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Written By WD

मध्यकाल के प्रसिद्ध हिन्दू संत-3

मध्यकाल के प्रसिद्ध हिन्दू संत-3 -
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मध्यकाल में जब अरब, तुर्क और ईरान के मुस्लिम शासकों द्वारा भारत में हिन्दुओं पर अत्याचार कर उनका धर्मांतरण किया जा रहा था, तो उस काल में हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए सैकड़ों सिद्ध, संतों और सूफी साधुओं का जन्म हुआ। मध्यकाल के लगभग सभी सिद्धों के बारे में संक्षिप्त जानकारी हमने यहां जुटाई है। इसका तीसरा भाग प्रस्तुत है। ये सारे सिद्ध संत गुरु गोरखनाथ और शंकराचार्य के बाद के हैं। ईस्वी सन् 500 से ईस्वी सन् 1800 तक के काल को मध्यकाल माना जाता है।

27. संत भीखादास : बारह वर्ष की उम्र में भीखा ने घर छोड़ दिया था। वे 17वीं सदी में हुए थे। उनके प्रमुख शिष्यों में एक पलटू दास की प्रसिद्धि है।

28. वल्लभाचार्य (1479-1531 ईस्वी) : संत वल्लभाचार्य को भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्ण भक्ति शाखा के आधार स्तंभ एवं पुष्टिमार्ग का प्रणेता माना जाता है। इनका जन्म ईस्वी सन् 1447 की वैशाख कृष्ण एकादशी को वर्तमान छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के चंपारण्य गांव में हुआ। इनके माता-पिता मूलत: दक्षिण भारत के कांकरवाड़ के रहने वाले थे। पिता का नाम लक्ष्मणभट्ट (तैलंग ब्राह्मण) और माता का नाम इलम्मागारू था। विवाह पंडित श्रीदेव भट्ट की कन्या महालक्ष्मी से हुआ और दो पुत्र हुए- गोपीनाथ व विट्ठलनाथ। ये चैतन्य महाप्रभु के समकालीन थे। वल्लभाचार्य ने वाराणसी के गंगा घाट पर सन् 1531 को देह त्याग दी।

29. चैतन्य महाप्रभु : (1486- 1534) : चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन् 1486 की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गांव (मायापुर) में हुआ। चैतन्य महाप्रभु द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की स्थापना की गई और वृंदावन को अपनी कर्मभूमि बनाया गया। इन्होंने केशव भारती नामक संन्यासी से दीक्षा ली थी। कुछ लोग माधवेन्द्र पुरी को इनका दीक्षा गुरु मानते हैं। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था। पत्नी का नाम लक्ष्मीप्रिया और विष्णुप्रिया था। उनका देहांत उड़ीसा के पुरी तीर्थस्थल पर हुआ।

30. विट्ठलनाथ : (जन्म- 1515 वाराणसी; मृत्यु- 1585 गिरिराज) : वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक और 'अष्टछाप' के संस्थापक और वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ का जन्म वाराणसी के निकट चरवाट नामक गांव में पौष कृष्ण पक्ष नवमी को 1515 ई. हुआ था। विट्ठलनाथ ने अपने पिता के चार शिष्यों कुंभनदास, सूरदास, परमानंद दास और कृष्णदास तथा अपने चार शिष्यों चतुर्भुजदास, गोविंद स्वामी, छीतस्वामी और नंददास को मिलाकर 'अष्टछाप' की स्थापना की। श्रीनाथजी के मंदिर में सेवा-पूजा के समय इन्हीं आठ के पद गाए जाते थे। विट्ठलनाथ ने गिरिराज की एक गुफा में प्रवेश करके 1585 ई. में शरीर त्याग दिया।

31. संत सिंगाजी महाराज : (1631-1721)- संत सिंगाजी का जन्म विक्रम संवत 1576 में मिती वैशाख सुदी ग्यारस को पुष्य नक्षत्र में प्रात: 8 बजे मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले के खजूरी ग्राम में हुआ। पिता का नाम भीमाजी गवली और माता का नाम गवराबाई था। सिंगाजी का जसोदाबाई के साथ विवाह हुआ था। इनके चार पुत्र कालू, भोलू, सदू और दीप थे।

सिंगाजी के जन्म और समाधिस्थ होने के बारे में विद्वान मतैक्य नहीं हैं। डॉ. कृष्णदास हंस ने उनका जन्म विक्रम संवत् 1574 बताया है। पंडित रामनारायण उपाध्याय ने वि.स. 1576 की वैशाख शुक्ल एकादशी (बुधवार) बताया है। इसी प्रकार समाधिस्थ होने की तिथि डॉ. हंस के अनुसार श्रावण शुक्ल नवमी विक्रम सवंत् 1664 और पं. उपाध्याय के अनुसार विस 1616 श्रावण बदी नवमी निश्चित की जाती है।

32. हितहरिवंश : (1502- 1552) : राधावल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक हितहरिवंश का जन्म विक्रम संवत 1559 मथुरा के समीप बाद गांव में हुआ। पिता श्रीव्यास गौड़ ब्रह्मण थे और माता का नाम तारा था। उनकी पत्नी का नाम रुक्मणि और पुत्रों का नाम मोहनचंद और गोपीनाथ था। वृंदावन को उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाया। उन्हें निम्बार्क संप्रदाय का संस्थापक भी माना जाता है।

हितहरिवंश का निधन विक्रम सं. 1609 (सन्‌ 1552 ई.) में वृंदावन में हुआ। इनकी शिष्य परंपरा में भक्त कवि हरिराम व्यास, सेवकजी, ध्रुवदासजी आदि बहुत प्रसिद्ध हिन्दी कवि हैं। हितहरिवंशजी लिखित चार ग्रंथ प्राप्त हैं- राधासुधानिधि और यमुनाष्टक संस्कृत के ग्रंथ हैं। 'हित चौरासी' तथा 'स्फुट वाणी' इनकी सुप्रसिद्ध हिन्दी रचनाएं हैं। ब्रजभाषा में लालित्य और पेशलता की छटा इनकी हिन्दी रचना में सर्वत्र ओतप्रोत है।

33. गुरुगोविंद सिंह : (1666 से 1708) : गुरु गोविंद सिंह का जन्म 22 दिसंबर सन् 1666 ई. को बिहार के पटना में हुआ था और उनकी मृत्यु 7 अक्टूबर सन् 1708 ई. महाराष्ट्र के नांदेड़ में हुई। मुस्लिम अत्याचार से भारत को मुक्त करने के लिए आपका अवतार हुआ था। इनका मूल नाम 'गोविंद राय' था। उन्होंने सिख कानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिख ग्रंथ 'दसम ग्रंथ' (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि पाई।

इन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिखों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। आपके पिता का नाम गुरु तेगबहादुर और माता का नाम गूजरी देवी था। औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाने के दौरान आपने धर्म की रक्षा की। आप सिखों के अंतिम गुरु थे।

34. हरिदास : (1478 ई. जन्म और मृत्यु 1573) श्रीबांकेबिहारीजी महाराज को वृंदावन में प्रकट करने वाले स्वामी हरिदासजी का जन्म विक्रम संवत् 1535 में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी (श्रीराधाष्टमी) के ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था। आपके पिता का नाम आशुधीरजी (सनाढ्य ब्राह्मण) और माता का नाम गंगादेवी था, जो ब्रज में आकर बस गए थे।
विक्रम संवत् 1560 में 25 वर्ष की अवस्था में श्री हरिदास वृंदावन पहुंचे। वहां उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया। बैजू बावरा और तानसेन जैसे विश्वविख्यात संगीतज्ञ स्वामीजी के शिष्य थे। विक्रम संवत 1630 में स्वामी हरिदास का निकुंजवास (निधन) निधिवन में हुआ।

35. दूलनदास : (जन्म- 1660 ई., लखनऊ; मृत्यु- 1778 ई.) : रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि और सतनामी सम्प्रदाय के संत-महात्माओं में से एक दूलनदास जाति से क्षत्रिय और गृहस्थ थे। उनके गुरु का नाम जगजीवन साहब था। सतनामी संप्रदाय संतों का वह संप्रदाय था, जो संतों की रक्षा करता था। मुगल अत्याचारी बादशाह औरंगजेब ने हजारों सतनामी संतों की हत्या कर दी थी। दूलनदास की कर्मभूमि रायबरेली थी। दूलनदास की भाषा में भोजपुरी का मिश्रण था और उन्होंने अनेक भक्ति पदों की रचना की।

36. महामति प्राणनाथ : (1618-1694) महामति प्राणनाथ के समय में औरंगजेब का शासन था जिसके अत्याचार के चलते लाखों हिन्दू अपना नाम छोड़कर मुस्लिम नाम रख रहे थे। उस काल में सिर्फ मुसलमान बन चुके लोग ही सुरक्षित थे। ऐसे समय में महामति प्राणनाथ ने हिन्दू-मुस्लिम एकता, प्रेम और शांति का संदेश दिया। उनका नाम मेहर ठाकुर था। पिता का नाम केशव ठाकुर था। उनके गुरु देवचंद्रजी थे। गुरु की आज्ञा से वे 4 वर्ष अरब देश में रहे।

प्राणनाथ मूलतः गुजरात के निवासी थे। उन्हें गुजराती, सिंधी, अरबी, कच्छी, उर्दू तथा हिन्दी आती थी। शिष्यों ने उनमें परमेश्वर का दर्शन कर उन्हें प्राणनाथ की उपाधि दी। महामति प्राणनाथजी ने बुंदेलखंड की रक्षा के लिए महाराजा छत्रसाल को वरदानी तलवार सौंपी थी तथा बीड़ा उठाकर संकल्प कराया था कि जिससे महाराज छत्रसाल पूरे बुंदेलखंड की रक्षा कर सके और बुंदेलखंड को जीत सके।