जीवन में अपनाएं दूसरों के सद्गुण....
दूर रहे निंदा करने की प्रवृत्ति से
यह बात सौ फीसदी सच है कि गुण और दोषों से इस संसार की रचना की गई है। इनसे मनुष्य ही नहीं समस्त प्राणी प्रभावित हैं। सभी में गुण और दोष पाए जाते हैं। यह हमारी दृष्टि पर निर्भर है कि हम उसमें पहले गुण देखते हैं अथवा दोष। परंतु यह ठीक नहीं होगा कि हम केवल दोषों को देखें और गुणों की ओर ध्यान ही न दें। श्रीमद्भगवद् गीता में कहा गया है कि इस संसार में दोषरहित कुछ भी नहीं है। अतः अच्छा यह होगा कि जब किसी के अवगुणों का बखान किया जाए तो उनके गुणों की भी चर्चा कर ली जाए। परंतु देखा गया है कि जब लोग किसी की निंदा करना शुरू करते हैं तो उसके गुणों की ओर ध्यान ही नहीं देते। एक पक्षीय निंदा की जाती है।
दरअसल यह बात याद रखनी चाहिए कि निंदा से लोगों के बीच व्यक्ति की छवि खराब होती है। समाज में उसकी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान प्रभावित होता है। गीता में भगवान ने भी कहा है कि अपकीर्ति या निंदा, मरण से भी अधिक दुखदायी होती है, इसलिए इससे बचना चाहिए। अतः किसी की निंदा करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अनजाने में उस व्यक्ति के साथ अन्याय तो नहीं कर रहे हैं? कहा भी गया है कि 'निंदा करने का उसी को अधिकार है, जिसका हृदय सहानुभूति से भरा है।' यह निश्चित है कि व्यक्ति में यदि अधिक दोष हैं तो उसके निंदकों की संख्या भी अधिक होगी, परंतु विडंबना यह है कि निंदा करते समय व्यक्ति स्वयं के दोषों को भूल जाता है।
कबीरदासजी कहते हैं- '
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥' इस तरह यदि अपने दोषों को ढूंढ कर उन्हें दूर करने का स्वभाव बना लिया जाए तो निंदा करने की प्रवृत्ति कम हो जाती है। दरअसल दोषों को जान कर उन्हें दूर करने के प्रयास ही हमें निंदा से बचाते हैं। यह भी सच है कि आज तक कोई भी व्यक्ति निंदा से बच नहीं पाया है। बडे-बड़े विद्वानों के दोष गिनाए जाकर उनकी निंदा की जाती रही है।