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रोजे : मजहब का तीसरा स्तंभ

रोजे : मजहब का तीसरा स्तंभ - Ramadan Festival
नर्क से मुक्ति दिलाते हैं रोजे
 
- हबीब खान
 

 
इस्लाम में रोजे को मजहब का तीसरा स्तंभ माना गया है। रोजे का मतलब अमसाक यानी रुकने और बचने से है। रमजान के रोजे, सेना के अनुशासन जैसे कठिन परिश्रम और परीक्षण का नाम है। रमजान वो महीना है जिसमें कुरआन अवतरित हुआ। इसी वजह से इसकी अहमियत अत्यधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है।
रमजान के शुरू के दस दिन रहमत के हैं, दूसरा हिस्सा मगफिरत का है और तीसरा हिस्सा दोजख से आजादी हासिल करने के लिए आरक्षित है। रोजे का समय सुबह पौ फटने से लेकर शाम को सूरज ढल जाने तक रहता है, इस मध्य रोजदार को अन्न, पानी, धूम्रपान तथा हम बिस्तर होने से दूर रहना होता है।
 
रोजे को अरबी भाषा में अस्सौम भी कहा जाता है जिसे उर्दू जुबान में रोजा कहते हैं। परंतु यह शब्द फारसी भाषा का है, रोजा केवल जुबान का नहीं बल्कि शरीर के प्रत्येक अंग जैसे पेट, आंखें, कान, यहां तक कि दिल-दिमाग का भी होता है। रोजे का प्रयोजन है शरीर के प्रत्येक अंग पर आत्मनियंत्रण रखना। 
 
इन रोजों को बिना किसी मजबूरी के छोड़ने वाला बहुत बड़ा गुनहगार होता है और इसके फर्ज होने से इंकार करने वाला काफिर हो जाता है। अल्लाह ने मुसाफिर और बीमार को यह छूट दी है कि वह सफर और रोग के कारण रोजा छोड़ सकते हैं और जितने दिन रोजे छूटे उतने ही रोजे बाद में रखें।
 
अल्लाह तआला दिलो का हाल जानने वाला और महानतम रहम करने वाला है लेकिन भूल-चूक इत्यादि की माफी का दारोमदार उसकी अपनी नीयत पर टिका होता है। अल्लाह तआला के नजदीक रोजदार का विशेष स्थान है। नमाज एवं दूसरी इबादतें तो इंसान स्वयं के लिए करता है लेकिन रोजा सिर्फ अल्लाह की खुशनूदी के लिए रखा जाता है जिसका बदला वह कयामत के दिन स्वयं देने का वादा कर चुका है।
 
रोजदार के लिए आवश्यक है कि वह अपने आंखों से बुराई न देखे, कानों से गलत बात न सुने। अपनी जुबान को व्यर्थ की बातों से दूर रखे और मन मस्तिष्क की बुरी बातें सोचने से रोके। इंसान को सबसे ज्यादा बहकाने वाली चीज उसकी अपनी इंद्रियां हैं और विश्व के सभी इंसान नफ्स (इंद्री) के बंदे और गुलाम हैं। रोजा एक ऐसी अर्चना है जो व्यक्ति को नफ्स की गुलामी से हटाकर अल्लाह की आज्ञाकारी बनाती है। रोजे में दिनभर इंसान नफ्स की मर्जी पर नहीं बल्कि अल्लाह तआला द्वारा बताए गए नियमों पर अपनी जिंदगी व्यतीत करने का अभ्यास नियमित रूप से करता है।
 
कुरआन के अनुसार जब किसी हुकूमत में बिजली, पानी और खाद्य सामग्री की कमी हो जाती है तो शासक जनता से अपील करता है कि हफ्ते में एक दिन बिजली मत जलाओ, दिन में एक बार नल का इस्तेमाल करो, एक दिन भूखे रहो जिससे जो कमी उत्पन्न हुई है वो पूरी हो सके।
 
अल्लाह तआला की हुकूमत में तो ऐसी कोई बात नहीं, फिर अल्लाह ने अपने बंदों पर रोजा फर्ज क्यों किया? क्या वह जबर्दस्ती अपने बंदों को भूखा-प्यासा रखना चाहता है? नहीं, वह तो बड़ा दयालु और कृपालु है। वह तो अपने बागी बंदों को भी मरते दम तक खिलाता-पिलाता है तो फिर जरा गौर कीजिए कि वह हम पर रोजा अनिवार्य करके हममे क्या चीज पैदा करना चाहता है।
 
यदि इस महीने में रोजेदार गिड़गिड़ाकर अल्लाह तआला से अपने गुनाहों की माफी मांगे तो उसके गुनाह माफ कर दिए जाते हैं।