- हरनारायण शुक्ला
लंबा सफर हो या छोटा,
पर हो वह बड़ा ही सुहाना,
जिंदादिल हमसफर गर मिले तो,
दिल लुटा दूं उसे, पड़े मत चुराना।
हरी-भरी वादियों से मैं गुजरूं,
गुजरूं हिमानी तूफानों से मैं,
मिले मीत मुझको इन्हीं राहों में तो,
घर बसा लूं दहकते मरुस्थल में मैं।
पर्वत, नदी, झील झरने मनोरम,
अद्भुत छटा है बड़ा ही मनोहर,
साथ साथी का हो जाए मेरा यहीं पर,
जैसे कमल का साथ होता सरोवर।
चलते-चलते अकेले तन्हा हूं मैं,
लोग पूछें क्यूं हूं यूं मायूस मैं,
यार मिल जाए मेरा यहीं तो कहीं,
जन्नत बना लूं जहन्नुम में मैं।
पूरे पच्चीस देखे हैं मैंने वसंत,
किंतु वासंती मुझको मिली ही नहीं,
बाट जोहूंगा उसका यहीं पे कहीं,
चूंकि तन-मन में मेरे वो छाई हुई।