गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. एनआरआई
  3. एनआरआई साहित्य
  4. Pravasi Kahani
Written By

जीवन की सच्चाई से रूबरू कराती कहानी : 'स्वाति'

जीवन की सच्चाई से रूबरू कराती कहानी : 'स्वाति' - Pravasi Kahani
सारा मिश्रा, साइप्रस 


 
आखिर दोष क्या है मेरा? यही कि मैं एक लड़की हूं? या सिर्फ इस घर में जन्म लेना ही? या... एक लड़की का जन्म तो होता है दो इंसानों से ही, लेकिन उसे उसके मां-बाप नहीं मिलते। एक लड़की को भगवान कांधा तो देता है दूसरों के सर रखने के लिए लेकिन उसे उसके आंसू पोछने के लिए कोई हाथ क्यूं नहीं देते? काश! कभी तो मेरे किसी सवाल के जवाब मिल जाते। 
 
शायद जिंदगी का होश मैंने बाद में संभाला, पहले ये सवाल मुझे मुझसे ही मिलते रहे। एक आईना था, जो आंगन में टंगा था जिससे मैं घंटों बातें करती थी। जिसे मेरी लाल आंखें बिलकुल नहीं भाती थी। एक रोज मैं उससे भी आंखें चुराने लगी। 
 
मैं रात में तारों से बातें करने लगी। अब घंटों बातें करती हूं... कभी-कभी सारी रात बातें करती हूं। मैं कौन हूं? क्यूं भगवान ने इस धरा पर भेज दिया है? नाम भी तो मेरे जन्मदाताओं से नहीं मिला... जिसके मन को लुभा गई उसने ही एक नाम दे दिया... और अब मुझे सब 'स्वाति' कहकर बुलाते हैं।  
 
हां... यही मेरा नाम है... स्वाति... एक सांस में कितनी ही बातें एकसाथ कह गई स्वाति... जैसे कोई गुबार था दिल में उसके, जो फूटने को बेकरार था। बस, छूने भर की ही देर थी। उसके हंसते चेहरे के पीछे कोई दर्द भी छुपा हो सकता, कभी सोचा नहीं था। 
 
 

 



जब भी मैं स्वाति से मिली मैं, वह हमेशा हंसते हुए उलटे मुझे समझाती। मेरे शिकवे-शिकायत को दूर करती, जो मुझे मेरे अपनों से मिली... हमेशा एक सकारात्मक दृष्टिकोण से समझने और भूल जाने को कहती। आज उसे हुआ क्या है? क्यूं ऐसी बातें कर गईं। फोन पर क्यूं मुझे घर आने को कहा। मैं उसकी बातों को सोचने लगी और तैयार होकर उसके घर की ओर चल पड़ी... रास्तेभर स्वाति का चेहरा और उसकी बातें ही कानों में गूंजती रहीं। 
 
रास्ते लंबे से प्रतीत होते जा रहे थे। 10 मिनट का सफर घंटों से कम नहीं लग रहा था। जैसे ही मैं स्वाति के घर पहुंची, देखा घर का दरवाजा खुला था। घर का कोई भी नौकर नजर नहीं आ रहा था। 
 
मुझे देखती ही स्वाति दौड़ पड़ी और जोर से गले लगा लिया और फफकते हुए कहा, 'मां बीमार है।'
 
तेरी मां तो हमेशा ही बीमार रहती है अब इसमें रोने की क्या बात है? जल्दी ही ठीक भी हो जाती है, ठीक हो जाएगी, हिम्मत रख, मैंने उसे ढांढस बधाते हुए फिर से गले लगा लिया। 
 
मैंने पास ही रखा गिलास का पानी उसकी ओर बढ़ाया और कहा, दो घूंट पानी पी और शांत हो जा, 'मां बीमार है' बात बस इतनी-सी ही तो है, जो तुझे इतना नहीं रुला सकती। बात क्या है? सच-सच बता, मैं तेरी बचपन की सहेली हूं, इतना तो समझती ही हूं। क्या बात है? मुझे यहां क्यूं बुलाया है? 
 

 


 


तुझे तो मालूम है घर वालों ने मुझसे नाता तोड़ रखा है लेकिन मैं मां को देखने जाना चाहती हूं, पर कैसे? हिचकियां लेते हुए स्वाति ने मुझे बताया... फिर सोचती हूं, क्या मैं जितनी आतुर हूं उन्हें मिलने देखने के लिए क्या वो भी? क्या मैं उनकी ऐसी औलाद हूं जिसको देखने से उनके आंखों में ठंडक उतर आए? मैं उनकी बेटा नहीं, मैं तो उनकी कोख से जन्मी लड़की हूं, जिसके जन्म लेने के बाद से मरने का इंतजार रहा।

ईश्वर ने भी मुझे अनोखा चिह्न जो मेरी कलाई पर देकर इस धरती पर भेजा है, क्यूं बनाया ये अनोखा चिह्न, जिसे दिखा-दिखाकर लोगों से मेरे मरने की अवधि पूछती थी, वास्तव में क्या मां ऐसी ही होती हैं, जो अपनी अंश को अपने ही दूध से वंचित रखे? घर में दादी न होती तो ही अच्छा था, किसी गोद में मैं महफूज तो न रहती, मैं अपनी मां की इच्छा तो पूरी कर ही देती, रोती-बिलखती, भूखी-प्यासी बिना देखभाल किसी बीमारी की चपेट में आकर मर तो जाती, दूर तो हो जाती मैं अपनी मां की आंखों से जो किरकिरी बनके चुभ रही थी।
 
लेकिन शायद ईश्वर की कुछ और मर्जी थी, वक्त के साथ में मैं भी बड़ी तो हुई पर... कहते-कहते स्वाति के आंखों की लड़ियां टूटने-सी लगीं, हिचकियां थम-सी गई थीं... पर जैसे कोई ज्वार-भाटा मेरे हृदय को द्रवित-सा करने लगा, स्वाति की आंखों के सूखते आंसू... मेरी आंखों में नमी बनके बहने को आतुर हो रहे थे... और स्वाति... एक सांस में जाने क्या-क्या कह जाना चाहती थी। मैं हैरान-परेशान और अपनी आंसुओं के बोझ तले दबती जा रही थी। 
 
तभी स्वाति मेरे कंधे पर सर रखकर एक लंबी सांस लेती हुए बोली... 'तुझे पता है मैं सिर्फ तीन साल की थी, मेरे हाथ में फ्रैक्चर आ गया था। बच्चों के खेल-खेल में मैं काफी ऊंचाई से गिर गई थी, मैं दर्द से कराह रही थी और मेरी मां ने कहा कि मेरी बदमाशी है, बहाना है और मैं रोते-रोते सो गई थी। रात को पापा जब आए तो मुझे गोद में लिया और दवा लगाई फिर डॉक्टर को दिखाया जबकि मेरे किसी भी भाई को कुछ हो जाता तो वो बहुत परेशां हो उठती, पर मेरे लिए'... कहते हुए उसके भरे आंखों के आंसू गालों से होकर गिरने लगे। मैं और व्यथित हो उठी और उसे गले से लगा लिया। 
 
स्वाति किसी अबोध बच्चे की तरह मेरी गोद में सिमटती जा रही थी। सुबकते हुए स्वाति ने कहा, 'यही नहीं, मेरी मां थी वो मेरी अपनी मां लेकिन बेटों के मोह में फंसी हुई थी। बेटी उसके लिए कुछ भी न थी। वक्त गुजरा, मैं समय के साथ सब कुछ सीख चुकी थी। पढ़ाई के साथ-साथ घर की जिम्मेदारी भी किसी कुशल गृहिणी की तरह निभाने लगी थी। सोलहवें वसंत के आते-आते शादी की बात भी होने लगी थी, जैसे मुझसे मुक्ति के रास्ते तलाशे जा रहे थे।
 
मैंने मां को पापा से बातें करते सुना तो खुद को रोक नहीं पाई। मैंने पापा से कहा, 'पापा मैं पढ़ना चाहती हूं, कुछ करना चाहती हूं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं।' 
 
पर जानती है मेरे पापा ने क्या कहा, 'स्वाति बेटा, अच्छे रिश्ते बार-बार नहीं मिलते... बहुत अच्छी फैमिली है, छोटी सी फैमिली है, लड़का इंजीनियर है, तू बहुत खुश रहेगी वहां...।
 
इतना सुनते ही मैंने बस इतना ही कहा था... ठीक है पापा, बोझ हूं न आप सबके लिए उतार दीजिए... कल मुझे जलाकर मार डालेगा, तब आप संतुष्ट होंगे न?
 
 

 


मुझे रोते हुए देख और ऐसी बात सुनकर पापा सकपका-से गए थे... तब बोले नहीं-नहीं बेटा, ऐसी बात नहीं है... तू नहीं चाहती तो मैं कतई तेरी शादी की बात नहीं करूंगा। और कुछ महीनों बाद ही एक खबर ने सबको चौंका दिया था। वो ये कि उस सो काल्ड अच्छी फैमिली ने पैसों के लिए जिस लड़की से शादी की थी उसे जलाकर मार डाला। 
 
इतना कहते-कहते स्वाति मेरी गोद से उठकर दीवार के सहारे बैठ गई... मैं आगे स्वाति की दास्तां सुनने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। मेरी उलझनें बढ़ती जा रही थीं, मेरे मन में भी न जाने कितने सवाल लहरों की तरह हलचल मचा रहे थे तभी उसका 2 साल का बेटा आकर उसकी गोद में बैठ गया और तोतली आवाज में अपनी मां से अपनी बड़ी बहन की शिकायत बताते हुए बोला, मां, दीदी मुझे चॉकलेट नहीं दे रही। बच्चों के आने से मैंने राहत की सांस ली। 
 
स्वाति बच्चों को बहलाने चली गई। मैं अकेले उस कमरे में बैठी थी। आज वही घर एकदम अजीब-सा लग रहा था... हर चीज जो कमरे में करीने से रखी थी आज कुछ कहती हुई-सी लग रही थी... खिड़की और दरवाजे के खूबसूरत परदे हवा के साथ अठखेलियां कर रहे थे। बच्चों को बहलाकर घर के नौकर के साथ उन्हें बाहर लॉन में खेलने को भेज दिया और दुसरे नौकर से बाहर लॉन में ही कुर्सियां लगाने को बोला, तभी उर्मी जो उसकी हेल्पर थी, स्वाति के साथ ही कमरे में आई और बोली, 'मेमसाब कॉफी और स्नेक्स बाहर ही लगवा रही हूं। मौसम भी काफी अच्छा है।' 
 
स्वाति बोली, 'नहीं उर्मी, यहीं भिजवा दो। मुझे बाहर का मौसम बहुत अच्छा लग रहा था। मुझे लगा स्वाति भी बाहर बैठेगी तो दिल बहल जाएगा।'  
 
स्वाति बाहर लॉन में ही बैठते हैं न, और बच्चे भी तो हैं वहां, मैंने कहा। 
 
स्वाति मुझे मना न कर सकी। और उर्मी की ओर देखकर कहा, ठीक है बाहर ही लगवा दो। हम दोनों बाहर लॉन में बैठे व बच्चों को खेलता देख स्वाति मुस्कुराई और मुझसे बोली, 'तुझे याद है बचपन में हम सब भी तो शाम में ऐसे ही खेला करते थे।' 
 
मैंने भी सर हिलाकर उसकी बातों को स्वीकृति दी और फिर स्वाति अपनी वही पुरानी बातों में उलझ गई और कहने लगी, जब हम सारे भाई-बहन खेलने के बाद घर में जाते तो जोरों की भूख लगी रहती थी, हम खूब हल्ला मचाते- भूख लगी है, भूख लगी है, तब मां को मेरे भाई की चिंता ज्यादा सताती थी, मां मुझे ही कहती, पहले भाई को सर्व करो फिर तुम खाओ। कभी-कभी तो भाई को भूख भी नहीं होती थी, मां उसे जबरदस्ती खिलाती। 
 
'छोड़ न स्वाति क्यूं बीती बातों को लेकर बैठी है, जो बीत गई उसे क्या सोचना... स्वाति की आंखों से दो बूंद गिर पड़े और होठों पर हलकी-सी मुस्कान... 'नहीं... आज मुझे कह लेने दे, ये सारी बातें अब नासूर बनती जा रही हैं। मुझे बैडमिंटन खेलने का बहुत शौक था। तुझे तो याद ही होगा, जब शाम को मैं खेलने आती थी तो मां की हिदायत के साथ कि मैं कोई नखरे तेरे नहीं उठाऊंगी, डिनर भी तुझे ही बनाने हैं और मैं भी मुस्कुराकर कहती, कोई बात नहीं मां मैं सब कर दूंगी और तुमसे बहुत अच्छा करूंगी और टाइम से भी कर दूंगी, कहते हुए घर से निकल आती थी। मुझे कभी कोई तकलीफ होती तो भी मैं मां से नहीं कहती' स्वाति ने मुस्कुराते हुए कहा।
 
 
 

 


कुछ ही दिनों बाद तकदीर एक बार फिर उसी मोड़ पर ले आई। मेरा एक एक्सीडेंट हो गया और मुझे कभी चोटें आईं। उन दिनों पापा की पोस्टिंग बुलंदशहर में थी। 
 
शाम को जब फोन आया तो फोन हमारे घर के नौकर ने ही उठाया। उसने तुरंत सारी बात कह दी कि गुड़िया को बहुत चोटें आई हैं। पापा सुनते ही बिना सोचे-समझे बिना किसी लीव ऑर्डर के देर रात घर आ गए और सबसे पहले मेरे कमरे में आए मुझे सोते हुए देखकर मां से पूछा, 'डॉक्टर को दिखाया।'  बिना किसी जवाब को सुने मेरे सर पर हाथ रखा और पूछा, 'बेटा तू ठीक तो है न...?'

 मैं पापा को अपने पास देखकर अचंभित हुई, आप इतनी रात को और आपको कैसे पता कि मेरा... मेरी बात को वहीं रोकते हुए पापा बोले, मैं मीटिंग से बाहर निकला था तभी फोन किया था। यहां तो रामलाल ने मुझे बताया, मैंने तुरंत अपने सीनियर को बताया, उन्होंने हां कर दिया और मैं चला आया अपनी बेटी से मिलने। ऐसा करते हैं कल साथ-साथ चलते हैं। मैं तुझे वान्हन डॉक्टर को दिखा दूंगा और तुझे थोड़ा चेंज भी मिल जाएगा... मैं भी खुशी-खुशी पापा के साथ जाने को तैयार हो गई... मुस्कुराते हुए स्वाति ने कहा।
 
...अगली सुबह एक अजीब-सा एहसास लेकर आई थी, मैंने फटाफट पैकिंग की और अपनी कॉफी झट से खत्म करके पापा से बोली, 'पापा मैं तैयार हो गई और अब चलें।' 
 
'नहीं बेटा, तेरा छोटा भाई भी साथ चलेगा, तुम्हारी मां कह रही हैं कि उसे भी साथ लेते जाइए', पापा ने मुझसे कहा। 
 
हम घर से सुबह 6 बजे निकल गए। जिंदगी भी आज शायद किसी और करवट का इंतजार कर रही थी। हम घर तक पहुंचने ही वाले थे और पापा की ऑफिसियल कार मिल गई तो पापा उससे ऑफिस जाने के लिए बैठ गए। हम कुछ दूर बढ़े ही थे कि हमारी कार को एक ट्रक ने बुरी तरह टक्कर मार दी और रास्ते में मौत से मुलाकात होते-होते रह गई और जिंदगीभर के लिए चोट तन और मन दोनों पर दे गई। भीड़ में मुझे पापा की तलाशती नजरें... मुझे खो देने का दर्द उनकी आंखों में साफ झलक रहा था। 
 
हम गाड़ी में बुरी तरह फंस गए थे। हमें गाड़ी का दरवाजा काटकर बाहर निकाला गया। मुझे देखकर उनकी आंखों को तसल्ली हुई और हमें तुरंत ऑफिस की गाड़ी से हॉस्पिटल पहुचाया गया। इधर पापा अपनी कानूनी कार्रवाई में लग गए, क्यूंकि हमारी गाड़ी के चालक उसी समय दुनिया छोड़ चुके थे। 
 
देर रात तक जब फुर्सत पाकर पापा घर आए तो उनके बहुत ही अच्छे और पारिवारिक मित्र, जो वहीं एडीएम के पोस्ट पर कार्यरत थे, हॉस्पिटल से ही हमारे साथ हो लिए थे। उनसे सलाह कर वापस सब साथ घर लौट आए। 
 
मां ने हम सबको अचानक देखा तो घबरा गईं और वजह बताने पर उनकी नजरें मुझ पर टिक गईं और और उनकी आंखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। 
 
आज मुझे अपने दूसरे जन्म का एहसास हो रहा था जिसमें मां-पापा दोनों का प्यार था, दोनों की आंखों में मुझे खोने के खौफ के बाद का पाने का सुखद एहसास था, अचानक मैं मेरी महत्वपूर्णता की अनुभूति से भर उठी थी। जिंदगी एकदम नई लगने लगी थी। अब हर तरफ मैं ही मैं थी। आज सब कुछ बदला- बदला-सा लग रहा था। 
 
 

 


इतना कहने के बाद स्वाति की आंखों में वही पुरानी चमक और होंठों पर चिर-परिचित मुस्कान देखी मैंने। एक पल को लगा कि सब ठीक हो गया और अपने दिल के उतरते बोझ के साथ फटाफट मैंने स्वाति को दो-चार नसीहतें भी दे डालीं। मेरी बातों को सुनकर स्वाति खिलखिलाकर हंस पड़ी। अब वातावरण मुझे थोड़ा हल्का लगने लगा था। 
 
तभी स्वाति ने कहा, 'इतनी नसीब वाली मैं कहां... काश! कि ऐसा ही मंजर हमेशा के लिए रुक गया होता, मगर ये भ्रम या हकीकत जो भी थी, पलभर के लिए ही मेरे जीवन में आई थी।
 
मैं उसकी बातों को सुनकर फिर चौंक पड़ी। तभी स्वाति ने कहा, 'थोड़ा सा ही प्यार मेरे हिस्से में लिखा था शायद, जो मुझे इस तरह मिल चुका था क्यूंकि आगे अभी बहुत कुछ सहना जो था। ये प्यारभरे पल चंद दिनों में ही कपूर की मानिंद उड़ गए और मुझे पता भी नहीं चला। 
 
मैंने अभी अपनी पढ़ाई पूरी भी नहीं की थी कि मेरी शादी कर दी गई। इस बार मैं कुछ न कर सकी। 
 
शादी की विदाई में मेरे लिए मेरे अमीर पापा के पास बेटों के लिए प्रॉपर्टी बनाने के लिए सब कुछ था, लेकिन मुझे देने के लिए कोरी बातों के अलावा कुछ भी नहीं था। आखिर मैं उनकी अकेली बेटी जो थी इसलिए मां ने भी अपने पास से अपने अहम को दहेज के रूप में मुझे दिया जिसे लेकर मैं ससुराल भी आ गई। एक बार फिर से मैं अपमान का घूंट पीने लगी। जिंदगी को और करीब से जानने और समझने लगी। 
 
रिश्तों का फरेब और उसका खोखलापन दीमक की तरह मुझे अंदर ही अंदर काटने लगा। मैं अपनी परिस्थितियों से जूझने के लिए अपने मनोबल को संभालते हुए अपनी पढ़ाई और पढ़ाई के दौरान ही अपनी बच्ची को जन्म देने के बाद अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना नहीं छोड़ सकी। मेरी मां का दिया हुआ दहेज किसी साए की तरह आज भी मेरे साथ चलता है जबकि मैंने अपने व्यवहार से सभी के दिलों को जीतने की पूरी कोशिश की। वर्षों बाद मुझे थोड़ी सफलता भी हासिल हो ही गई। 
 
अभी गम कम न थे मेरे, जिंदगी में कड़वाहट के रंगों का असर महसूस करते हुए कुछ साल गुजर चुके थे कि इसी बीच पति का तबादला भी ऐसी जगह हो गया, जहां से साल में एक या दो बार से ज्यादा आ पाना मुमकिन न था। जिंदगी के हर इम्तिहान को मैं पास तो कर आई थी लेकिन इस बार बुरी तरह टूट गई थी। 
 
 

जिंदगी ने एक बार फिर मुझे वहीं लाकर खड़ा कर दिया था, जहां मैं पलटकर कभी रहने आना नहीं चाहती थी। पापा का व्यवहार भी मेरे प्रति काफी बदल चुका था। अब मां को कभी-कभी मुझ पर तरस आ जाता था। 
 
घर में भाई की शादी भी हो चुकी थी। हम एक ही शहर में रहने लगे थे। अब मुझे उपहार में मिलने वाली चीजों का मूल्य भी बताया जाने लगा था, मेरे नन्हे बच्चों को दिए हुए चॉकलेट-टॉफी की कीमत और गिनती भी सुनाई जाती थी।
 
कभी झूठे इल्जाम से नवाजी जाती, कभी जब उनके मतलब या जरूरतें होतीं तो किसी नौकरानी की तरह काम करने के लिए बुला ली जाती। दर्द से जब दिल भारी हो जाता तो अपनी छोटी-सी बेटी को सीने से लगाकर जी भरकर रो लेती। इसी बीच हमने अपना मकान बनवा लिया।
 
हाथ थोड़े तंग क्या हुए कि मेरे भाइयों को मेरे पहने हुए कपड़ों से उन्हें शर्म आने लगी और अब मेरे दिए हुए उपहार के मूल्य आंके जाने लगे। मुझे उसे लेकर खरी-खोटी सुनाई जाती थी। मुझे पापा के घर आने को मना कर दिया गया। 
 
मैं अकेली अपने नन्हे बच्चों के साथ जिंदगी जी रही थी और अब तो भाइयों ने मेरी मदद के बजाय मुझसे रिश्ता ही तोड़ लिया। मैं जब अपनी बीमार बच्ची को, जो मौत के मुंह तक पहुंच चुकी थी, लिए दर-ब-दर भटक रही थी, किसी अपने के सहारे की अधिक जरूरत महसूस कर रही थी, तब मुझसे जुड़े हर रिश्तों- मायके और ससुराल- दोनों ने मुझसे अपना-अपना दामन बचा लिया। 
 
ईश्वर की कृपा से मेरी बच्ची ठीक हुई, तो मुझसे ही मेरे यही दूर हुए रिश्ते जुड़ने लगे। मेरे दिल का घाव और गहरा होने लगा था। मैं अकेली लड़की नन्हे बच्चों के साथ सांसें संभालने लगी थी। ईश्वर ने भी तभी मेरी एक और परीक्षा ली। मेरी गृहस्थी में आग लगा दी। मेरे घर का सारा सामान जलकर खाक हो गया। जली गृहस्थी पर भाई-भाभी की जली-कटी बातों के कटाक्ष भी मिले। गृहस्थी की आग बुझते-बुझते मेरे सीने में हमेशा हमेशा के लिए लग गई। 
 
स्वाति की आवाज भर्रा उठी और थमे हुए आंसू किसी धारा की तरह फूट पड़े। एक बार फिर मैंने उसे उसके दर्द में डूबा पाया। मैं भी सन्न-सी हो गई। एक सन्नाटा-सा चारों ओर पसरा-सा महसूस होने लगा। 
 
स्वाति ने कहा, शायद वो आखिरी इम्तिहान था और वह रोते हुए मुस्कुराने लगी। कुछ ही दिनों बाद मैं अपने पति के पास चली आई। एक हल्की-सी राहतभरी मुस्कुराहट के साथ स्वाति ने बताया। तुझे जानकर हैरानी होगी मैं जब पांच-छः साल बाद अपने घर, जिसे मायका कहूं तो ही बेहतर होगा, गई थी तो शायद मैं और भी बोझिल हो गई थी। 
 
घर में चार-चार गाड़ियों के होते हुए भी मैं बारिश में भीगती हई बारिश के मौसम में सड़कों पर भरे हुए पानी से होते हुए वापस आई। और तो और, मुझे किसी ने दरवाजे तक छोड़ने की भी जहमत भी नहीं उठाई।
 
दर्द से मेरा हृदय भर उठा था। अब मैं भ्रमित हो रही थी। समझ में ये नहीं आ रहा था कि स्वाति को दिलासा दूं या खुद जी भरकर रो लूं। 
 
'मैं अपनी मां से मिलने नहीं जाना चाहती, क्यूंकि मुझे यकीन है कि कोई नया जख्म मेरी तलाश में होगा' स्वाति ने हिचकियां लेते हुए मुझसे कहा। 
 
मैं भी स्तब्ध हो गई थी।
 
'लेकिन मैं एक बार अपनी मां से मिलना भी चाहती हूं। जिंदगी के चंद क्षणों में जब उसने मुझे प्यार दिया था, वो पल दुबारा जीना चाहती हूं, अब तू बता, मुझे जाना चाहिए या नहीं? मैंने तुझे इसीलिए बुलाया है, बता न?' मेरे हाथों को हिलाते हुए स्वाति ने मुझसे पूछा।
 
मैं स्वयं भी निर्णय लेने में अक्षम महसूस कर रही थी। खुद को संभालते हुए मैंने स्वाति से कहा, 'तुझे सब कुछ भूल जाना चाहिए स्वाति और इन्हीं बच्चों में अपनी हर खुशी तलाशनी चाहिए।' 
 
तू वास्तव में स्वभावतः इतनी परिपक्व है कि तुझे कोई नहीं तोड़ सकता, तू दूसरों का दर्द भी बांट लेती है, तुझे ईश्वर अब दर्द कभी नहीं दे सकता, तुझ पर ये उदास चेहरा जंचता नहीं, तू मुस्कुराती हुई ही बहुत प्यारी लगती है और कल ऑफिस में मुझे मेरी प्यारी और अपनी स्वाति मिलेगी, इतना मुझे भी यकीं है। 
 
अब बहुत देर हो गई थी और घर पर सबको मेरा इंतजार था इसलिए मैंने स्वाति से इजाजत मांगते हुए कहा कि स्वाति मुझे अब घर चलना चाहिए। 
 
तभी स्वाति मुस्कुराई और कुछ कागज जो उसके हाथ में थे, उसने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए और बोली 'तेरे आने से मेरा जी हल्का हो गया' फिर मुझे छोड़ने मेरी कार तक आई और अपने पुराने अंदाज में मुस्कुराते हुए मुझसे कल ऑफिस आने का वादा कर अपने बच्चों के साथ अपनी दुनिया में रम गई।