मन का, चेतना का परिष्कार होता है। धर्म वह तत्व है, जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। धर्म मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, धर्म सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है।

गाँधी के पूर्व भारतीय आध्यात्मिक साधना परम्परा में प्राप्ति का लक्ष्य था- मोक्ष प्राप्त करना/निर्वाण प्राप्त करना/बैकुंठ प्राप्त करना/भगवान की समीपता प्राप्त करना। गाँधी की प्राप्ति का लक्ष्य है- मनुष्य मात्र की निरन्तर सेवा करते रहना। गाँधीजी का भारत के संदर्भ में तात्कालिक उद्देश्य था- भारत की स्वाधीनता। भारत की सामान्य जनता में स्वाभिमान को जगाने, स्वाधीनता प्राप्ति के लिए सामूहिक चेतना का निर्माण करने, भारतीय राष्ट्रीयता के नवउत्थान का शंखनाद करने तथा दासता की श्रृंखलाओं को चूर-चूर करने का काम जिन लोगों ने किया उनको प्रेरणा देने का सबसे अधिक काम राष्ट्रपिता ने किया।

-चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर।'
गाँधी का इस दृष्टि से देशभक्तों की पंक्ति में सबसे ऊँचा स्थान है। इतना होते हुए भी गाँधी की देशभक्ति मंजिल नहीं, अनन्त शान्ति तथा जीव मात्र के प्रति प्रेमभाव की मंजिल तक पहुँचने के लिए यात्रा का एक पड़ाव मात्र है।

गाँधीजी ने कहा- ''जिस सत्य की सर्वव्यापक विश्व भावना को अपनी आँख से प्रत्यक्ष देखना हो उसे निम्नतम प्राणी से आत्मवत प्रेम करना चाहिए।'' जीव मात्र के प्रति समदृष्टि/जीव मात्र के प्रति आत्मतुल्यता के जीवन दर्शन से सत्य, अहिंसा एवं प्रेम की त्रिवेणी प्रवाहित होती है।

'वैष्णव जण तो ते णे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे'
दक्षिण अफ्रीका और भारत में उन्होंने सार्वजनिक आन्दोलन चलाए। इन जन आन्दोलनों से उन्होंने सम्पूर्ण समाज में नई जागृति, नई चेतना तथा नया संकल्प भर दिया। उनके इस योगदान को तभी ठीक ढंग से समझा जा सकता है जब हम उनके मानव प्रेम को जान लें, उनके सत्य को पहचान लें, उनकी अहिंसा भावना से आत्म साक्षात्कार कर लें।

गाँधीजी के शब्दों को उद्धृत कर रहा हूँ :- 'लाखों-करोड़ों गूँगों के हृदयों में जो ईश्वर विराजमान है, मैं उसके सिवा अन्य किसी ईश्वर को नहीं मानता। वे उसकी सत्ता को नहीं जानते, मैं जानता हूँ। मैं इन लाखों-करोड़ों की सेवा द्वारा उस ईश्वर की पूजा करता हूँ जो सत्य है अथवा उस सत्य की जो ईश्वर है।'