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Last Updated : सोमवार, 26 सितम्बर 2016 (17:46 IST)

पर्यावरण व अपने परिवेश से जोड़ता है संजा पर्व...

पर्यावरण व अपने परिवेश से जोड़ता है संजा पर्व... - Sanza festival
संजा पर्व पर मालवा, निमाड़, राजस्थान व गुजरात के क्षेत्रों में कुंवारी कन्याएं गोबर से दीवार पर 16 दिनों तक विभिन्न कलाकृतियां बनाती हैं तथा उसे फूलों व पत्तियों से श्रृंगारित करती हैं। वर्तमान में संजा का रूप फूल-पत्तियों से कागज में तब्दील होता जा रहा है। 


 
संजा का पर्व आते ही लड़कियां प्रसन्न हो जाती हैं। संजा को कैसे मनाना है, ये छोटी लड़कियों को बड़ी लड़कियां बताती हैं। 
 
शहरों में सीमेंट की इमारतें और दीवारों पर महंगे पेंट पुते होने, गोबर का अभाव, लड़कियों के ज्यादा संख्या में एक जगह न हो पाने की वजह, टीवी-इंटरनेट का प्रभाव और पढ़ाई की वजह बताने से शहरों में संजा मनाने का चलन खत्म-सा हो गया है लेकिन गांव-देहातों में पेड़ों की पत्तियां, तरह-तरह के फूल, रंगीन कागज, गोबर आदि की सहज उपलब्धता से यह पर्व मनाना शहर की तुलना में आसान है। 
 
परंपरा को आगे बढ़ाने की सोच में बेटियों की कमी से भी इस पर्व पर प्रभाव पड़ा है इसलिए कहा भी गया है कि 'बेटी है तो कल है'। किसी ने ठीक ही रचा है- 'आज शहर में भूली पड़ीगी है म्हारी संजा/ घणी याद आवे है गांव की सजीली संजा/ अब बड़ी हुई गी पण घणी याद आवे गीत संजा/ म्हारी पोरी के भी सिखऊंगी बनानी संजा/ मीठा-मीठा बोल उका व सरस गीत गावेगी संजा'। 
 
हमउम्र सहेलियों के साथ संजा गीत गुलजार होती कुंवार की शामों को और भी मनमोहक बना देते हैं, वहीं छोटे भाई भी प्रसाद खाने की लालसा में संजा गीत गुनगुना लेते हैं और बहनों के लिए संजा को दीवारों पर सजाने में उनकी मदद करते हैं। 
 
संजा से कला का ज्ञान प्राप्त होता है, जैसे पशु-पक्षियों की आकृति बनाना और उसे दीवारों पर चिपकाना। गोबर से संजा माता को सजाना और किलाकोट, जो संजा के अंतिम दिन में बनाया जाता है, उसमें पत्तियों, फूलों और रंगीन कागज से सजाने पर संजा बहुत सुन्दर लगती है। 
 
लड़कियां संजा के लोकगीत को गाकर संजा की आरती कर प्रसाद बांटती हैं- 'संजा तू थारा घर जा, थारी माय मारेगी कि कुटेगी, चांद गयो गुजरात…/ संजा माता जीम ले…/ छोटी-सी गाड़ी लुढ़कती जाए, जी में बैठी संजा बाई जाए…' आदि श्रृंगार रस से भरे लोकगीत जिस भावना और आत्मीयता से लड़कियां गाती हैं, उससे लोकगीतों की गरिमा बनी रहती और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए हैं। 
 
मालवा-निमाड़ की लोक-परंपरा श्राद्ध पक्ष के दिनों में कुंआरी लड़कियां मां पार्वती से मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए पूजन-अर्चन करती हैं, विशेषकर गांवों में संजा ज्यादा मनाई जाती है। संजा मनाने की यादें लड़कियों के विवाहोपरांत गांव-देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती हैं और यही यादें उनके व्यवहार में प्रेम, एकता और सामंजस्य का सृजन करती हैं। 
 
संजा सीधे-सीधे हमें पर्यावरण व अपने परिवेश से जोड़ती है, तो क्यों न हम इस कला को बढ़ावा दें और विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जाएं। वैसे उज्जैन में संजा उत्सव पर 'संजा पुरस्कार' से सम्मानित भी किया जाने लगा है, साथ ही महाकालेश्वर में उमा साझी महोत्सव भी प्रतिवर्ष मनाया जाता है। 
 
कुल मिलाकर संजा देती है- कला, ज्ञान एवं मनोवांछित फल।