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Written By WD

आचार्य वल्लभाचार्य का प्राकट्य

कृष्ण भक्ति के प्रणेता महाप्रभु वल्लभ

Vallabhacharya | आचार्य वल्लभाचार्य का प्राकट्य
जगद्गुरु वल्लभाचार्य का जन्म सन् 1479 में वैशाख कृष्ण एकादशी के दिन छत्तीसगढ़ के चंपारण्य में हुआ था। जब मुस्लिम आक्रमण के भय से उनके माता-पिता (लक्ष्मण भट्ट और माता इलम्मागारू) दक्षिण भारत जा रहे थे तभी रास्ते में उनका जन्म हुआ।

वल्लभाचार्य का अधिकांश समय काशी, प्रयाग और वृंदावन में ही बीता। उनकी शिक्षा-दीक्षा पं. नारायण भट्ट व माधवेंद्रपुरी के सान्निध्य में काशी में हुई और वहीं उन्होंने अपने मत का उपदेश भी दिया। वे मात्र 11 वर्ष की आयु तक वेद शास्त्रों में पारंगत हो गए थे। उन्हें श्रद्धा के साथ महाप्रभु वल्लभ भी कहा जाता है।

कहा जाता है कि वल्लभाचार्य ने अपना दर्शन खुद गढ़ा था लेकिन उसके मूल सूत्र वेदांत में ही निहित हैं। आचार्य वल्लभ की प्रत्येक कृति लोक हितार्थ एवं सत्प्रवृत्ति संवर्द्घनार्थ निमित्त हुई है। समष्टिगत चेतना का अवतरण जिस स्थूल तनधारी में होता है तो वह सामान्य न रहकर भगवत्सस्वरूप ही हो जाता है। उसी श्रेणी में आचार्य वल्लभाचार्य का स्वरूप आता है।

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वल्लभाचार्य ने भवत्सेवा में नियामक तत्व स्नेह के आधार पर विशिष्ट सेवा क्रम अपना कर जीवों को एक नया आयाम दिया, जिसमें जीवंत जीवन की कला भरपूर एवं संपूर्ण रूप से विद्यमान रहती है। ऐसा आचार्य वल्लभ का प्रेमात्मक स्वरूप था।

वल्लभाचार्य की पत्नी का नाम महालक्ष्मी था। गोपीनाथ और श्रीविट्ठलनाथ उनके दो पुत्र थे। रुद्र संप्रदाय के विल्वमंगलाचार्यजी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षर गोपालमंत्र की दीक्षा दी गई और त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्रतीर्थ से प्राप्त हुई।


प्रमुख शिष्य : वल्लभाचार्य के 84 शिष्य थे जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, कृष्णदास, कुंभनदास और परमानंद दास है।

वल्लभाचार्य और सूरदास का मिलन : वल्लभाचार्य जब आगरा-मथुरा रोड पर यमुना के किनारे-किनारे वृंदावन की ओर आ रहे थे, तभी उन्हें एक अंधा दिखाई पड़ा, जो बिलख रहा था।
वल्लभाचार्य ने कहा तुम रिरिया क्यों रहे हो? कृष्ण लीला का गायन क्यों नहीं करते?
सूरदास ने कहा- मैं अंधा, मैं क्या जानूं लीला क्या होती है?
तब वल्लभ ने सूरदास के माथे पर हाथ रखा। विवरण मिलता है कि पांच हजार वर्ष पूर्व के ब्रज में चली श्रीकृष्ण की सभी लीला कथाएं सूरदास की बंद आंखों के आकाश पर तैर गईं।

तब वल्लभाचार्य उन्हें वृंदावन ले लाए और श्रीनाथ मंदिर में होने वाली आरती के क्षणों में हर दिन एक नया पद रचकर गाने का सुझाव दिया। इन्हीं सूरदास के हजारों पद सूरसागर में संग्रहीत हैं। इन्हीं पदों का गायन आज भी धरती के कोने-कोने में, जहां कहीं श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम पुरुष मानने वाले रह रहे हैं, एक निर्मल काव्यधारा की तरह बह रही है।

प्रसिद्ध ग्रंथ : उत्तरमीमांसा, सुबोधिनी टीका और तत्वार्थदीप निबंध उनके प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके अलावा भी उनके अनेक ग्रंथ हैं।

उन्होंने 52 वर्ष की आयु में सन् 1531 को काशी में हनुमान घाट पर गंगा में प्रविष्ट होकर जल-समाधि ले ली। संत वल्लभाचार्य को भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्ण भक्ति शाखा के आधार स्तंभ एवं पुष्टिमार्ग का प्रणेता माना जाता है। भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा में आचार्य वल्लभाचार्य का स्थान व योगदान कालजयी है।

- RK