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Written By ओशो
Last Updated : बुधवार, 9 जुलाई 2014 (10:05 IST)

ओशो प्रवचन : व्यक्तित्व का मनोविज्ञान

ओशो प्रवचन : व्यक्तित्व का मनोविज्ञान -
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ओशो के अधिकतर प्रवचन आपके जीवन की समस्याओं से जुड़े हैं। धर्म, समाज, राष्ट्र और तथाकथित बौद्धिक लोगों ने आपके जीवन को मार दिया है। ढेर सारे प्रश्नों के बोझ तले दबे व्यक्ति का स्वा‍भाविक व्यक्तित्व कहीं खो गया है। लोगों के पास प्रश्न है और ओशो के पास उन प्रश्नों को समझने की दृष्टि। प्रश्न और उत्तरों की प्रवचन माला में से एक मोती निकाल कर हम लाएं है....

प्रश्न : मुझे महसूस होता है कि मेरे पास आलस्य और पलायनवाद की पूरी विरासत है। या तो मैं अपने भीतर ऊर्जा महसूस नहीं करता, अगर करता भी हूं तो मेरे लिए पूरी तरह लेट गो करना मुश्किल होता है। मैं एक नियंत्रण अनुभव करता हूं।

ओशो का उत्तर : मुझे लगता है कि कहीं न कहीं यह तुम्हारे जैव कंप्यूटर का हिस्सा बन चुका है। मन एक कंप्यूटर की तरह काम करता है, और हमारा सोचने का ढंग इसके लिए चारे का काम करता है। हमारे विचार इसमें इकट्ठे होते रहते हैं और धीरे-धीरे वे गहराई से जम जाते हैं। व्यक्तित्व को हम दो श्रेणियों में बांट सकते हैं। एक जिसे मनोविज्ञानी टी-व्यक्तित्व कहते हैं, विषैला, और दूसरा जिसे वे एन-व्यक्तित्व कहते हैं, पुष्टिकर।

विषैला व्यक्तित्व हमेशा चीजों के प्रति नकारात्मक नजरिया रखता है। विषैले व्यक्तित्व का दुनिया को देखने का नजरिया निराशावादी और उदासीन होता है। विषैला व्यक्तित्व हमेशा सुंदर चेहरों के पीछे छिपता है। पराकाष्ठावादी विषैले व्यक्तित्व का एक उदाहरण है। तुम यह नहीं कह सकते कि पराकाष्ठावादी में कुछ गलत है, लेकिन पराकाष्ठावाद का एकमात्र लक्ष्य ही त्रुटियां, गलतियां, खामियां निकालना है। यही सारी चाल है।

आप ऐसे व्यक्ति में गलतियां नहीं ढूंढ सकते जो पूर्णता की तलाश में है। परन्तु वास्तव में पूर्णता उसका उद्देश्य नहीं है; यह एक साधन मात्र है। वह सिर्फ त्रुटियां, गलतियां, खामियां, और अभाव को देखना चाहता है, और यह सबसे अच्छा तरीका है: पराकाष्ठावाद को एक लक्ष्य की तरह रखना ताकि वह हर चीज की अपने आदर्श से तुलना करके उनकी निंदा कर सके।

विषैला व्यक्तित्व हमेशा उन चीजों को देखता है जो नहीं हैं और मौजूद चीजें कभी उसकी नजर में नहीं आती, इसलिए असंतोष स्वाभाविक बन जाता है। विषैला व्यक्तित्व अपने आपको ही विषाक्त नहीं बनाता बल्कि दूसरों पर भी विष टपकाता रहता है।

यह एक विरासत की तरह भी हो सकता है। अगर तुम अपने बचपन में नकारात्मक लोगों के साथ जिए हो.....यह नकारात्मकता चमकदार शब्द, सुंदर भाषा, आदर्शों, स्वर्ग, धर्म, भगवान, आत्मा आदि के पीछे छिपी हो सकती है; वे सुंदर शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं, लेकिन वह सिर्फ प्रयास मात्र है....और वे सिर्फ इस दुनिया की निंदा करने के लिए दूसरी दुनिया के विषय में बात करते हैं। वे दूसरी दुनिया के बारे में चिंतित नहीं हैं। उनका संत-महात्माओं से कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन सिर्फ दूसरों को पापी सिद्ध करने के लिए वे संतों की बाते करते हैं।

यह बहुत रुग्ण रवैया है। वे कहेंगे जीसस की तरह बनो। वे जीसस में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं रखते। अगर जीसस वहां होते तो वे उनके पास जाने वाले आखिरी मनुष्य होते, लेकिन सिर्फ तुम्हारी निंदा करने के लिए यह उनका एक उपाय मात्र है। तुम उनके शिकार बनते हो क्योंकि तुम जीसस नहीं बन सकते। वे हमेशा तुम्हारी निंदा करते रहेंगे। वे मान-मर्यादा, आचार, नीति, नैतिकतावादी नजरिया बनाते हैं। जो नैतिकतावादी, समाज के ठेकेदार हैं; उन्हीं का दुनिया को विषाक्त बनाने में सबसे बड़ा हाथ है।

और ये लोग हर जगह हैं। ऐसे लोग ही ज्यादातर शिक्षक, शिक्षाविद, प्रोफेसर, कुलपति, संत, बिशप, पोप वगैरह बनते हैं; वे ऐसे बनना चाहते हैं ताकि वे निंदा कर सकें। यहां तक कि वे सब कुछ त्यागने के लिए तैयार रहते हैं अगर उन्हें दूसरों की निंदा करने का सुख मिले। वे हर कहीं हैं, कई परदों के पीछे छुपे हुए। और वे हमेशा तुम्हारी भलाई के लिए काम करते हैं, सिर्फ तुम्हारी भलाई के लिए, इसलिए तुम उनके आगे रक्षाहीन हो। उनकी विरासत वास्तविक और बड़ी है। पूरे इतिहास पर उनका प्रभुत्व रहा है।

ये लोग बड़ी जल्दी हावी हो जाते हैं। उनकी विचारधारा ही उनका सबसे बड़ा हथियार हैं क्योंकि वे निंदक बन सकते हैं। और वे तर्कसंगत बातें करते हैं। तर्कसंगत होना भी विषैले व्यक्तित्व का एक हिस्सा है। वे बड़े तर्कसंगत होते हैं......वाद-विवाद में उन्हें हराना बड़ा मुश्किल है। वे कभी युक्तियुक्त (रीजनेबुल)नहीं होते, पर वे हमेशा तर्कसंगत होते हैं।

युक्तियुक्त मनुष्य और तर्कसंगत मनुष्य के बीच अंतर जानना बड़ा जरूरी है। एक युक्तियुक्त मनुष्य कभी सिर्फ तर्कसंगत नहीं होता, क्योंकि एक युक्तियुक्त मनुष्य अपने अनुभव से जानता है कि तर्कसंगत और तर्कहीनता दोनों ही जीवन के पहलू हैं; कि जीवन में तर्क और भावनाएं, मस्तिष्क और हृदय दोनों होते हैं।

दूसरे प्रकार का व्यक्तित्व है एन-व्यक्तित्व, पुष्टिकर व्यक्तित्व जो बिल्कुल अलग है। उनका कोई आदर्श नहीं होता, वे जीवन को देखते हैं और वास्तविकता ही उनका आदर्श तय करती है। वह अत्यंत युक्तियुक्त होता है। वह कभी भी पराकाष्ठावादी नहीं होता; वह संपूर्णतावादी होता है लेकिन पराकाष्ठावादी नहीं होता। और वास्तविकता तर्कसंगत और होने की बजाय वे पुर्णतावादी होते हैं। और वे हमेशा चीजों में अच्छाई देखते हैं। एन व्यक्तित्व हमेशा आशावान, उज्ज्वल, साहसी, निंदा में भरोसा नहीं रखने वाला होता है। ऐसे लोग ही ज्यादातर कवि, चित्रकार, या संगीतकार बनते हैं।

अगर कोई एन-प्रकार का व्यक्तित्व संत बनता है तो वह सच्चा संत होगा। अगर कोई टी-प्रकार का व्यक्तित्व संत बनता है तो वह झूठा संत होगा, एक छद्म संत। अगर कोई एन-प्रकार का व्यक्तित्व पिता बनता है तो वह सच्चा पिता होगा। अगर कोई एन-प्रकार की स्त्री मां बनती है तो वह सच्ची मां होगी।

टी-प्रकार के मनुष्य छद्म माता-पिता होते हैं। उनका माता-पिता होना बच्चे का शोषण करने की, यातना देने, हावी होने, अधिकारी बनकर बच्चे को कुचलने की और बच्चे को कुचलकर शक्तिशाली अनुभव करने की एक चाल भर है। टी-प्रकार के लोग बहुमत में हैं, तो तुम शायद ठीक ही समझते हो कि तुम भी हर किसी की तरह ये विरासत लिए हुए हो। परन्तु एक बार सजग होने के बाद ये ज्यादा परेशानी पैदा नहीं करता। तुम टी से एन तक आसानी से पहुंच सकते हो।

कुछ बातें याद रखने जैसी हैं। अगर तुम सुस्त महसूस करो तो इसे आलस्य का नाम मत दो, अपने मन की आवाज सुनो, शायद ये आलस्य ही तुम्हारे लिए सही है। उसी को मैं युक्तियुक्त मनुष्य कहता हूं। तुम क्या कर सकते हो? अगर तुम्हें आलस्य आता है तो तुम बस वही कर सकते हो। तुम उसके खिलाफ जाने वाले कौन होते हो? और तुम इसके खिलाफ जा कर जीत भी कैसे सकते हो? तुम अपनी लड़ाई में भी आलसी रहोगे। फिर कौन जीतेगा? तुम बार-बार हारते जाओगे, तब तुम नाहक ही दुखी महसूस करोगे।

यथार्थवादी बनो, अपने अंतरतम की आवाज़ सुनो। हर कोई अपनी गति से चलता है। कुछ लोग बहुत सक्रिय होते हैं, ऐसा होने में कुछ गलत नहीं है। अगर वे इससे अच्छा महसूस करते हैं तो ये उनके लिए अच्छा है।

और कोई आदर्श मत रखो की तुम्हें ये करना ही है। ऐसा मत सोचो कि ऐसा करना चाहिए; 'करना चाहिए' न्युरोसिस की स्थिति पैदा करता है। फिर व्यक्ति आविष्ट हो जाता है ; फिर 'करना चाहिए' हमेशा बीच में आता है, वहां खड़ा हुआ तुम्हारी निंदा करता हुआ। फिर तुम किसी भी चीज का आनंद नहीं ले सकते। आनंद लो!

आदर्श को पूरी तरह से खत्म करो और अभी और यहीं रहो। तुम जो कर सकते हो, करो; अगर तुम कुछ नहीं कर सकते तो उसे स्वीकार करो। तुम ऐसे ही हो, और यहां तुम स्वयं बनने के लिए हो, न की कोई और। धीरे-धीरे तुम देखोगे कि कैसे तुम टी से एन में बदल रहे हो। तुम पुष्टिकर बन जाओगे और जीवन का ज्यादा आनंद लेने लगोगे, तुम ज्यादा प्रेम करने लगोगे, ज्यादा जागरूक बन जाओगे और ज्यादा ध्यानपूर्ण होओगे।

वस्तुत: एक सक्रिय मनुष्य की बजाय एक आलसी का ध्यानपूर्ण बनना ज्यादा आसन है। यही कारण है की पूरा पूर्व इतना सुस्त है, वे अत्यधिक ध्यान करते थे। ध्यान एक तरह की निष्क्रियता है। एक सक्रिय मनुष्य बड़ा अशांत होता है। उसके लिए शांत बैठना बड़ा मुश्किल काम है। कुछ न करना एक सक्रिय मनुष्य के लिए बड़ा कठिन होता है।

इसका आनंद लो और जो अपने अंतरतम को ठीक लगे, करो ; बिना किसी आदर्श और पराकाष्ठा के। वरना ये तुम्हे नष्ट कर देंगे। गहरी आशा के साथ जीवन को देखो। जीवन वास्तव में सुंदर है। इसे सिर्फ देखो, और किसी पराकाष्ठा का इंतजार मत करो। ऐसा मत सोचो कि जब सब कुछ सम्पूर्ण होगा तभी तुम उसका आनंद ले सकोगे, अगर तुम ऐसा सोचोगे तो कभी किसी चीज का आनंद नहीं उठा पाओगे।

अगर टी-प्रकार का मनुष्य परमात्मा से भी मिलेगा तो तुरंत उसमें कमियां निकालना शुरु कर देगा। इसीलिए परमात्मा छुपा बैठा है। वह सिर्फ एन-टाइप के लोगों के सामने आता है, टी-टाइप से हमेशा छुपा रहता है। परमात्मा सिर्फ उनसे मिलता है जो न सिर्फ उससे पोषण ग्रहण कर सके, बल्कि उसे पोषण दे भी सके।

तो सिर्फ विश्राम करो, आनंद लो, और सारी मुसीबतें खुद हल हो जाएंगी।

सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाऊंडेशन, पुणे