गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By WD

प्रवासी भारतीय आत्म कथा

प्रवासी भारतीय आत्म कथा -
- रमा शर्मा (कोबे, जापान)

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भारतीय होना बहुत गर्व की बात है और प्रवासी भारतीय को तो वैसे भी सभी सम्मान की नजर से ही देखते हैं, लेकिन कभी किसी ने सोचा है वो अपने देश से दूर, अपनों से दूर कैसे रहता है, अपनों के लिए पैसा कमाने अपने देश से विदेश गया, वहीं क्यों बस जाता है, क्या उसे अपने देश या अपनों की याद नहीं आती...।

याद आती है, बहुत याद आती है उसे अपने देश की, देश में रहने वालो की, देश में रहनेवालों से बिछुड़ने के कारण ज्यादा बहुत ज्यादा याद आती है, लेकिन मजबूरियां उसे वापस आने नहीं देती। पैसा उसके पांव की जंजीर बन जाता है और बाद में जब वो वापस आना चाहता है तो चाह कर भी आ नहीं पाता, उसका वहां रहने का आदि हो चुका परिवार वापस आना नहीं चाहता और उसे खुद से समझौता करके वहीं रहना पड़ जाता है।

जब वो बाहर गया था तो अपने मां-बाप, भाई-बहन या पत्नी के लिए पैसा कमाने, इसीलिए उसका देश छूटा, अपने छूटे, संगी-साथी छूटे, उसने सब सहा..। जब भी होली, दीपावाली या राखी आती है तो किसी कोने में छिप कर दो आंसू बहा लेता और अपने घरवालों को बहुत-सा पैसा भेज कर खुशी महसूस करता कि चलो वो न सही, उसके घरवाले तो खुश हैं। वो तो खुशी से त्योहार मना रहे हैं, लेकिन उसका दिल रोता उन होली के रंगों और दीपावाली के पटाखों कि आवाज को याद करके, राखी पर जब अपनी सूनी कलाई देखता और बिना टीका हुए माथे को, तो मुंह छिपा लेता है अपना खुद से भी। काम में तो कभी-कभी उसे कई त्योहारों का पता ही नहीं चलता, जब भी वापस जाने कि सोचता तो घर से कोई और नए खर्चे कि चिट्ठी आ जाती, जो उसे वापस जाने से रोक देती है।

जब बहुत अकेला हो गया, तो शादी भी कर ली घरवालों से पूछ कर। शादी हुई तो बच्चे भी हो गए, खर्चे और बढ़ गए तो मेहनत भी और बढ़ गई, अपने देश जाना और कम होता गया। धीरे-धीरे समय गुजरता गया, बच्चे बड़े हो गए और अपने-अपने काम में व्यस्त हो गए और उसे कुछ समय मिला तो वो अपने देश जाने की फिर से सोचने लगा, उसका फिर से दिल चाहा अपने देश जाकर रहने के लिए और इस बार वो चला भी गया, लेकिन वहां जाकर देखा तो सब बदल चुका था।

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मां-बाप बूढ़े हो गए थे, भाई-बहन सभी अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो चुके थे। संगी-साथियों में कोई कहीं तो कोई कहीं चला गया था, सब उसके साथ कितना परायों वाला व्यवहार कर रहे थे। कैसे सब अपने-अपने तोहफे लेकर इधर-उधर हो गए थे और कुछ ही दिनों बाद दबी जुबान से पूछने लगे थे और कितने दिन हो यहां, वो फिर किसी कोने में छिप कर रो पड़ा कि क्या वो इन सबके लिए अपने परिवार से लड़कर दूर गया था, लेकिन यहां तो उसे कोई अपना नहीं लग रहा था, न वो पहले वाला प्यार न वो धींगा-मस्ती, न वो मां का लाड़, न बाबा की फटकार, वो बहन को छेड़ना, पड़ोसियों को तंग करना, वो होली के रंग, वो दीपावाली के पटाखे...

यह क्या हो गया सब, इतना सब कैसे बदल गया, वो क्या इन सबके लिए इतना तड़पता-तरसता रहा था, क्या इन सबके लिए वो सालों रोया और तरसा है, नहीं अब यहां कोई अपना नहीं रहा, अब यहां से उसे वापस जाना ही है अपने बच्चो के पास। अब वो ही सिर्फ उसका परिवार है समझ गया था और वहां रहनेवाले ही उसके सगे-संबंधी थे और वो वापस आ गया।

अब यह विदेश नहीं उसे उसका अपना देश लग रहा था, वो फिर पहले कि तरह पैसे भेजने लगा तो फिर से पहले की तरह चिट्ठियां आने लगी कि अब फिर कब आओगे, जब आओ तो यह सामान लेते आना, तुम्हे सब याद करते हैं।

एक बार फिर से ठेस लगी उसके मन को, की सब उसे याद करते हैं। यह कोई नहीं कहता कि बहुत हो गया अब घर वापस आ जाओ, तुम्हारे बिन न होली है न दीपावाली, राखी पर तुम्हारी बहन तुम्हें याद करती है, लेकिन यह सब तो कोई नहीं कहता उससे, वो सब खुश हैं उसके बिना बस वो ही एक तनहा है, वो भारतीय से प्रवासी भारतीय बन चुका था और से दर्द ये सूनापन उसकी तकदीर...।