प्रवासी साहित्य : ओ कोटि कोटि प्राची...
- विजय कुमार सिंह
ओ कोटि कोटि प्राची के जन
भारत की संतति ओ महान
फिर से खोलो रे रुद्ध कंठ
गाओ फिर से रे साम् गान।
उठो-उठो फिर से जागो
अपनी निद्रा आलस्य त्याग
गूंजे फिर से इस अम्बर में
जय-जय हे का तुमलनाद।
फिर से हर मन में हर्ष भरे
स्पंदित हों फिर सभी प्राण
फिर से खोलो से रुद्ध कंठ
गाओ फिर से रे साम् गान।
जगने दो फिर स्मृतियों में
आदर्श भरा स्वर्णिम अतीत
जाने दो अब तो घना तिमिर
युग युग से ठहरी है निशीथ।
मन फिर से नव आलोक भरे
उग आए क्षितिज में अंशुमान
फिर से खोलो रे रुद्ध कंठ
गाओ फिर से रे साम् गान।
भर दो फिर से इस पतझड़ में
तुम पल्लव पुष्पित नव बसंत
फैला दो फिर से सुरभि नई
हो जाए सुरभित दिग्-दिगंत।
छू लो फिर गौरव तुंग शिखर
रच डालो फिर नव कीर्तिमान
फिर से खोलो रे रुद्ध कंठ
गाओ फिर से रे साम् गान।
साभार- गर्भनाल